नारद का गर्व भंग (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
एक समय की बात है कि देवर्षि नारद ने विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए परब्रह्म की कठोर साधना की|
एक समय की बात है कि देवर्षि नारद ने विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए परब्रह्म की कठोर साधना की|
एक बार भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए मृकंडु मुनि ने कठोर तपस्या की| उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए|
वैदिक काल में त्रिपुर नाम का एक असुर राजा था| उसने नागों, यक्षों, गंधर्वों तथा किन्नरों को जीतकर अपना राज्य दूर-दूर तक फैला लिया|
पार्वती जब भी अपने पति शिव के साथ दूसरे देवताओं के निवास स्थान पर जातीं और वहां उनके सजे-धजे सुंदर भवनों को देखतीं तो उन्हें बड़ी हीनता का बोध होता|
दैत्यराज शकुनि के पुत्र का नाम वृकासुर था| वृकासुर बहुत ही महत्वकांक्षी युवक था और उसकी हर समय यही इच्छा रहती थी कि वह संसार का अधिपति बन जाए|
प्राचीनकाल से ही काशी शिव-क्रीड़ा का केंद्र रहा है| एक बार भगवान शिव पार्वती सहित काशी पधारे| वे कुछ दिन काशी में रुके, तत्पश्चात मंदराचल पर चले गए|
तुलसी का मन राम में इतना रम गया था कि वे अपना सारा दुख-दर्द भूल चुके थे| अब उन्हें पत्नी द्वारा किए गए अपमान के प्रति भी कोई शिकायत नहीं थी|
राज्याभिषेक के पश्चात श्रीराम ने कौसल राज्य की जनता को एक भारी दावत दी|
हनुमान जी जब लंका दहन करके लौट रहे थे, तब उन्हें समुद्रोलंघन, सीतान्वेषण, रावण मद-मर्दन एवं लंका दहन आदि कार्यों का कुछ गर्व हो गया|
द्वापर युग में अर्जुन भगवान शिव की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करते और उनसे पाशुपत नामक अमोघ अस्त्र लिए हिमालय में पहुंचे तो जंगल में उनकी भेंट एक वानर से हो गई|