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दिगंबर की भक्तिनिष्ठा

संसृति मूल सूलप्रद नाना | सकल सोक दायक अभिमाना ||
तेहि ते करहिं कृपानिधि दूरी | सेवक पर ममता अति भूरी ||

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एक बार अर्जुन को गर्व हुआ कि ‘भगवान का सबसे लाडला मैं ही हूं|’ तभी तो श्रीकृष्ण स्वयं ‘पाण्डवानां धनंजय:’ कहते फुले नहीं समाते| उन्होंने मेरे प्रेम में आबद्ध होकर अपनी बहन सुभ्रदा को भी मुझे सौंप दिया| समरांगण में वे मेरे सारथि बने और मेरे निमित्त उन्होंने दैत्यादि का जघन्य कृत्य स्वीकार किया, यहां तक कि रणभूमि में स्वयं अपने हाथों से मेरे घोड़े के घाव तक भी धोते रहे| मैं यद्यपि उनकी प्रसन्नता के लिए कुछ भी नहीं करता, तथापि मेरे सुखी रहने से ही उन्हें बड़ा सुख तथा आनंद मिलता है| सचमुच मैं उनका परम प्रियतम हूं|

प्रभु को इसे तोड़ने देर न लगी| एक दिन वे अर्जुन को वनभूमि के मार्ग से ले गए| अर्जुन ने देखा कि एक नग्न मनुष्य बाएं हाथ में तलवार लिए, भूमि पर पड़े सूखे तृण खा रहा है| उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, ‘सूखे ! यह कौन-सा जीव है?’

श्रीकृष्ण ने विस्मय का अभिनय करते हुए कहा, ‘यह तो कोई क्षीब (शराबी) मालूम पड़ता है| इसका भोजन भी विचित्र ही दिखलाई पड़ता है|’

श्रीकृष्ण को वहीं एक शिलाखण्ड पर बैठाकर अर्जुन अकेले ही उस नग्न व्यक्ति की ओर चले और उसके पास जाकर बोले, ‘पुण्यव्रत ! मुझे क्षमा करेंगे, मैं अत्यंत कौतूहल से भरकर आपकी ओर आकृष्ट हुआ हूं| मेरी यह जिज्ञासा है कि आपने मनोवांछित भोजन का परित्याग करके इस तृण राशि को अपना खाद्य क्यों बनाया?’

क्षीब ने कहा, “जाओ तुम्हारा पथ निरापद हो| तुम्हारे कुतूहल-निराकरण के लिए मेरे पास जरा भी अवकाश नहीं| साथ ही ग्रासाच्छादन जैसे तुच्छ पदार्थ की भी वृथा चिंता करने का मेरे पास अवसर कहां है?”

अर्जुन ने कहा, “धर्मवेत्ताजन जिज्ञासापूर्ण कुतूहल निवृत्ति को धर्म बतलाते हैं|”

क्षीब ने कहा, “देखता हूं तुम्हारे इस दुराग्रह – परिहास का कोई उपाय नहीं है| पर तुम्हीं बतलाओ कि इस दग्ध उदर की पूर्ति के लिए क्या कोमल शिशु तृणरात्रि का वध किया जाए?”

अर्जुन ने कहा, “योगेश्वर ! आपको तथा आपके इस सार्वभौम अहिंसा-महाव्रत को नमस्कार| तथापि आपका चरित्र मुझ जड़बुद्धि के लिए सर्वथा दुखग्राह्य ही है, क्योंकि एक ओर तृणपर्यंत प्राणियों को अभय देने वाला आपका यह अहिंसा का सार्वभौम महाव्रत और दूसरी ओर बाएं हाथ में यह नग्न तलवार|”

नग्न ने कहा, “देखता हूं, तुम्हारा कौतूहल निरंकुश एवं दुर्वार है| अच्छा तो तुम इसे अपने मनोबल से ही शांत कर लो, क्योंकि तुम्हारे कौतूहल-निवारण के प्रत्यन में मेरा जो अपने हृदयस्थ से विच्छेद होगा, उसे मैं सहन नहीं कर सकूंगा| तो भी यदि तुम मेरे शत्रुओं को मारने की प्रतिज्ञा करो, तो निश्चय समझो कि मैं तुम्हारा दास हो जाऊंगा|”

अर्जुन ने कहा, “क्या आपका भी कोई शत्रु है? यदि ऐसा है तो वस्तुत: वह विश्व का शत्रु है और उसे मारने के लिए मैं सदा प्रस्तुत हूं|”

क्षीब ने कहा, “और वही अकेला नहीं, दो और हैं| इन तीनों ने मिलकर मेरे प्राणप्रिय सखा को अपमानित किया है|”

अर्जुन ने कहा, “बतलाइए, वे कौन हैं और कहां रहते हैं? कौन हैं आपके वे सखा और उनका अपमान कहां और कैसे हुआ? आप विश्वास रखें मैं वृथा श्लाघा करने वाला व्यक्ति नहीं हूं|”

उस दिगंबर ने कहा, “जगत्पालक प्रभु मेरे परम सखा जब श्रम से सो रहे थे, तब उनकी छाती पर एक विप्राधम ने तीव्र पदाघात किया और जब प्रभु ने इस पर भी केवल यही कहा, ‘विप्र ! आपके चरणों में चोट तो नहीं आई|’ यही नहीं, वे उस ब्रह्मणाधम के चरणों को अपनी गोद में लेकर दबाने लगे| उस पर ब्राह्मण ने उधर दृष्टि भी नहीं डाली| मैं जब-जब ध्यान में अपने परम मित्र के हृदय को देखता हूं, तब उस पद्-चिह्न को देखकर मेरे हृदय में शूल होता है| मैं उस चिह्न को मिटा न सका तो उस भू-कलंक को ही मिटा डालूं|”

अर्जुन ने कहा, “तो क्या इस ब्रह्म हत्या के आचरण से ही आपके कर्तव्य का पालन होगा और वह ब्रह्महत्या भी और किसी की नहीं, उसकी जो ज्ञानी कुल का आदि पुरुष है?”

क्षीब ने कहा, “उस मेरे प्राण प्रियतम बंधु के लिए ऐसा कौन-सा अकार्य है, जिसे मैं सहन नहीं कर सकता?”

अर्जुन ने कहा, “अस्तु ! आप और किस पुरुष का विनाश चाहते हैं?”

क्षीब ने कहा, “पुरुष का? ऐसा क्यों कहते हो? किसी स्त्री का विनाश चाहते हैं, यह पूछो? क्या तुमने नहीं सुना कि जिसके पांच-पांच पति हैं, उस स्त्री ने दुर्वासा के शाप से बचने के लिए अपना जूठा शाक मेरे सखा को खिलाया था| यदि वह स्त्री कहीं मुझे दीख जाए तो मेरा यह खड्ग उसे अवश्य ही चाट जाए|”

अर्जुन ने कहा, “हे योगेश्वर ! क्या ब्रह्महत्या और स्त्रीहत्या करने के लिए ही मेरी मां ने मुझे स्तनपान कराया था? यदि ऐसा ही था तो मेरा जन्म न लेना ही अच्छा था, यदि कोई क्षत्रियोचित कार्य हो तो उसे करने के लिए मुझे आज्ञा दें|”

यह सुनकर दिगंबर बोला, “यदि तुम्हें थोड़ा भी अपने शौर्य का गर्व हो तो तुम उस क्षत्रियाधम निकृष्ट योद्धा का विनाश कर क्षत्रिय कुल को निष्कलंक करो, जिसने मेरे सखा को घोड़ी की लगाम हाथ में सौंपकर सारथि बनाया था, दूसरे से शक्ति उधार लेकर जो मन में अपने को वीर मानता है| वह कृत्रिम वीर यदि कभी मेरे सामने आ गया तो आततायी समझकर मैं उसे तुरंत मार डालूंगा, क्योंकि उसने जगदीश्वर का इतना बड़ा अपमान किया है|”

अर्जुन को अब भान हुआ कि मैं कितने पानी में हूं| उन्होंने कहा, ” योगेश्वर ! यदि आप चाहते हैं कि वह पापनिष्ठ अभी लुप्त हो जाए तो आप अपनी तलवार मुझे दे दीजिए| योगिन ! मैं प्रतिज्ञा करता हूं इसी क्षण मैं आपको उसका मुण्ड दिखला रहा हूं|”

क्षीब ने कहा, “तब तो इस तलवार के साथ मेरा वेदोक्त आशीर्वाद लो और विजयी होकर लौटो|”

खड्ग लेकर अर्जुन ने कहा, “भगवान शंकर की कृपा से आपका यह आशीर्वाद पुनरुक्तिमात्र है, मैं आपसे विदा लेता हूं और साथ ही आपको विदित होना चाहिए कि आपके की हुई प्रतिज्ञा से मैं सर्वथा मुक्त होकर जा रहा हूं|”

अर्जुन के लौटने पर भगवान ने कहा, “वह तो मदोन्मत्त मालूम पड़ता है, मैंने तुम्हें उधर निरस्त्र भेजकर ठीक नहीं किया, मुझे बड़ी चिंता हो रही थी|”

अर्जुन ने कहा, “वह तो महाराज ! प्रचण्ड मूर्ति धारण किए मुझे ही खोज रहा है|”

अंत में भगवान ने उन्हें सारा रहस्य समझाया और बतलाया कि, ‘तीनों लोकों में वही प्रधान भगवत भक्त है| प्राणों का मोह छोड़कर, अहिंसाव्रत अपनाया, पर प्रभु के अपमान का ध्यान आते ही ब्रह्महत्या, स्त्रीहत्यादि के लिए भी तैयार हो गया| वस्तुत ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ का उसी ने ठीक अर्थ समझा है|’

अंत में वह क्षीब अर्जुन के देखते-देखते भगवान के हृदय में प्रविष्ट हो गया| अर्जुन का अहंकार गलकर पानी हो गया|