Homeभगवान शिव जी की कथाएँरावण का अभिमान भंग (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

रावण का अभिमान भंग (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

रावण का अभिमान भंग (भगवान शिव जी की कथाएँ) - शिक्षाप्रद कथा

विश्रवा मुनि का पुत्र रावण महान शूरवीर तथा विद्वान था| अपने पिता से उसने वेदों और शास्त्रों का अध्ययन किया हुआ था| किंतु उसमें अनेक दुर्गुण भी थे| वह बहुत अहंकारी था| कुबेर को पराजित करके उसने लंका का राज्य छीन लिया और त्रैलोक्य विजय के लिए निकल पड़ा| कुछ ही समय में उसने देव, असुर, नाग, यक्ष, किन्नर, दानव एवं दैत्यों समेत अनेक जातियों को अपने वश में कर लिया| इस पर उसे बहुत अभिमान हो गया कि उस जैसा शक्तिशाली व्यक्ति इस दुनिया में दूसरा कोई और नहीं है|

एक दिन रावण कुबेर से छीने हुए पुष्पक विमान पर बैठकर कैलाश पर्वत से जा रहा था कि अचानक उसका यान अपने आप नीचे उतरने लगा| यह देख रावण को आश्चर्य हुआ| उसने सोचा-‘अवश्य ही पुष्पक विमान में कोई खराबी आ गई है|’ उसने विमान को इधर-उधर से देखा किंतु विमान नीचे उतरता ही गया और एक पहाड़ पर खड़ा हो गया| रावण विमान से उतरा ही था कि उसे एक विकट हुंकार सुनाई पड़ी| उसने अचकचाकर ध्वनी की दिशा में देखा तो एक छोटे से पुरुष को जिसका मुख बंदर जैसा था, अपनी ओर आते देखा| उस पुरुष के हाथ में त्रिशूल था| उसने उपेक्षा भरे भाव से रावण की ओर देखा| इस पर रावण चिढ़ उठा| उसने पूछा – “कौन हो तुम? क्या तुम्हें किसी ने शिष्टाचार नहीं सिखाया कि महाराजाओं से किस तरह व्यवहार किया जाता है?”

वानरमुख पुरुष अट्टहास लगाकर बोला – “महाराजा और तुम? भला मैं भी तो सुनूं कि तुम कहां के महाराज हो?”

यह सुनकर रावण और भी ज्यादा क्रोधित होकर बोला – “सुनो वानर! मैं लंका नरेश रावण हूं और त्रिभुवन विजयी हूं| मैंने सारे संसार को जीत लिया है|”

“ऊंह! जीत लिया होगा|लेकिन यह कैलाश धाम है| यहां तुम्हारा किसी तरह का घमंड काम नहीं आएगा| यहां के अधिपति भगवान शिव हैं|” वानारमुख पुरुष बोला|

रावण ने हंसते हुए कहा – “ओह, लगता है तुम्हारा शिव स्वयं को बहुत शक्तिशाली समझता है| तभी तो वह मुझ त्रैलोक्यजयी के आने पर भी निश्चिंत बैठा है| अब मैं इस स्थान को नष्ट भ्रष्ट किए बिना नहीं छोडूंगा जिससे वह शिष्टाचार सीख सके|”

यह कहकर रावण ने गुस्से में भरकर कैलाश पर्वत को ही उखाड़ लिया| वह उसे अपने कंधों पर उठाकर फेंकना ही चाहता था कि पर्वत के हिलने से पार्वती चौंककर शिव से लिपटकर बोलीं – “स्वामी! यह क्या, आज कैलाश पर्वत डगमगा क्यों रहा है?”

शिव मुस्कुराते हुए बोले – “लगता है कोई विवेकहीन-व्यक्ति हमारी परीक्षा लेने पर तुला हुआ है देवी!”

यह कहकर भगवान शिव ने कैलाश पर जो से अपना अंगूठा दबा दिया| कैलाश पर्वत तत्काल नीचे बैठ गया और उसके नीचे रावण दब गया| रावण को पश्चाताप होने लगा| उससे महान भूल हो गई थी| उसने नीचे दबे-दबे ही शिव का जाप करना आरंभ कर दिया| वर्षों तक कैलाश के नीचे दवा रावण शिव की उपासना करता रहा| उसकी भक्ति देखकर पार्वती को उस पर दया आ गई| वही शिव से बोलीं – “प्रभु! उसे क्षमा कर दो| अब तो वह प्रायश्चित भी कर चुका है| वैसे भी वह एक ब्राह्मण पुत्र है| वह मार्ग से भटक गया था, उसने आपकी परीक्षा लेनी चाही थी|

पार्वती की बात सुनकर शिव ने कैलाश पर्वत से अपने अंगूठे का भार हटा लिया| रावण मुक्त होकर पर्वत के नीचे से निकला और पर्वत को यथा स्थान पर टिका दिया| उसके बाद रावण ने शिव की कठिन तपस्या करनी आरंभ कर दी| उसने हवन कुंड तैयार किया और अपने अंग काट-काटकर हवन कुंड की अग्नि में डालने लगा| अंत में उसने जैसे ही अपने शीश को काटने के लिए तलवार उठाई, उसी समय वहां शिव पार्वती सहित प्रकट हो गए| शिव ने रावण को हाथ पकड़कर कहा – “पुत्र! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं| वरदान मांगो|”

रावण ने हाथ जोड़कर कहा – “प्रभु! यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा वर दीजिए कि मैं वैदिक, भौतिक और विज्ञान शास्त्र का ज्ञाता बनूं| संसार में मेरी प्रसिद्धि हो| मैं भगवन विष्णु के अलावा किसी अन्य से न मारा जाऊं| सुर-असुर, दानव, दैत्य सब पर अजेय रहूं| मेरे दस शीश हो जाएं|”

“ऐसा ही होगा वत्स!” यह वर देकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए| फिर रावण अपनी लंका में लौट गया और अंतिम समय तक भगवान शिव का परम भक्त बना रहा| इस तरह भगवान शिव की कृपा से रावण का अभिमान भंग हुआ|

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