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एक दिन गोना के तहसीलदार श्री राले ने तीन सौ आमों की एक पेटी बाबा के चरणों में शामा के पते पर शिरडी भेजी| शामा वह पेटी बाबा के पास ले गया और बाबा के सामने खोली| सभी आब अच्छे थे| बाबा के उन आमों में से चार आप अलग निकालकर इस ताकीद के साथ रख दिये कि दामू अण्णा के लिये हैं – और बाकी आम भक्तों के बांटने के लिए शामा को दे दिए|

जिस समय साईं बाबा काका साहब को साठे के बारे में ‘गुरुचरित्र’ का पारायण करने के बारे में बता रहे थे| उस समय मस्जिद में बाबा के भक्त गोविन्द रघुनाथ दामोलकर (हेमाडपंत) तथा अष्ठा साहब बाबा की चरण सेवा कर रहे थे| यह सुनकर उनके मन में विचार आया कि ‘मैं तो पिछले चालीस वर्षों से गुरुचरित्र का पारायण करता आया हूं, और सात वर्षों से बाबा की सेवा में हूं, परन्तु जो साठे को बाबा से सात दिन में मिल गया, वह मुझे क्यों नहीं मिला? मुझे बाबा का उपदेश कब होगा?’

बांद्रा निवासी रघुवीर भास्कर पुरंदरे साईं बाबा के परम भक्त थे| जो अवसर शिरडी जाते रहते थे| जब वे एक अवसर पर शिरडी जा रहे थे तो श्रीमती तर्खड (जो उस समय बांद्रा में ही थीं) ने श्रीमती पुरंदरे को दो बैंगन देते हुए उनसे विनती की की वे शिरडी में पहुचंकर साईं बाबा को एक बैंगन का भुर्ता और दूसरे बैंगन की कतलियां (घी में तले बैंगन के पतले टुकड़े) बनाकर बाबा को अर्पण कर दें| यह बाबा को बहुत पसंद हैं|

एक बार एक तहसीलदार साईं बाबा के दर्शन करने के लिए शिरडी आये थे| उनके साथ एक डॉक्टर जो उनके मित्र थे, वे भी आये थे| डॉक्टर रामभक्त और जाति से ब्राह्मण थे| वे राम के अतिरिक्त और किसी को न मानते और पूजते थे| वे अपने तहसीलदार दोस्त के साथ इस शर्त पर शिरडी आये थे कि वे न तो बाबा के चरण छुएंगे और न ही उनके आगे सिर झुकायेंगे, न ही वे उन्हें इस बात के लिए मजबूर करें, क्योंकि बाबा यवन (मुसलमान) हैं और वे श्रीराम के अलावा किसी के आगे सिर नहीं झुकाते|