Homeशिक्षाप्रद कथाएँबत्तीस मूर्तियाँ या एक इंच की गुड़िया – शिक्षाप्रद कथा

बत्तीस मूर्तियाँ या एक इंच की गुड़िया – शिक्षाप्रद कथा

सुजानगढ़ के राजा सुजानसिंह के राज्य के खजाने में लगभग तीन सौ से भी अधिक सालों से, भगवान कृष्ण की सोने चाँदी की बनी हीरे जवाहरात जड़ी बत्तीस मूर्तियाँ थीं। हर मूर्ति वेशकीमती थी।

कहा जाता था कि राजा सुजानसिंह के एक पूर्वज़ महान कृष्ण भक्त थे! एक बार उनका कृष्णगढ़ से भयंकर युद्ध हुआ  और कृष्णगढ़ को पराजित कर वहाँ के मन्दिरों मे स्थापित सभी कीमती कृष्ण मूर्तियाँ लूटकर वह अपने राज्य में ले आये और वे सभी मूर्तियाँ उन्होंने अपने खजाने में जमा कर ली थीं! 

प्रतिदिन स्नान ध्यान के बाद राजा खजाने के पीछे मूर्तियों के लिये बने विशेष कक्ष में जाकर पूजा अर्चना करते थे ! उसी परम्परा को कायम रखते हुए राजा सुजानसिंह खजाने में जाकर मूर्तियों के सम्मुख हाथ जोड़ता और प्रार्थना करता -“हे भगवान, मेरे ख़ज़ाने का धन दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहे।”

राजा सुजानसिंह का एक ही बेटा था, जिसका नाम था गणेश। गणेश बेहतर सुन्दर और बुद्धिमान था। एक दिन राजा सुजानसिंह न गणेश से कहा -“बेटा, अब तुम विवाह योग्य हो गये हो और मैं व तुम्हारी माता बूढ़े हो गये हैं। जल्दी ही तुम्हारा विवाह किसी योग्य कन्या से करके मैं यह सारा राज-पाट तुम्हें सौंपकर हम पति पत्नी तीर्थाटन के लिये निकल जायेंगे, लेकिन उससे पहले तुम्हें राज्य की हर बात का ज्ञान होना चाहिये। हमारे राजखजाने में भगवान् कृष्ण की बत्तीस मूर्तियाँ हैं। एकदम दुर्लभ और वेशकीमती। आज तुम मेरे साथ राजखजाने में चलो। मैं तुम्हें वह सारी मूर्तियाँ दिखाना चाहता हूँ।” 

राजा सुजानसिंह उस रोज़ स्नान ध्यान के बाद गणेश को साथ लेकर राजखजाने में गया! 

“हे भगवान ! हमारे ख़ज़ाने में इतना धन है पिताजी ?” खजाने का धन देख, गणेश आश्चर्यचकित होकर बोला तो राजा सुजानसिंह हँसे -“हाँ, मगर यह धन, पीछे के कक्ष में रखी, उन बत्तीस मूर्तियों के आगे कुछ भी नहीं है।  उन बत्तीस मूर्तियों में से प्रत्येक बहुमूल्य है। आओ, हम पीछे के कक्ष में चलते हैं।”

राजा सुजानसिंह गणेश को साथ लेकर, खजाने के पीछे मूर्तिकक्ष में गये और श्रीकृष्ण भगवान की एक-एक मूर्ति गणेश को दिखाने लगे ! 

सभी मूर्तियाँ एक से बढ़कर एक खूबसूरत थीं! एक-एक मूर्ति दिखाते  राजा सुजानसिंह बत्तीसवीं मूर्ति के स्थान पर पहुँचे तो अचानक उनकी चीख निकल गई! 

बत्तीसवीं मूर्ति अपने स्थान से गायब थी! 

“बत्तीसवीं मूर्ति कहाँ गई….? बत्तीसवीं मूर्ति गायब है…!” राजा सुजानसिंह जोर से चिल्लाते हुए खजाने के कक्ष से बाहर निकला और बाहर मुस्तैद खड़े चार पहरेदारों में से एक पहरेदार का गला पकड़ लिया -“बत्तीसवीं मूर्ति कहाँ है?”

पहरेदार कुछ न समझा, वह घिघियाने लगा! 

“तुम सबके यहाँ पहरे पर रहते, एक मूर्ति गायब कैसे हो गयी ?”  राजा सुजानसिंह जोर से चिल्लाया -“तुम सब पहरा दे रहे थे या सो रहे थे ?”

“हम सब निरन्तर पहरा देते रहे हैं महाराज ।” उन पहरेदारों में, जो उम्र में सबसे अधिक था, आगे आकर बोला-“हमने अपने कर्तव्य पालन में कोई कमी नहीं की है।”

आनन-फानन में यह खबर सारे राजमहल, सैनिकों, सेनानायकों, मंत्रियों, दरबारियों में फ़ैल गयी कि ख़ज़ाने में रखी बत्तीस वेशकीमती मूर्तियों में से एक गायब है। राजा सुजानसिंह ने ख़ज़ाने के बाहर पहरा देने वाले पहरेदारों की संख्या चार से बढ़ाकर आठ कर दी और मूर्ति का पता लगाने के लिये पूरे राज्य में गुप्तचर और भेदिये दौड़ा दिये। 

पूरा दिन बीत गया, लेकिन गायब हुई मूर्ति का पता न लगा। अगले दिन स्नान-ध्यान के बाद हमेशा के नियम की तरह राजा सुजानसिंह ख़ज़ाने और मूर्तियों के दर्शन के लिये गया तो एक बार फिर उसने राजकुमार गणेश को भी साथ ले लिया। 

 

उस दिन राजा ने खज़ाना देखने में समय बर्बाद नहीं किया। राजकुमार गणेश के साथ सीधे मूर्तियों के कक्ष में पहुँच गया।

लेकिन यह क्या…….! आख़िरी मूर्ति तक पहुँचने से पहले ही राजा सुजानसिंह के होठों से एक तेज़ चीख निकल गयी। आज एक और मूर्ति गायब थी। मूर्ति कक्ष में सिर्फ तीस मूर्तियाँ थीं। ख़ज़ाने के बाहर इतना सख्त पहरा था कि कोई परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था, लेकिन फिर भी एक और मूर्ति गायब हो गयी थी। 

राजा सुजानसिंह ने सेनापति वीरसेन को पहरा और अधिक बढ़ा देने का आदेश दिया। ख़ज़ाने पर पहरा देने वाले सैनिकों की संख्या और बढ़ा दी गयी, लेकिन उसका कोई लाभ न हुआ। तीसरे दिन फिर एक मूर्ति गायब हो गयी। पहरा और बढ़ाया गया, पर चौथे दिन भी एक मूर्ति गायब हो गयी।

फिर तो रोज़ ही पहरा पहले से दुगुना- तिगुना किया जाता रहा, लेकिन हर रात एक मूर्ति गायब होती रही! अब तो राजमहल और राजदरबार में ही नहीं, सम्पूर्ण सुजानगढ़ में कोहराम सा मच गया! आखिरकार बीसवें दिन राजा सुजानसिंह ने सारे राज्य में मुनादी करवा दी कि जो भी मूर्तिचोर को पकड़वायेगा, उसे मुंहमाँगा पुरुस्कार दिया जायेगा, लेकिन इक्कीसवें दिन फिर एक मूर्ति चोरी हो गई! 

राजा सुजानसिंह की भूख-प्यास नींद सब उड़ गई!  

आखिर उसने एक दिन राजदरबार में सभी मंत्रीगणों और दरबारियों की एक सभा आयोजित की और सबके सामने यह सवाल रखा गया कि मूर्ति चोर को पकड़ने के लिये क्या किया जाये? 

हर शख्स अपने अपने विचार प्रकट करने लगा  लेकिन राजा सुजानसिंह को किसी की राय, किसी का सुझाव, किसी का विचार पसन्द नहीं आया! 

उस सभा में राजकुमार गणेश भी उपस्थित था, जब राजा सुजानसिंह हर एक व्यक्ति कै सुझाव अस्वीकार कर चुके तो गणेश ने मुंह खोला -“पिताजी, यदि आपकी अनुमति हो तो मैं भी कुछ कहूँ…?”

“अवश्य पुत्र…! तुम सुजानगढ़ के भावी शासक हो, तुम्हें निस्संकोच अपना विचार प्रस्तुत करना चाहिये!” सुजानसिंह ने कहा! 

“पिताजी, हर रात चोरी हो रही है और हम हर दिन खजाने के बाहर पहरा बढ़ा रहे हैं, क्यों न हम अब खजाने के भीतर पहरेदार लगायें!” 

गणेश का यह सुझाव सभी मंत्रियों, सेनापति, दरबारियों को बहुत पसन्द आया! 

राजा सुजानसिंह को भी लगा कि ऐसा तो उसे बहुत पहले ही करना चाहिये था, यह विचार उसे पहले क्यों नहीं सूझा! 

और उस रात एक बहुत ताकतवर सैनिक जमालसिंह को खजाने के भीतर मूर्तियों के कक्ष में एक मूर्ति के पीछे छिपकर पहरा देने के लिये नियुक्त कर दिया गया! 

अब राजा सुजानसिंह के मन में एक निश्चिन्तता सी आ गयी कि कल तो वह चोर अवश्य ही पहरेदारों की पकड़ में आ जायेगा! 

उस रोज राजा सुजानसिंह बहुत चैन से सोये!

अगले दिन राजा सुजानसिंह का मन अति प्रसन्न था। स्नान-ध्यान के बाद वह युवराज गणेश के साथ ख़ज़ाने की ओर चले। आज राजा के चेहरे पर बड़ी खूबसूरत  मुस्कान थी। ख़ज़ाने के बाहर उपस्थित सभी सैनिकों का राजा सुजानसिंह ने हँसकर अभिवादन किया। फिर ख़ज़ाने का द्वार खुलवाकर अन्दर प्रविष्ट हुए और शीघ्रतापूर्वक युवराज गणेश के साथ पीछे के मूर्तियों के कक्ष में पहुँचे, लेकिन उस कक्ष में पहुँच बुरी तरह चीख उठे। 

युवराज गणेश भी यह देख स्तब्ध रह गया कि मूर्तियों के कक्ष में पहरा देने वाला ताकतवर पहरेदार ज़मालसिंह मूर्च्छित पड़ा है और आज फिर एक मूर्ति गायब हो गयी थी। 

ख़ज़ाने में कैद बत्तीस मूर्तियों में से अब केवल दस ही बची थीं। 

ज़मालसिंह को होश में लाकर उससे पूछताछ की गयी तो  वह इतना ही बता सका कि रात को जब वह एक मूर्ति के पीछे छिपकर पहरा दे रहा था, अचानक उसकी नाक से एक बहुत तेज़ गन्ध सी टकराई और  उसके बाद उसे कुछ भी होश न रहा। वह नहीं जानता – मूर्ति कब कैसे गायब हो गयी। 

 

अब राजसभा के एक सभासद ने राजा सुजानसिंह से कहा -“मूर्ति के कक्ष में अब किसी को भी छिपाकर खड़े करने का कोई औचित्य नहीं रह गया। अब मूर्तिकक्ष में दो शक्तिशाली सैनिकों को पहरे पर लगाइये, जोकि हर समय चलते फिरते, पहरा देते रहें, जिससे नींद भी उनकी आँखों से कोसों दूर रहे।”   

उस रात ऐसा ही किया गया। दो शक्तिशाली सैनिकों को ख़ज़ाने के अन्दर मूर्ति वाले कक्ष में पहरा देने के लिये भेजा गया और हिदायत दी गयी कि उन्हें हर समय चलते-फिरते पहरा देना है।  एक क्षण के लिये भी रुकना नहीं है। कहीं पर बैठना नहीं है।    

किन्तु अगले दिन जब राजा सुजानसिंह, युवराज गणेश  के साथ मूर्तिकक्ष में पहुँचे, पाया कि दोनों सैनिक बेहोश हैं और फिर एक मूर्ति गायब हो गयी है। उन दोनों सैनिकों ने भी यही कहा कि उनकी नाक से एक बहुत तेज़ गन्ध सी टकराई और  उसके बाद उन्हें कुछ भी होश न रहा।      

राजा परेशान कि मूर्तिचोर आखिर ख़ज़ाने के पीछे स्थित मूर्तिकक्ष में आता कहाँ से है।  वहां अन्दर जाने का एक ही रास्ता था और वहाँ इतने पहरेदार होते थे कि किसी झींगुर-मच्छर का भी नज़र से बचकर अन्दर जाना असंभव था। 

खैर, मूर्तिकक्ष में पहरेदारों की संख्या दो से तीन, चार, पाँच, छह की गयी, किन्तु हर रात एक मूर्ति गायब होती रही। इकतीसवीं रात राजा सुजानसिंह का संयम जवाब दे गया। उन्होंने निश्चय किया कि आज रात वह स्वयं पहरा देंगे और उस रात वह जिरह-बख्तर पहन योद्धाओं की पोशाक में मूर्तिकक्ष में गये। चूँकि अब मूर्तिकक्ष में दो ही मूर्तियाँ थीं, इसलिये कक्ष बड़ा खाली-खाली सा था। राजा सुजानसिंह ने घूम-घूमकर चारों तरफ की दीवारों का निरीक्षण किया कि शायद कहीं कोई गुप्तद्वार हो, जहाँ से चोर मूर्तिकक्ष में आता हो, लेकिन उन्हें ऐसी कोई जगह नहीं दिखी, जहाँ कोई गुप्तद्वार होने का आभास होता। 

राजा सुजानसिंह बिना रुके अनवरत टहलते हुए पहरा देते रहे। उनका एक हाथ हर क्षण अपनी म्यान के बाहर झाँकती तलवार की मूठ पर था। वह इतने चौकन्ने थे कि किसी भी खतरे का अन्देशा होते ही पलक झपकते ही सामने आने वाले शत्रु का सिर धड़ से अलग कर सकते थे, लेकिन उनकी सारी सतर्कता धरी की धरी रह गयी। रात के दो बजे अचानक राजा सुजानसिंह की नाक से कुछ अजीब सी गन्ध टकराई और वह मूर्च्छित हो गये। 

सुबह जब युवराज गणेश स्नान-ध्यान करके अपने पिता का हाल जानने के लिये मूर्तिकक्ष में आया तो पिता की अवस्था देख बुरी तरह बौखला गया। 

राजा सुजानसिंह मूर्तिकक्ष के फर्श पर यूँ पड़े थे कि उन्हें दीन-दुनिया का ज़रा भी होश नहीं था। 

और….। 

अब मूर्तिकक्ष में एक ही मूर्ति थी। 

युवराज गणेश कई सैनिकों की सहायता से अपने पिता को उनके शयनकक्ष में ले गया और तत्काल ही राजवैद्य को बुलाया गया। राजवैद्य आये और विशिष्ट जड़ी-बूटियाँ सुँघाकर शीघ्र ही राजा सुजानसिंह को होश में लाये। होश में आने पर राजा सुजानसिंह ने भी सभी को यही बताया कि उन्हें नहीं मालूम मूर्ति किसने चुराई। आधी रात के समय अचानक एक बड़ी ही मनमोहक गन्ध उनकी नाक से टकराई, उसके बाद क्या हुआ उन्हें नहीं पता। 

मूर्तिकक्ष में अब केवल एक ही मूर्ति रह गयी है, यह जानकर राजा सुजानसिंह दुखी होकर रोने लगे कि मैं राजा होकर भी अपने ख़ज़ाने की वेशकीमती मूर्ति की रक्षा नहीं कर सका, धिक्कार है मुझ पर।    

युवराज गणेश ने पिता को सान्त्वना दी और ढाढ़स बँधाया -“पिताजी, आपने अब तक वही किया, जो आप चाहते थे, लेकिन अब आपको आराम की आवश्यकता है । आप मूर्ति की चिन्ता बिल्कुल छोड़ दीजिये। आदमी दुखी उसी चीज़ के  लिये होता है, जो उसके पास होती है और खो जाती है। आप यह सोच लीजिये कि ये मूर्तियाँ आपकी थी ही नहीं, इसलिये आपके पास नहीं रहीं।”

यह सुनते ही राजा सुजानसिंह आगबबूला हो उठे -“तू सुजानगढ़ का भावी राजा है। तुझे अपने राज्य की हर धरोहर को सुरक्षित रखने की चिन्ता करनी चाहिये और तू कह रहा है कि मैं यह सोच लूँ कि मूर्तियाँ हमारी थी ही नहीं। ठीक है, अब आख़िरी बची हुई मूर्ति की रक्षा तुझे करनी होगी। यदि तू मूर्ति की रक्षा करने और चोर को पकड़ने में सफल हो गया, तभी तुझे सुजानगढ़ का सिंहासन मिलेगा, वरना मेरे बाद मेरी प्रजा में से ही कोई योग्य व्यक्ति सुजानगढ़ का राजा होगा।”

सभी मंत्रियों और सेनापति वीरसेन ने राजा सुजानसिंह को बहुत समझाया कि जिस चोर को बड़े-बड़े महारथी और आप स्वयं नहीं पकड़ सके, उसे अनुभवहीन युवराज कैसे पकड़ सकेंगे। लेकिन राजा सुजानसिंह अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुए। युवराज गणेश ने भी पिता द्वारा दी गयी चुनौती स्वीकार कर ली और कहा -“आज रात मूर्तिकक्ष में – मैं ही पहरा दूँगा और यदि मैं चोर को नहीं पकड़ पाया तो स्वयं ही सुजानगढ़ त्याग, संन्यास ग्रहण कर लूँगा।”

गणेश की प्रतिज्ञा सुन राजकक्ष में सन्नाटा छा गया! कुछ देर चुप्पी छाई रही, फिर गणेश गम्भीर स्वर में बोला-“चूंकि रात को मुझे ही खजाने के मूर्तिकक्ष में पहरा देना है, इसलिये स्वयं को तैयार करने के लिये मैं उन सभी सैनिकों से अलग से मिलना चाहता हूँ, जो मुझसे पहले मूर्तिकक्ष में पहरा दे चुके हैं और मैं राजदरबार के सभी वरिष्ठ लोगों से भी अलग अलग मिलना चाहता हूँ और मैं चाहूँगा कि पहले पहरा देने वाले सभी सैनिक, उसके बाद महामंत्री, मंत्रीगण, सेनापति, राजज्योतिषी, राजपण्डित, राजवैद्य, रसोइया, दर्जी आदि सभी एक एक करके मुझसे मेरे कक्ष में आकर मिलें और कोई भी मुझसे हुई मुलाकात और बातों को किसी दूसरे को नहीं बतायेगा!”

राजा सुजानसिंह ने युवराज गणेश की सभी बातें मान लीं! 

उस दिन दोपहर तक सभी लोगों से मुलाकात और बातें हो जाने के उपरान्त युवराज गणेश ने हर नित्य कार्य से निवृत्त होकर अपने कक्ष में डटकर आराम किया! 

 सन्ध्या काल आरम्भ होते ही गणेश अपने कक्ष से बाहर निकला और उसने अपने विशेष सेवक को बुलाकर उसे खजाने के मूर्तिकक्ष में कुछ विशेष सामान पहुँचाने के लिये कहा! 

सेवक ने तुरन्त ही आज्ञा का पालन किया! 

रात को जब युवराज गणेश मूर्तिकक्ष में पहुँचा, सबसे पहले उसने अपनी राजसी पोशाक उतारकर काले रंग की सिर से पांव तक ढकने वाली एक पोशाक पहन ली, जिसमें से सिर्फ उसकी आँखें ही बाहर देख सकती थीं!  फिर उसने मूर्तिकक्ष में ही पहले से रखी पानी से भरी बाल्टी के पानी से अपनी पोशाक के नकाब का ऊपरी हिस्सा गीला कर लिया! 

फिर वह एक हाथ में तलवार थामे चहलकदमी करते हुए मूर्तिकक्ष का बारीकी से निरीक्षण करने लगा! 

निरीक्षण करते हुए एक स्थान पर वह ठिठक गया! 

वहाँ के फर्श पर एक बहुत छोटा सा छेद था! छेद की लम्बाई चौड़ाई दो इंच 

से अधिक न थी! उस छोटे से छेद के अलावा गणेश को कहीं कोई ऐसी जगह नहीं दिखाई दी, जहाँ से कोई मूर्तिकक्ष में आ सकता था ! 

गणेश ने निश्चय किया कि वह उसी छेद के पीछे खड़ा रहकर चोर के आने की प्रतीक्षा करेगा!

समय बीतता रहा और आधी रात हो गई! रात के दो बजे के करीब गणेश को अचानक उसी छोटे से छेद से धुंआ सा निकलता दिखाई दिया! गणेश ने तुरन्त अपनी सांसें रोक लीं, जिससे धुंए का उस पर जरा भी असर न हो! 

धुंआ पूरे मूर्तिकक्ष में फैल गया, किन्तु योग और प्राणायाम के विशेषज्ञ गणेश पर उस धुंए का जरा भी असर न हुआ! 

अब गणेश की दृष्टि पूरी तरह उस छेद पर थी, जहाँ से धुंआ अन्दर आया था! 

लगभग पांच मिनट बाद मूर्तिकक्ष में फैला धुंआ गायब हो गया और तब उसी छेद के अन्दर गणेश ने कुछ सरसराहट महसूस की! लगा कि उस छेद से कोई मूर्तिकक्ष में आ रहा है और  गणेश ऐसी स्थिति के लिये पूरी तरह तैयार था! दांयें हाथ में तलवार थामे उसने बांया हाथ छेद के निकट ऐसे जमा दिया कि जो भी छेद से बाहर निकले, उसे अपनी मुट्ठी में दबोच ले! 

और… 

इन्तज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं! छेद से लगभग एक इंच लम्बा जीव मूर्तिकक्ष में आया, किन्तु जैसे ही वह मूर्तिकक्ष में आया, गणेश ने अपनी मुट्ठी में उसे जकड़ लिया! फिर उस जीव को उसने गौर से देखा तो यह देख हक्का-बक्का रह गया कि वह एक इंच का जीव एक खूबसूरत नारी थी! 

गणेश की मुट्ठी में वह नारी घिघियाने लगी-“छोड़ दो! छोड़ दो मुझे…!”

“पहले यह बताओ कि तुम कौन हो और यहाँ क्या करने आई हो और सच बोलना, वरना मैं अपनी मुट्ठी में ही तुम्हें पीसकर मार डालूँगा!”

“नहीं-नहीं, ऐसा मत करना! मैं कृष्णगढ़ की राजकुमारी कृष्णा हूँ और मैं यहाँ यहाँ सिर्फ अपने देश के मन्दिरों की मूर्तियाँ लेने आई थी, जिसे तीन सौ साल पहले हमारे राज्य से आपके पूर्वज ले आये थे! किसी को नुक्सान पहुँचाने की मैंने कभी कोई कोशिश नहीं की, जबकि मैं चाहती तो इस मूर्तिकक्ष के अन्दर आकर  पहरा देने वाले हर शख्स को मार सकती थी!”

उस एक इंच की गुड़िया की बात सुनकर युवराज गणेश ठहाका मारकर हंसा और बोला -“तुम एक इंच की गुड़िया जैसी नारी मूर्ति चुराने आयीं थीं, इतनी विशाल मूर्ति जो लगभग मेरे बराबर है और भारी भी है! और तुम यह भी कह रही हो कि तुम कृष्णगढ़ की राजकुमारी हो!”

“तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं है तो मुझे उस मूर्ति के पास ले चलो, जो इस मूर्तिकक्ष में आखिरी बची मूर्ति है!”

युवराज गणेश उस इंच भर की गुड़िया को उस मूर्ति के निकट ले गया! 

“अब इस मूर्ति को मुझे छूने दो!” एक इंच की गुड़िया ने कहा ! 

वह एक इंच की गुड़िया युवराज गणेश की मुट्ठी में थी, इसलिये वह निश्चिन्त था कि वह गुड़िया कुछ भी करने योग्य नहीं है! 

उसने अपनी मुट्ठी मूर्ति के पास करके उस एक इंच की गुड़िया को मूर्ति छूने का अवसर प्रदान कर दिया! 

और… 

जैसे ही उस एक इंच की गुड़िया ने मूर्ति को छुआ, मूर्ति एकदम सूक्ष्म आकार की होकर गुड़िया की मुट्ठी में समा गई! 

हीरे जवाहरातों से जड़ी विशाल मूर्ति अब मूर्तिकक्ष से गायब थी और एक इंच की गुड़िया की मुट्ठी में थी! 

“यह क्या जादू है?” गणेश बड़बड़ाया! 

“हां, यह जादू ही है!” वह एक इंच की गुड़िया बोली-“अगर तुम मुझे अपनी मुट्ठी से आज़ाद कर दो तो मैं तुम्हें भी अपनी मुट्ठी में कैद करके यहाँ से ले जा सकती हूँ, लेकिन जब तक मैं तुम्हारी मुट्ठी में हूँ, मेरा जादू तुम पर कोई असर नहीं करेगा! और जब तक मैं तुम्हारी मुट्ठी में हूँ – मैं अपना असली आकार भी नहीं प्राप्त कर सकती!”

“असली आकार…!” गणेश अचरज़ से बोला -“तुम्हारा असली आकार क्या है?” 

“मुझे अपनी मुट्ठी से निकाल जमीन पर खड़ा कर दो तो मैं तुम्हें अपना असली आकार दिखा सकती हूँ!” एक इंच की गुड़िया ने कहा! 

“नहीं, मैं यह खतरा मोल नहीं ले सकता! यदि तुम यहाँ से भाग गयीं तो…?”

“मैं नहीं भागूँगी! तुम इस संसार के पहले पुरुष हो, जिसने मेरा शरीर छुआ है और इसीलिये मैंने मन से तुम्हें अपना पति मान लिया है! और कोई भी स्त्री अपने पति को कभी धोखा नहीं देती!” एक इंच की गुड़िया ने कहा! 

“ठीक है, मैं तुम्हें जमीन पर उतार रहा हूँ, लेकिन ध्यान रहे, वह छेद यहाँ से दूर है, जिससे तुम इस मूर्तिकक्ष में आयी थीं, अगर तुमने भागने की चेष्टा की तो मैं तुम्हें अपने जूते से मसल कर मार डालूँगा!” गणेश ने कहा! 

“मैं नहीं भागूँगी!” एक इंच की गुड़िया ने कहा! 

गणेश ने उसे जमीन पर उतार दिया! 

अगले ही पल वह यह देख आश्चर्यचकित रह गया कि एक इंच की गुड़िया एक बेहद खूबसूरत युवती में बदल गयी थी! वह इतनी ज्यादा खूबसूरत थी कि युवराज गणेश पलकें तक झपकाना भूल गया!

 

एक इंच की गुड़िया के खूबसूरत राजकुमारी के रूप में बदलते ही बत्तीसवीं मूर्ति भी अपने पूर्ण आकार में वहीं निकट दिखाई देने लगी! 

गणेश ने एक इंच की गुड़िया से कृष्णगढ़ की राजकुमारी कृष्णा के रूप में बदल चुकी युवती का हाथ थाम लिया और बोला -“तुम बहुत ही सुन्दर हो! मैं तुम पर मोहित हो गया हूँ, लेकिन तुम मेरे देश के खजाने से मूर्तियाँ चुराने वाली चोर भी हो और चोर को पकड़ने के लिये ही मैं यहाँ उपस्थित था! अब तुम मेरे राज्य की अपराधी हो और तुम्हारा फैसला महाराज ही करेंगे! हो सकता है – वो तुम्हें फांसी की सज़ा सुना दें तो मैं भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकूँगा!”

राजकुमारी कृष्णा बड़े मोहक अन्दाज़ में हंसी और बोली -“ठीक है, फांसी का फन्दा तुम ही मेरे गले में डालना!”

 

अगली सुबह जब राजा सुजानसिंह स्नान ध्यान करके खजाने के मूर्तिकक्ष में आये तो युवराज गणेश के साथ एक अनिन्द्य सुन्दरी को देख हतप्रभ रह गये और जब युवराज गणेश ने बताया कि यही सुन्दरी सुजानगढ़ के खजाने के मूर्तिकक्ष से सभी मूर्तियाँ चुराने वाली चोर है तो वह हतप्रभ रह गये! 

 

कुछ क्षण मन्त्रमुग्ध कृष्णा को देखते रहने के बाद वह बोले- “लड़की, अगर तुम हमारे खजाने से चुराई गई सारी मूर्तियाँ वापस लौटा दो तो हम तुम्हें क्षमा कर सकते हैं!”

“यह नहीं हो सकता!” कृष्णा दृढ़ स्वर में बोली – “वे सभी मूर्तियाँ आपके किसी पूर्वज ने कृष्णगढ़ के मन्दिरों से लूटकर अपने खजाने में जमा की थीं और मैने वे सारी मूर्तियाँ उन्हीं मन्दिरों में प्रतिष्ठापित करवा दी हैं! यह आखिरी मूर्ति रह गई है और मैं चाहती हूँ कि यह मूर्ति भी पुनः उसी मन्दिर में प्रतिष्ठापित कर दी जाये, जहाँ से इसे लूटा गया था! मैं कृष्णगढ़ की राजकुमारी कृष्णा हूँ और अपने पिता की इकलौती पुत्री हूँ! यदि आप यह आखिरी मूर्ति भी मेरे राज्य के मन्दिर में प्रतिष्ठापित करवा देंगे तो मैं आपके पुत्र से विवाह करके आपकी छत्रछाया में रहना चाहूँगी! और जरा यह भी सोचिये महाराज कि भगवान कृष्ण की ढेर सारी मूर्तियों को आपने अपने खजाने में बन्दी बना रखा था, इस खजाने में कौन उन्हें देखता था – सिर्फ आप! जबकि जिन मन्दिरों से ये लूटी गयी थीं, वहाँ रोज हजारों लोग इनके दर्शन करते थे! भगवान की मूर्तियों की असली जगह मन्दिर ही होती है महाराज, खजाने की दीवारें नहीं! ये मूर्तियाँ तीन सौ सालों से अधिक आपके खजाने में रहीं, जहाँ तक मैं समझती हूँ – इतने सालों में आपके राज्य के समस्त लोगों ने भी इनके दर्शन भी नहीं किये होंगे! खजाने में इनके होने, ना होने से आपके राज्य के किसी भी व्यक्ति को कोई लाभ न था! बल्कि मैं तो यह भी कहूँगी कि भविष्य में कभी कोई युद्ध हो, किसी भी राजा के द्वारा किसी अन्य राज्य से मन्दिर की मूर्तियाँ कभी नहीं लूटी जानी चाहिये!”

 

राजकुमारी कृष्णा की आवाज में न जाने कैसा जादू था, राजा सुजानसिंह मन्त्रमुग्ध हो गये! उन्हें कृष्णा की कही गई एक एक बात सही प्रतीत हुई और उन्होंने फैसला किया कि बत्तीसवीं मूर्ति को भी कृष्णगढ़ भेजकर उसी मन्दिर में प्रतिष्ठापित करवा दिया जाये, जहाँ से वह लूटी गयी थी! 

 

और…..उन्होंने ऐसा ही किया तथा ऐसा करने के बाद दोनों राज्यों के राजाओं की सहमति से राजकुमारी कृष्णा और युवराज गणेश का विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ! 

 

सच है – ईश्वर को उनके स्थान से विस्थापित कर सम्पत्ति की तरह रखना मूर्खता व अपराध है! राजा सुजानसिंह के एक पूर्वज ने जो मूर्खता की थी, उसे सुधारने के बाद सुजानगढ़ और कृष्णगढ़ में सदैव खुशियाँ कायम रहीं!