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भगवान हनुमान जी की कथाएँ (32)

तुलसी का मन राम में इतना रम गया था कि वे अपना सारा दुख-दर्द भूल चुके थे| अब उन्हें पत्नी द्वारा किए गए अपमान के प्रति भी कोई शिकायत नहीं थी|

राज्याभिषेक के पश्चात श्रीराम ने कौसल राज्य की जनता को एक भारी दावत दी|

हनुमान जी जब लंका दहन करके लौट रहे थे, तब उन्हें समुद्रोलंघन, सीतान्वेषण, रावण मद-मर्दन एवं लंका दहन आदि कार्यों का कुछ गर्व हो गया|

द्वापर युग में अर्जुन भगवान शिव की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करते और उनसे पाशुपत नामक अमोघ अस्त्र लिए हिमालय में पहुंचे तो जंगल में उनकी भेंट एक वानर से हो गई|

प्रातःकाल का समय था, हनुमान जी श्रीराम के ध्यान में डूबे थे| तन-मन का होश न था| समुद्र की लहरों का शोर तक उन्हें सुनाई नहीं दे रहा था|

रावण के दस सिर और बीस हाथ कटने पर भी पुनः जुड़ जाते थे| यह एक चमत्कार था| कई बार उसने राम के साथ युद्ध किया, पर हर बार वह लंका सुरक्षित लौट जाता था|

एक बार अर्जुन भगवान शंकर की तपस्या करने हिमालय के जंगलों में चले गए और शिव की घोर तपस्या में मग्न हो गए|

लक्ष्मण के शेल द्वारा घायल होने के पश्चात सभी देवताओं को बुलाया गया| शिव, ब्रह्मा, यम, कुबेर, वायुदेव आदि सभी वहां पहुंच गए|

एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि अपने कहलाने वाले भक्तों एवं सेवकों में जो अभिमान और दुर्गुण प्रवेश कर दिए गए हैं उन्हें अवश्य दूर करना चाहिए|

भगवान श्रीराम जब समुद्र पार सेतु बांध रहे थे, तब विघ्न-निवारणार्थ पहले उन्होंने गणेश जी की स्थापना कर नवग्रहों की नौ प्रतिमाएं नल के हाथों स्थापित करवाई|

हनुमान जी बड़े आश्चर्य में थे| अब तक श्रीराम ने उनकी किसी भी बात पर कभी ‘ना’ नहीं की थी| किंतु उस दिन न जाने क्यों वह बार-बार हनुमान जी के प्रस्ताव को ठुकरा रहे थे|

समुद्र पार जाने के लिए पुल के निर्माण का काम प्रगति पर था| राम की सेना उत्साह से फूली नहीं समा रही थी| भालू-वानर भाग-भागकर काम कर रहे थे|

लंका युद्ध की समाप्ति के पश्चात श्रीराम सभी वानरों तथा राक्षसों के साथ अयोध्या की ओर पुष्पक विमान द्वारा चले|

एक दिन की बात है कि भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न तीनों भाई माता जानकी के पास पहुंचे| माता जानकी ने पूछा – “आज तीनों भाई एक साथ कैसे पधारे?”

जगजननी जानकी और जगत्त्राता प्रभु श्रीराम को अयोध्या के सिंहासन पर आसीन देखकर सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया|

एक बार हनुमान जी ने अपने प्रभु श्रीराम से अपनी माता अजना के दर्शनार्थ जाने की आगया मांगी| प्रभु ने उन्हें सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दी|

श्रीरामश्वमेध का अश्व भ्रमण करता हुआ महर्षि वाल्मीकि के पुनीत आश्रम के समीप पहुंचा| प्रातःकाल का समय था|

श्रीराम के अश्वमेध का अश्व भ्रमण करता हुआ प्रख्यात कुंडलपुर के समीप पहुंचा| वहां के अत्यंत धर्मात्मा नरेश का नाम सुरथ था|

भगवान श्रीराम के अश्वमेध का अश्व घूमता हुआ हेमकूट पर्वत के एक विशाल उद्यान में पहुंचा ही था कि वहां अकस्मात उसका सारा शरीर अकड़ गया|

भगवान श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के अश्व के साथ शत्रुघ्न की सेना चक्रांका नगरी के समीप पहुंची| उस नगरी के नरेश धर्मात्मा सुबाहु थे|

हनुमान अगस्त्य जी की प्रेरणा से भगवान श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प किया|

लंकाधीश रावण क्रोध से दांत किटकिटा रहा था| उसके सारे प्रमुख बलशाली योद्धा युद्ध में मारे जा चुके थे|

श्रीराम और रावण युद्ध चरमसीमा पर पहुंच चुका था| एक-एक करके रावण के अनेक सेनापति, पुत्र मेघनाथ, भाई कुंभकर्ण समेत कई राक्षस मारे जा चुके थे|

राम और रावण की सेनाओं में भयंकर युद्ध चल रहा था| रावण का पुत्र मेघनाथ लक्ष्मणके सम्मुख युद्ध में रत था|

भगवान श्रीराम ने अपने प्रतिज्ञा पूरी की| उन्होंने बालि का वध करके सुग्रीव को भयमुक्त करके किष्किंधा का राज्य सौंप दिया|

सूर्यदेव से शिक्षा प्राप्त करके हनुमान जी वापस कांचनगिरी पर पहुंचे| माता अंजना, पिता केसरी उन्हें सम्मुख पाकर बहुत हर्षित हुए|

माता अंजना अपने पुत्र की मानसिक स्थिति देखकर कभी कभी उदास हो जातीं और वानरराज केसरी तो प्रायः चिंतित ही रहा करते|

बालक हनुमान बड़े ही चंचल और नटखट थे| एक तो प्रलयंकर शंकर के अवतार, दूसरे कपि-शावक, उस पर देवताओं द्वारा प्रदत्त अमोघ वरदान|

बालक पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है माता के जीवन एवं उसकी शिक्षा का| आदर्श माताएं पुत्र को श्रेष्ठ एवं आदर्श बना देती हैं|

माता अंजना अपने प्राणप्रिय पुत्र हनुमान का लालन-पालन बड़े ही मनोयोगपूर्वक करतीं| कपिराज केसरी भी उन्हें अत्यधिक प्यार करते|

हजारों वर्ष पहले कांचगिरि (सुमेरु पर्वत) पर वानरराज केसरी निवास करते थे| उनकी पत्नी का नाम अंजना था, जो वानरराज कुंजर की पुत्री थीं| पति-पत्नी दोनों बहुत सुखी थे|