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श्री हरि जी के भजन (14)

जो घट अंतर
जो घट अंतर हरि सुमिरै .
ताको काल रूठि का करिहै जे चित चरन धरे ..

जो भजे हरि को सदा
जो भजे हरि को सदा सो परम पद पायेगा ..

नारायण जिनके हिरदय
नारायण जिनके हिरदय में सो कछु करम करे न करे रे ..

मन तड़पत हरि दरसन को आज
मोरे तुम बिन बिगड़े सकल काज
आ, विनती करत, हूँ, रखियो लाज, मन तड़पत…

मैं हरि, पतित पावन सुने ।
मैं पतित, तुम पतित-पावन, दोउ बानक बने॥

रे मन हरि सुमिरन करि लीजै ॥टेक॥

हरि तुम बहुत
हरि तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो .
साधन धाम विविध दुर्लभ तनु मोहे कृपा कर दीन्हो ..

हरि तुम हरो जन की भीर,
द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढ़ायो चीर॥

हरि नाम सुमिर
हरि नाम सुमिर हरि नाम सुमिर हरि नाम सुमिर

हरि भजन बिना सुख शान्ति नहीं
हरि नाम बिना आनन्द नहीं

हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करो,
हरि चरणारविन्द उर धरो ..

हरी नाम का प्याला हरे कृष्ण की हाला
ऐसी हाला पी पी करके, चला चले मतवाला