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शिक्षाप्रद कथाएँ (1569)

एक धर्मात्मा ब्राह्मण थे, उनका नाम मांडव्य था| वे बड़े सदाचारी और तपोनिष्ठ थे| संसार के सुखों और भोगों से दूर वन में आश्रम बनाकर रहते थे| अपने आश्रम के द्वार पर बैठकर दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर तप करते थे| वन के कंद-मूल-फल खाते और तपमय जीवन व्यतीत करते| तप करने के कारण उनमें प्रचुर सहनशक्ति पैदा हो गई थी|

एक हाथी था| वह मर गया तो धर्मराज के यहाँ पहुँचा| धर्मराज ने उससे पूछा- ‘अरे! तुझे इतना बड़ा शरीर दिया, फिर भी तू मनुष्य के वश में हो गया! तेरे एक पैर जितना था मनुष्य, उसके वश में तू हो गया!’ वह हाथी बोला-‘महाराज! यह मनुष्य ऐसा ही है|

लक्ष्मीनारायण बहुत भोला लड़का था| वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था| दादी उसे नागलोक, पाताल, गन्धर्वलोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी|

भगवान श्रीराम जब समुद्र पार कर लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल बांधने में सलंग्न हुए, तब उन्होंने समस्त वानरों को संकेत दिया कि, ‘वानरो ! तुम पर्वतों से पर्वत खण्ड लाओ जिससे पुल का कार्य पूर्ण हो जाए|’ आज्ञा पाकर वानर दल भिन्न-भिन्न पर्वतों पर खण्ड लाने के लिए दौड़ पड़े और अनेक पर्वतों से बड़े-बड़े विशाल पर्वत खण्डों को लाने लगे| नल और नील जो इस दल में शिल्पकार थे, उन्होंने कार्य प्रारंभ कर दिया|

एक बार की बात है| बादशाह अकबर कहीं जंगल में शिकार के लिए गये| साथ में बहुत आदमी थे, पर दैवयोग से जंगल में अकेले भटक गये| आगे गये तो एक खेत दिखायी दिया| उस खेत में पहुँचे और उस खेत के मालिक से कहा-‘भैया! मुझे भूख और प्यास बड़ी जोर से लगी है|

काशी प्राचीन समय से प्रसिद्ध है| संस्कृत-विद्या का वह पुराना केंद्र है| उसे भगवान् विश्वनाथ की नगरी या विश्वनाथपुरी भी कहा जाता है| विश्वनाथ जी वहाँ बहुत प्राचीन मन्दिर है|

संसृति मूल सूलप्रद नाना | सकल सोक दायक अभिमाना ||
तेहि ते करहिं कृपानिधि दूरी | सेवक पर ममता अति भूरी ||

भारत के महाराष्ट्र प्रदेश में संत एकनाथ नामक एक तपस्वी महात्मा हुए हैं| एक दिन वह नदी से स्नान कर अपने निवास स्थान की ओर लौट रहे थे कि रास्ते में एक बड़े पेड़ से किसी ने उन पर कुल्ला कर दिया|

पुराण भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है| पुराणों में मानव-जीवन को ऊंचा उठाने वाली अनेक सरल, सरस, सुन्दर और विचित्र-विचित्र कथाएँ भरी पड़ी है| उन कथाओं का तात्पर्य राग-द्वेषरहित होकर अपने कर्तव्य का पालन करने और भगवान् को प्राप्त करने में ही है| पद्मपुराण के भूमिखण्ड में ऐसी ही एक कथा आती है|

एक बड़े सदाचारी और विद्वान ब्राह्मण थे| उनके घर में प्रायः रोटी-कपड़े की तंगी रहती थी| साधारण निर्वाहमात्र होता था| वहाँ के राजा बड़े धर्मात्मा थे| ब्राह्मणी ने अपने पति से कई बार कहा कि आप एक बार तो राजा से मिल आओ, पर ब्राह्मण कहते हैं कि वहाँ जाने के लिए मेरा मन नहीं कहती|

एक व्यापारी अपने ग्राहक को शहद दे रहा था| अचानक व्यापारी के हाथ से छूटकर शहद का बर्तन गिर पड़ा| बहुत-सा शहद भूमि पर ढुलक गया| जितना शहद व्यापारी उठा सकता था, उतना उसने ऊपर-ऊपर से उठा लिया; लेकिन कुछ शहद भूमि में गिरा रह गया|

दूसरों का हक हमारे पास न आये-इस विषय में मनुष्य को खूब सावधान रहना है| अपनी खरी कमाई का अन्न खाओगे तो अन्तःकरण निर्मल होगा और अगर चोरी का ठगी-धोखेबाजी का, अन्याय का अन्न खाओगे तो अन्तःकरण महान अशुद्ध हो जायगा|  

जिन दिनों महाराज युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का उपक्रम चल रहा था, उन्हीं दिनों रत्नपुराधीश्वर महाराज मयूरध्वज का भी अश्वमेधीय अश्व छुटा था, पाण्डवीय अश्व की रक्षा में श्रीकृष्ण, अर्जुन थे, उधर ताम्रध्वज ! मणिपुर में दोनों की मुठभेड़ हो गई| युद्ध में भगवदेच्छा से ही अर्जुन को पराजित करके ताम्रध्वज दोनों अश्वों को अपने पिता के पास ले गया| पर इससे महाराज मयूरध्वज के मन में हर्ष के स्थान पर घोर विषाद हुआ| कारण, वे श्रीकृष्ण के अद्वितीय भक्त थे|

शरीर बहुत ही प्यारा लगता है, पर यह जाने वाला है| जो जाने वाला है उसकी मोह-ममता पहले से ही छोड़ दें| यदि पहले से नहीं छोड़ी तो बाद में बड़ी दुर्दशा होगी| भोगों में, रूपये में, पदार्थों में, आसक्ति रह गयी, उनमे मन रह गया तो बड़ी दुर्दशा होगी| साँप, अजगर बनना पड़ेगा; भूत प्रेत, पिचाश आदि न जाने क्या-क्या बनना पड़ेगा!

मातादीन के पाँच पुत्र थे-शिवराम, शिवदास, शिवपाल, शिवसहाय और शिवपूजन| ये पाँचों लड़के परस्पर झगड़ा किया करते थे| छोटी-सी बात पर भी आपस में ‘तू-तू’, ‘मैं-मैं’ करने लगते और गुत्थमगुत्थी कर लेते थे|

महाराज युधिष्ठिर ने जब सुना कि श्रीकृष्ण ने अपनी लीला का संवरण कर लिया है और यादव परस्पर कलह से ही नष्ट हो चुके हैं, तब उन्होंने अर्जुन के पौत्र परीक्षित का राजतिलक कर दिया| स्वयं सब वस्त्र एवं आभूषण उतार दिए| मौन व्रत लेकर, केश खोले, संन्यास लेकर वे राजभवन से निकले और उत्तर दिशा की ओर चल पड़े| उनके शेष भाइयों तथा द्रौपदी ने भी उनका अनुगमन किया|

एक गाँव की सच्ची घटना है|  वहाँ एक मुसलमान के घर बालक हुआ, पर बालक की माँ मर गयी| वह बेचारा बड़ा दुखी हुआ| एक तो स्त्री के मरने का दुःख और दूसरा नन्हे-से बालक का पालन कैसे करूँ-इसका दुःख! पास में ही एक अहीर रहता था|

देवीसहायका लड़का भगवती प्रसाद बीमार हो गया था| वह गरमी की दोपहरी में घर से चुपचाप आम चुनने भाग गया और वहाँ उसे लू लग गयी| उसे जोर से ज्वर चढ़ा था| देवीसहाय ने वैद्य जी को अपने लड़के की चिकित्सा के लिये बुलाया| 

महाभारत युद्ध समाप्त हो गया था| धर्मराज युधिष्ठिर एकछत्र सम्राट हो गए थे| श्रीकृष्ण की सम्मति से रानी द्रौपदी तथा अपने भाइयों के साथ वे युद्धभूमि में शरशय्या पर पड़े प्राण त्याग के लिए सूर्यदेव के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते परम धर्मज्ञ भीष्म पितामह के समीप आए थे| युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म पितामह उन्हें वर्ण, आश्रम तथा राजा-प्रजा आदि के विभिन्न धर्मों का उपदेश दे रहे थे| यह धर्मोपदेश चल ही रहा था कि रानी द्रौपदी को हंसी आ गई|

एक राजा था| वह एक दिन शाम के वक्त अपने महल की छत पर घूम रहा था| साथ में पाँच-सात आदमी भी थे| महल के पीछे कुछ मकानों के खण्डहर थे|

एक व्यापारी के पास दो टट्टू थे| वह उन पर सामान लादकर पहाड़ों पर बसे गाँवों में ले जाकर बेचा करता था| एक बार उनमें से एक टट्टू कुछ बीमार हो गया| व्यापारी को पता नहीं था कि उसका एक टट्टू बीमार है|

महाराज युधिष्ठिर कौरवों को युद्ध में पराजित करके समस्त भूमण्डल के एकछत्र सम्राट हो गए थे| उन्होंने लगातार तीन अश्वमेध यज्ञ किए| उन्होंने इतना दान किया कि उनकी दानशीलता की ख्याति देश-देशांतर में फैल गई|

गीता के अध्ययन और श्रवण की तो बात ही क्या है, गीता को रखने मात्र का भी बड़ा माहात्म्य है! एक सिपाही था| वह रात के समय कहीं से अपने घर आ रहा था| रास्ते में उसने चन्द्रमा के प्रकाश में एक वृक्ष के नीचे एक सुन्दर स्त्री देखी| उसने उस स्त्री से बातचीत की तो उस स्त्री ने कहा-मैं आ जाऊँ क्या? सिपाही ने कहा-हाँ, आ जा|

हिमालय की तराई में एक सघन वन था| वन में तरह-तरह के पशु-पक्षी रहते थे| वहीं जगह-जगह ऋषियों की झोंपड़ियां भी बनी हुई थीं| ऐसा लगता था मानो प्रकृति ने अपने हाथों से उस वन को संवारा हो| उन्हीं झोंपड़ियों के पास एक तेजस्वी युवक बहुत दिनों से अंगूठे के बल खड़ा होकर तप में लीन था| उसने खाना-पीना सबकुछ छोड़ दिया था| वह केवल हवा पीकर ही रहता था| उसका शरीर सूख गया था, सिर के बाल बढ़ गए थे, पर चेहरे पर तेज बढ़ता जा रहा था, लगता था, मानो दूसरा सूर्य निकल रहा हो|

बादशाह अकबर ने बीरबल से पूछा – “झूठ और सच में क्या अंतर है?”

इस संसार को ब्रम्हा जी ने एक बार मनुष्य को अपने पास बुलाकर पूछा-‘तुम क्या चाहते हो?’

प्राचीन भारत में पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा तेजस्वी पुत्र प्राप्त करने की प्रथा थी| जब किसी बहुत बड़े नृपति को संतान का अभाव दुख देता था, तो वह ऋषियों और महात्माओं के द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ कराता था| यज्ञ के कुंड से हवि बाहर निकलती थी| उस हवि को खाने से मनचाहे पुत्र की प्राप्ति होती थी| पांचाल देश के नृपति के कई पुत्र थे, फिर भी उन्होंने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए पुतेष्टि यज्ञ कराया था| उन्होंने पुत्र होने पर भी पुतेष्टि यज्ञ क्यों कराया था – इस बात को नीचे की कहानी में जानिए –

दरबारियों की चुगलखोरी से परेशान होकर बीरबल अज्ञातवास पर चला गया| बादशाह अकबर ने उसकी बहुत खोज करवाई किन्तु नहीं मिला| उन्हें इतना तो यकीन था कि वह आसपास के किसी गांव में छिपकर रह रहा है, किन्तु कहां… यह पता नहीं चल पा रहा था|

संध्या के पूर्व का समय था| एकचक्रा नगर के एक मकान के एक कमरे में सात मनुष्य बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे| मकान उस ब्राह्मण का था, जिसके घर में पांडव अपनी मां कुंती के साथ टिके हुए थे|

बादशाह अकबर को अपनी फौज के लिए कुछ जिरहबख्तर की आवश्यकता थी| अत: उन्होंने इसके कारीगर को बुलवाया और पहले एक जिरहबख्तर बनाने का आदेश दिया ताकि उसकी मजबूती को परखा जा सके|