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सबके दाता राम

एक बार की बात है| बादशाह अकबर कहीं जंगल में शिकार के लिए गये| साथ में बहुत आदमी थे, पर दैवयोग से जंगल में अकेले भटक गये| आगे गये तो एक खेत दिखायी दिया| उस खेत में पहुँचे और उस खेत के मालिक से कहा-‘भैया! मुझे भूख और प्यास बड़ी जोर से लगी है|

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तुम कुछ खाने-पीने को दे दो| मै राज्य का आदमी हूँ|’ उसने कहा-‘ठीक, आप हमारे तो मालिक ही हो|” यह कहकर उसने भोजन करा दिया| खेत में ऊख (गन्ना) थी, ऊख का रस पिला दिया| आराम करने के लिए खटिया बिछा दी| इससे बादशाह बहुत राजी हुआ| उसको ऐसा लगा कि ऐसा बढ़िया शर्बत मैंने कभी नहीं पिया| जंगल में रोटी भी बड़ी मीठी लगती है फिर जिसमें भूख भी लगी हुई हो|

जब बादशाह वापस जाने लगा तो उस किसान से कहा-‘कभी तुम्हारे काम पड़ जाय तो दिल्ली में आ जाना, मेरा नाम अकबर है| किसी से मेरा नाम पूछ लेना|’ और फिर कहा-‘कलम, दवात-कागज ला, तुझे कुछ लिख दूँ|’ खेत में न कलम है, न दवात है, न कागज है| खेत में रहने वाला बिचारा पढ़ा लिखा तो था नहीं| फूटा हुआ मिट्टी का घड़ा था| वह सामने रख दिया और एक कोयला ले आया| बादशाह ने घड़े की ठीकरी के भीतर में लिख दिया| वह बेचारा पढ़ा-लिखा था नहीं| अकबर ने कहा-‘मेरे से जब मिलने आओ, तब इसको साथ लेकर आ जाना|’ उसने कहा- ‘ठीक है’| उसने उस लिखे हुए घड़े के टुकड़े को रख दिया| कई वर्षों तक पड़ा रहा|

जब अकाल पड़ा और अनाज कुछ हुआ नही, तब बड़ी तंगी आ गयी| अपने लिए अन्न और गायों-भैसों के लिए घास तक नहीं रहा| दोनों के लिए पानी नहीं रहा| तब स्त्री ने कहा-‘राज्य का एक आदमी आया था न? उसने कहा था कि आवश्यकता पड़े तब दिल्ली आ जाना| उसके पास जाओ तो सही|’ स्त्री ने बार-बार कहा तो ठीकरा लेकर वह वहाँ से चला| दिल्ली में पहुँचा तो लोगो से पूछा-‘अकबरिये का घर कौन-सा है?’ अकबर का नाम सुनकर किसी ने बता दिया| खास महल के दरवाजे पर जाकर पूछने लगा-‘अकबरिये का घर यही है क्या?’

द्वारपालों ने डाँटकर कहा-कैसे बोलता है? ढंग से बोला कर| वह तो अपनी भाषा में सीधा बोला और उसने ठीकरी दिखाकर कहा-‘जाकर कह दो एक आदमी आपसे मिलने आया है|’ द्वारपाल चकरा गया कि बादशाह ने स्वयं इस पर दस्तखत किये हैं| उसने जाकर कहा-‘महाराज! एक ग्रामीण आदमी है, असभ्यता से बोलता है| बोलने का भी होश नहीं है| वह आपसे मिलना चाहता है|’ उसे बुलाया, बादशाह ऊंचे सिंहासन पर बैठा था| उसने देखकर कहा-‘ओ अकबरिये! तू तो बहुत ऊँचा बैठा है|’ बादशाह ने कहा-‘आओ भाई! बैठो!’ उसे बैठाया और कहा-‘तू थोड़ी देर बैठ जा| मेरी नमाज का समय हो गया है, इसलिए मै नमाज पढ़ लूँ|

अब किसान देखता है कि उसने कपड़ा बिछाया है और वह उस पर उठता है, बैठता है| अकबर ने जब नमाज पढ़ ली और आकर बैठा तो उस किसान ने पूछा-‘यह क्या कर रहे थे?’ बादशाह ने जवाब दिया-‘परवर दिगार की बंदगी कर रहा था|’ किसान ने कहा-‘मैं तो समझा नहीं|’ तो कहा-ईश्वर है न, यानी उस परमात्मा की हाजिरी भर रहा था|’ ‘कितनी बार करते हो?’ “पांच बार|’ “पाँच बार उठते, बैठते हो| क्यों?’ ‘जिसने इतना दे रखा है उसकी हाजिरी भरता हूँ|’

‘मै तो एक बार भी हाजिरी नहीं भरता हूँ, फिर भी सब दे रखा है और दे रहा है| तुम्हे पाँच बार करनी पड़ती है| अच्छी बात, जैराम जी की| अब जाता हूँ|’ ऐसा कहकर जाने लगा तो पूछा कि क्यों आया था? ‘मेरी स्त्री ने कह दिया था कि तुम दिल्ली जाओ तब आया और यहाँ तुमको देखा, तुम तो पाँच बार नमाज पढ़ते हो| जब आपको परमात्मा से मिला तो अब आपसे मैं क्या लूँ? मुझे कुछ करना नहीं पड़ता है तो भी वह परमात्मा मुझे देता है| अब तेरे से क्या लेना है?’

‘अरे भैया, तुझे जो चाहिये सो ले ले’ बादशाह ने कहा| ‘नहीं! इतनी मेहनत से तुम्हें मिली हुई चीज में मुफ्त में कैसे ले लूँ?’ ऐसा कहक अपने घर चला आया| स्त्री ने पूछा- ‘क्या हुआ?’ उसने कहा-‘अपने प्रभु को याद करो| जो सबका मालिक है, वही सबको देता है| वह हमारा, उनका, सबका मालिक है| उसमें कोई पक्षपात नहीं है| वह सबका है तो हमारा भी है| अब अपने उस राज्य के आदमी से क्या माँगे? जो कि स्वयं भी माँगता है| इसलिए भगवान् का भरोसा रखो, उनका नाम लो|’

कई चोर मिलकर चोरी करने गये| बाहर उस किसान का घर था, उसके पास वे चोर छिपकर रहे| उस घर में वे दोनों पति-पत्नी आपस में बात कर रहे थे| स्त्री पति से बोली-‘दिल्ली गये और कुछ लाये नहीं|’ तो उसने कहा-‘क्या लावें? हमारे पास कुछ था ही नहीं|’ ‘कुछ कमाते!’ इस पर पति ने उत्तर दिया-‘अब भगवान् देंगे तब ही लेंगे| भगवान् पर ही हमने छोड़ दिया|’ ‘भगवान् पर छोड़ दिया तो कुछ काम-धंधा तो करो|’

उसने कहा- ‘काम-धंधा किये बिना भी धन मिलता है, पर मैं लेता नहीं हूँ| ठाकुर जी की मर्जी होगी तो घर बैठे भेज देंगे|’ इस प्रकार स्त्री-पुरुष आपस में बातचीत कर रहे थे| उसने अपनी स्त्री को धीरज बँधाते हुए कहा-‘अब वर्ष भी हो गयी है, खेती करेंगे, सब काम ठीक हो जायेगा| कोई चिंता की बात नहीं है| मैं तो भगवान् के भरोसे रहता हूँ, मैं लेता नहीं हूँ| भगवान् के देने के बहुत तरीके हैं| छपर फाड़कर देते हैं|’

उसने कहा- ‘सुन! आज की बात बताऊँ| मैं नदी किनारे गया| नदी में बाढ़ आ गयी| पानी बहुत बढ़ गया, जिससे किनारा कट गया| वहाँ शौच जाकर हाथ धोने लगा तो मेरे को दिखा, वहाँ कोई बर्तन है| ऊपर से रेट निकल गयी थी और ढक्कन दिया हुआ एक चरु पड़ा था| उसको मैंने खोलकर देखा तो उसमें सोने-चाँदी, अशर्फियाँ भरी हुई थीं| बहुत धन था| मैंने विचार किया कि अपने तो यह लेना नहीं है? ठाकुर जी स्वयं भेजेंगे तब लेंगे| पता नहीं यह किसका है? इसलिये ढक्कन लगाकर मैं वापस आ गया|’ स्त्री ने पूछा कि ‘वह कहाँ पर कौन-सी जगह है?’ तो उसने सब बता दिया कि ‘ऐसे वहाँ एक जाल का वृक्ष है, उसके पास में है?’

चोर इनकी बातों को सुन रहे थे| उन्होंने सोचा कि यह किसान तो पागल है| अपने तो वहीं चलो और कहीं चोरी करेंगे तो कहीं पकड़े जायँगे, धन वहाँ मिल ही जायगा| वे वहीं गये, जहाँ किसान ने हाथ धोये थे| ढक्कन ढकते समय उस किसान से कुछ भूल हो गयी थी| ढक्कन कुछ खुला रह गया| उसके जाने के बाद एक साँप आकर उस बर्तन के भीतर बैठ गया| ज्यों ही चोरो ने ढक्कन खोला कि साँप ने फुंकार मारी| उन्होंने जोर से ढक्कन बंद कर दिया| अब चोरों ने विचार किया कि उस किसान ने हमको देख लिया होगा| हमें मारने के लिए ही उसने यह सब बात कही थी| इस चरु में न जाने कितने जहरीले साँप-विच्छू भरे हैं| इस चरु को उसके घर में ही गिरा दो, जिससे ये साँप-बिच्छू उनको काटकर मार देंगे|

अब इस चरु को बाँधकर उसी किसान के घर पर ले गये| वे दोनों सो गये थे| उन चारों ने छप्पर फाड़कर चरु उलटा कर दिया, जिससे सारा माल घर में गिर गया और स्वयं आप भाग गये| ऊपर से पहले साँप गिरा, उस पर सोने के सामान सहित वह चरु गिरा| इससे वह साँप तो वहीं दबकर मर गया| इस प्रकार भगवान् छप्पर फाड़कर देते है| सबेरे जब दोनों जगे और घर में देखा तो धन का ढेर लगा हुआ है| अब किसी से क्यों माँगे? भगवान् किस तरह से देते है; इसका पता ही नहीं लगता| जो भगवान् का भरोसा रखता है, वह कभी भी खाली नहीं जाता| भूखा रह सकता हैं, नंगा रह सकता है,  लोगों में अपमान हो सकता है, परन्तु उसके मन में दुःख नहीं हो सकता| जो भगवान् पर पूरा भरोसा रखता है, वह हर हालत में प्रसन्न रहता है|