Homeभगवान हनुमान जी की कथाएँहनुमान की कृपा से राम दर्शन (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

हनुमान की कृपा से राम दर्शन (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

हनुमान की कृपा से राम दर्शन (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) - शिक्षाप्रद कथा

तुलसी का मन राम में इतना रम गया था कि वे अपना सारा दुख-दर्द भूल चुके थे| अब उन्हें पत्नी द्वारा किए गए अपमान के प्रति भी कोई शिकायत नहीं थी| उनका कहना था कि उसी ने तो उन्हें भोगों के गर्त से निकलकर भागने की प्रेरणा दी थी| जिन्होंने ‘अपशकुन’ कहकर उन्हने दुत्कारा या फिर रोटी का टुकड़ा देने की जगह उनके लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए, अब वही उन्हें अपने परमप्रिय लगते थे| यदि ऐसा न होता तो वे भी दूसरों की तरह अपनों से प्रेम पाने के लिए भटकते रहते हैं न कितने आश्चर्य की बात कि ये सभी कंगाल एक-दूसरे को अमीर बनाने का सपना दिखा रहे हैं और दूसरे भी आंखें मूंदे खयाली पुलाव बनाते हुए नहीं थकते| मजे की बात तो यह है कि दोनों एक-दूसरे की वास्तविकता को जानते हैं, फिर भी ऐसा नाटक किए जा रहे हैं, जिससे कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है|

तुलसी के मन में अब दिन-रात एक ही इच्छा क्रौंधती कि जिन श्रीराम के बारे में इतना पढ़ा-सुना, जिनका प्रभाव अपने जीवन में साक्षात् देखा, उनके दर्शन हों| लेकिन कैसे? कोई उपाय नजर नहीं आ रहा था कि एक दिन एक विलक्षण घटना घटी| इस समय वे काशी स्थित ‘असी घाट’ पर रहते थे| शौच के बाद जैसे ही उन्होंने बचे हुए पानी को बबूल के पेड़ की जड़ में डाला, वैसे ही किसी की आवाज आई, “आप कई दिनों से मुझे जल देकर तृप्त कर रहे हैं, मैं आप पर अत्यंत प्रसन्न हूं| मांगो! जो भी चाहिए?”

तुलसी ने आसपास घूमकर देखा, कोई दिखाई नहीं दिया| ‘भ्रम न हो,’ ऐसा सोचकर जब तुलसी चलने लगे, तो फिर किसी ने रोका, “मांगो! मैं प्रसन्न हूं| मैं तुम्हें कुछ देना चाहता हूं| मुझे तुमने शौच से बचे जल से तृप्त किया है!”

तुलसी रुक गए| वे बोले, “आप कौन हैं, मैं नहीं जानता और न ही मैंने किसी कामना से आपको कुछ दिया है| यह सब आकस्मिक हुआ है| इसलिए जो मैंने किया नहीं, उसका फल मैं कैसे ले सकता हूं| यह तो धर्म-विरुद्ध है| फिर आप मेरे सामने भी तो नहीं आ रहे हैं| मांगा तो उससे जाता है, जो सामने आकर कुछ देना चाहे!”

“धर्म सम्मत तर्क देकर आपने मुझे विवश कर दिया है कि मैं आपको खाली हाथ न जाने दूं| ऐसा देकर करके मैं आप पर उपकार नहीं करूंगा| संभव है, इससे प्रेतयोनि में मिलने वाले कष्टों में कुछ कमी आ जाए| साधु पुरुषों का संग सदैव चंदन की छाया की तरह दुख हरने वाला होता है|

“रही बात आपके सामने आने की, तो ऐसा कर पाना मेरे लिए संभव नहीं है| राम-नाम का सदैव स्मरण और ध्यान करने वाले भक्त के पास कोई पापात्मा आने का दुस्साहस नहीं कर सकता| फिर आप तो जानते ही हैं कि पापात्मा को दर-दर भटकने वाली प्रेतयोनि प्राप्त होती है|”

प्रेत के मर्यादित शब्दों को सुनकर तुलसी कुछ विचारने लगे| फिर बोले, “यदि ऐसी बात है, तो क्षमा कीजिएगा! आपकी इच्छा पूर्ण करने में मैं असमर्थ हूं| मुझे श्रीराम के दर्शन के अलावा और कोई भी कामना नहीं है| मैंने संसार के सभी भोगों को बहुत पास से देख लिया है, मैं उनकी असलियत जान चुका हूं|”

वाक्य को पूरा करते-करते तुलसी वहां से चल दिए| प्रेत ने रोका, “रुकिए! मैं कोई कार्य यदि नहीं कर सकता, तो उसे पूरा करने का उपाय तो बता ही सकता हूं| प्रातः संकटमोचन मंदिर में, जहां आप कथा करते हैं, वहां एक कोढ़ी सर्वप्रथम श्रोता के रूप में आता है और सबसे बाद में जाता है| उसके शरीर से तेज दुर्गंध आती है, इसीलिए वह श्रोताओं से दूर उस स्थान पर बैठता है, जहां सब अपने जूते-चप्पल उतारते हैं| बस आप उसे पकड़ लीजिए| वही आपको उपाय बताएगा कि कैसे आपकी कामना पूरी हो| अपने इष्ट तक पहुंचने का वही एकमात्र और सुनिश्चित मार्ग है| आपकी मनोकामना पूरी हो!” यह कहते हुए प्रेत ने चुप्पी साध ली|

“यदि ऐसा है तो मैं तुम्हें प्रेतयोनि से मुक्त करने का प्रयास करूंगा|” तुलसी ने प्रेत को विश्वास दिलाया और अपनी कुटिया की ओर चल दिए|

राम-दर्शन की भावना में पूरी तरह भीगे तुलसी को रात्रि में नींद नहीं आई| सुबह-सुबह अपने दैनिक कर्मों से निवृत्त होने के बाद तुलसी विश्वनाथ मंदिर के पास बने संकटमोचन मंदिर में पहुंच गए| अभी भगवान का श्रृंगार हो रहा था| श्रृंगार और आरती के बाद श्रीरामकथा की तैयारी होने लगी| तुलसी बाहर खड़े होकर कुष्ठ रोगी के आने की प्रतीक्षा करने लगे| वह आया और अपने निश्चित स्थान पर बैठ गया| तुलसी आचार्य पीठ पर जा विराजे| वे सोच रहे थे कि यदि यह बीच में ही उठकर चल दिया, तो…| कथा के बीच में उठाना मर्यादाहीनता है और इष्ट-रूप कथा का अपमान भी| यह लोकाचार और धर्मशास्त्र दोनों के विपरीत आचरण है, जो कभी भी सुखदायी और कल्याणकारी नहीं हो सकता| और फिर कथा के प्रवक्ता को तो आचार्य पीठ का मान-सम्मान एवं गरिमा रखनी ही चाहिए|

श्रोताओं और मंदिर के सेवक-पुजारियों को लग रहा था कि तुलसी का मन कहीं उलझा हुआ है| उनके शब्दों, भावों और मस्ती में बेचैनी साफ-साफ झलक रही थी| किसी तरह से कथा का भोग पड़ा| आरती हुई| प्रसाद बांटा गया| सभी श्रोता अपनी-अपनी राह पर चल पड़े| कोढ़ी उठकर चलने का नाम ही नहीं ले रहा था| तुलसी मंदिर के बाहर द्वार पर खड़े उसके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे| प्रतीक्षा समाप्त हुई| तुलसी कोढ़ी के पीछे-पीछे चलने लगे| कोढ़ी कभी अपनी गति तेज करता, तो कभी बहुत धीमी| तुलसी भी थोड़ी दूरी बनाकर उसके पीछे-पीछे चल रहे थे| नगर की सीमा समाप्त हुई| घने बाग-बगीचे आ गए| कोढ़ी ने एक पगडंडी का रास्ता पकड़ा| एकांत देखकर तुलसी ने अपनी गति बढ़ाई और कोढ़ी का रास्ता रोककर उसके चरणों में लेट गए| कोढ़ी बचकर निकलने लगा, तो तुलसी ने उसके चरणों को पकड़ लिया, “नहीं जाने दूंगा| आप बताएं कि आपका असली रूप क्या है? आप हैं कौन?”

कोढ़ी ने बहुत कोशिश की कि वह अपना रूप-स्वरूप तुलसी से छिपा लें| उसने तरह-तरह के लोभ भी दिए, लेकिन तुलसी पर उनका कोई असर नहीं हुआ| संसार के विषय-भोगों में उलझा भक्त भगवान से धन-दौलत आदि मांगता है, उसे भगवान नहीं चाहिए| इस बात को जीवन में तुलसी ने भली-भांति जांच-परख लिया था| इसलिए वे अपनी बात पर अड़े रहे| कोढ़ी को हारकर आखिर स्वयं को अपने असली रूप में प्रकट करना पड़ा| अपने सामने खड़े रामदूत श्री हनुमान को देखकर तुलसी कुछ समय के लिए तो मानो अपनी सुध-बुध खो बैठे| उनकी आंखों से प्रेमाश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी| वे आंखें खोलना चाह रहे थे, लेकिन रोकने पर भी न रुकने वाले आंसुओं ने उन्हें आंखें मूंदे रहने पर विवश कर दिया था| उनके कानों ने मधुर ध्वनि सुनी, “वत्स, मैं जानता हूं कि तुम क्या चाहते हो| वैसे तो श्रीराम इस जगत के कण-कण में व्याप्त हैं, लेकिन साकार दर्शन करने के बाद ही सर्वव्यापक और सर्वरूप राम का अनुभव भक्तो को होता है| ऐसे शरणागत वत्सल श्रीराम आने वाले पुण्यपर्व रामनवमी को, जो भगवान का प्राकट्य दिवस है और इस दिन मंगलवार भी है, चित्रकूट स्थित रामघाट पर अनसूया द्वारा प्रकट की गई मंदाकिनी और पयस्विनी गंगा के संगम पर स्नान करने पधारेंगे| उनके साथ लघुभ्राता श्री लक्ष्मण जी भी होंगे| दिखने पर वे होंगे सामान्य राजपुरुषों की तरह, लेकिन उनके शुभ लक्षणों से उन्हें आसानी से पहचाना जा सकेगा| वहां तुम अपने इष्ट के दर्शन कर सकोगे| यदि तुम्हारी कोई अन्य कामना हो, तो बताओ| मैं उसे भी पूरा किए देता हूं|” श्री हनुमान जी के इन वाक्यों को सुनकर, जिनमें रामदर्शन का निश्चयभरा आश्वासन था, तुलसी का मन विचारहीन और स्तब्ध हो गया| उन्होंने अपनी आंखों को बड़ी मुश्किल से खोला| लेकिन अब वहां कोई नहीं था – न कोढ़ी और न रामभक्त हनुमान!

तुलसी अपनी कुटिया पर पहुंचे, सामान उठाया और चित्रकूट की ओर चल पड़े| रामनवमी का पूण्यपर्व आया| पंडा बने तुलसी पूजन-सामग्री लेकर चित्रकूट के रामघाट पर जा विराजे| जो आता उसे तिलक आदि करते, लेकिन आंखें तो किसी और को ढूंढ रही थीं| इसीलिए दक्षिणा के रूप में जो कोई कुछ उनके सामने रखता, वे उस पर ध्यान ही नहीं देते थे| एकाएक दो राजपुरुष आकर सामने खड़े हो गए| उनका रूप मोहित कर रहा था| लेकिन स्नानादि के कारण तिलक धुल गया था, इसलिए तुलसी उन्हें पहचान न सके| यही तो माया है| रूप पर टिकी आंखें स्वरूप का अनुभव नहीं कर पातीं| बाहरी चिह्न अक्सर स्वरूप-ज्ञान में बाधक होते हैं|

उन्हें तिलक लगा देने के बाद भी जब तुलसी का भ्रम नहीं टूटा, तो शुक बनकर पास के वृक्ष की डाल पर बैठे एक रामभक्त ने दूसरे रामभक्त को सावधान किया| हनुमान बोले –

चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीर|
तुलसिदास चंदन घिसैं तिलक देत रघुबीर||

तुलसी चौंके| उन्होंने सामने खड़े राजपुरुषों के चरण पकड़ लिए| वे कोई अन्य नहीं, तुलसी के इष्ट – श्रीराम और लक्ष्मण थे| इष्ट के दर्शन और स्पर्श से तुलसी का जीवन कृतार्थ हो गया| तुलसी ने हनुमान को ऐसे ही सद्गुरु नहीं माना है| वही तो बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करने वाले कलियुग के साक्षात् देवता हैं|

तुलसी ने जब अपनी विश्वप्रसिद्ध रचना ‘रामचरित मानस’ की रचना की, तो सर्वप्रथम उसका पथ सुनाकर प्रेत को मुक्त किया| यह कृतज्ञता उसके प्रति थी जिसने उन्हें रामभक्त हनुमान से मिलने का मार्ग बताया और जिससे फिर श्रीराम के दर्शन हुए|

इसके बाद तो श्रीराम संत तुलसी के अंग-संग रहने लगे| प्रसंग आता है कि रामचरित मानस की रचना के बाद संस्कृत के कई विद्वानों ने अवधी भाषा में लिखे इस ग्रंथ पर आपत्ति प्रकट की तथा तुलसी एवं उनकी रचना को नष्ट करने के लिए दो व्यक्तियों को तुलसी की कुटिया में भेजा| गहन अंधकार में जब वे वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि धनुष-बाण धारण किए हुए दो राजपुरुष उस स्थान की रक्षा कर रहे हैं| ऐसा कई बार हुआ| वे और कोई नहीं अपने लघुभ्राता के साथ श्रीराम थे| जिसके रक्षक स्वयं श्रीराम-लक्ष्मण हों, उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता| यह स्थान आज ‘रामानुज कूट’ के नाम से रामभक्तों के बीच प्रसिद्ध है| समय आने पर भगवान विश्वनाथ ने ‘रामचरितमानस’ की श्रेष्ठ रचना के रूप में पुष्टि की थी| यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हनुमान जी भी भगवान शिव के अवतार हैं – अर्थात् ग्यारहवें रुद्र|

Spiritual & Religious Store – Buy Online

Click the button below to view and buy over 700,000 exciting ‘Spiritual & Religious’ products

700,000+ Products