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उलटे हाथ का कमाल – शिक्षाप्रद कथा

“आशीष ! यह तुम उलटे हाथ से क्या करे रहे हो ?” अपनी गन साफ़ करते हुए कर्नल देवराज चौहान ने अपने बेटे आशीष को एक कलरिंग बुक के फुलपेज स्केच पर आयल पेस्टल से कलर करते हुए  देखकर पूछा। 

“कलर कर रहा हूँ c।” आशीष बोला। 

“पर उलटे हाथ से क्यों ? तुम तो राइटहैण्डर हो ना ? बचपन से अब तक हमेशा दाएं हाथ से लिखते-खेलते-खाते रहे हो ?” देवराज चौहान ने कुछ आश्चर्य और कुछ जिज्ञासा से पूछा।

“हाँ पापा पर क्रिकेट में – मैं बैटिंग तो राइट हैण्ड से करता हूँ, पर पीछे जब मैं फास्ट बाउलिंग की प्रैक्टिस कर रहा था तो मैंने महसूस किया कि लेफ्ट हैण्ड से मैं ज्यादा तेज़ गेंद फेंक लेता हूँ।” आशीष मुस्कुराते हुए बोला -“तो मैंने सोचा क्यों न बाकी काम भी बाएं हाथ से करके देखूँ और सच पापा, जब मैंने कोशिश की तो पाया – हाँ मैं कर सकता हूँ। अपने बाएं हाथ का इस्तेमाल भी बखूबी कर सकता हूँ।”

“गुड ……।” देवराज चौहान ने गर्दन टेढ़ी कर शाबासी वाले अन्दाज़ में पुत्र की ओर देखा- “तुम्हें यह तो याद है की आज सन्डे है और हर सन्डे बॉक्सिंग और शूटिंग प्रैक्टिस के लिये तुम्हें अपने दादाजी के फार्महाउस चलना है।”

“जी पापा, उसके लिये मैंने पूरी तैयारी कर ली है।” आशीष ने कहा।

तभी आशीष की मम्मी आशा चौहान उसके लिये दूध का गिलास लेकर आयीं। 

:ये क्या मम्मी !” आशीष बुरा सा मुंह बनाकर बोला-“आप हमेशा हल्दी वाला दूध पिलाती हो।”

“हाँ तो…..।” आशा चौहान हँसी -“तेरी हड्डियाँ मज़बूत भी तो करनी है। क्रिकेट खेलेगा , बॉक्सिंग करेगा तो रोज़-रोज़ चोट खाकर भी तो आएगा।”              

आशीष ने गहरी साँस लेकर दूध का गिलास उठा लिया और होठों से लगा लिया। वह बहुत ही जिज्ञासु प्रवृत्ति का किशोर था! उसकी आयु तो सिर्फ बारह वर्ष थी, किन्तु उसका सामान्य ज्ञान बीस वर्षीय युवकों से भी अधिक था!

फौजी पिता का बेटा था तो खुद को फिजिकल फिट रखने में पूरा अपने पिता के नक्शेकदम पर चलता था। पढ़ाई-लिखाई में तो तेज़ ही था, योगा, कसरत, प्राणायाम आदि में भी अपने समवयस्कों से ही नहीं, बहुत से नौजवानों और अधेड़ उम्र लोगों से भी बढ़कर था। कर्नल देवराज चौहान जब भी छुट्टियों में घर आते, बाप-बेटे की जुगलबन्दी देखते ही बनती थी। 

इन दिनों देवराज चौहान बीस दिन की छुट्टियों में घर आये हुए थे तो आशीष पिता के ज्ञान को अधिक से अधिक स्वयं में समेट लेना चाहता था। रिवॉल्वर और राइफल चलाना, बॉक्सिंग, टेनिस, लम्बी दौड़ आदि सब में वह अपनी क्लास के सहपाठियों से बहुत आगे था। क्लास के दोस्तों में वह सुपरहीरो के नाम से मशहूर था, लेकिन गुस्सा या घमण्ड जैसी बुरी आदतों से मीलों दूर। 

स्कूटर और कार चलानी भी वह अपने पिता से सीखता रहा था। यह और बात थी के फौजी पिता ने अकेले ड्राइव की अभी उसे इज़ाज़त नहीं दी थी। आशीष ने भी आज़तक अपने फौजी पिता के अनुशासन के विरुद्ध एक कदम नहीं बढ़ाया था।  

दोपहर को दादाजी के फ़ार्महाउस में उसने शूटिंग टारगेट पर दायें हाथ से निशाना साधते-साधते अचानक रिवॉल्वर बायें हाथ में ले लिया। 

“यह क्या आशीष।” देवराज चौहान चीखे, लेकिन तब तक आशीष ने टारगेट पर फायर कर दिया और यह देख, देवराज चौहान हक्के-बक्के रह गए कि निशाना टारगेट के बीचोंबीच लगा था, जबकि आशीष का दायें हाथ से लगाया निशाना तीन सेंटीमीटर दूर था।     

आशीष के दोनों हाथों में सटीकता थी। एक तरह से परफेक्शनिस्ट था वह। करीब आकर देवराज चौहान ने आशीष की पीठ थपथपाई -“बेटा एक दिन इण्डियन ओलिम्पिक टीम का हिस्सा बनाऊँगा तुझे। तेरे उलटे हाथ का कमाल देखकर तो मैं दंग रह गया हूँ। समझ नहीं आता, तुझे खब्बू बनाऊँ या………?”

आशीष हँस दिया।

“मुझे तो आप जैसा हिम्मती, बहादुर और देश के दुश्मनों से टक्कर लेकर उन्हें धूल चटाने वाला सुपरहीरो बनना है। मेरे हीरो आप हो और मैं…. मैं तो सबका हीरो बनना चाहता हूँ!”

“वाह मेरे शेर…! अभी दूध के दांत टूटे देर नहीं हुई…इरादे एवरेस्ट पर पहुंचने हैं!” देवराज चौहान ने बेटे की पीठ थपथपाई – “ये हौसला, ये हिम्मत कभी कम न होने देना मेरे लाल! मजा इसी में ज्यादा है कि लोग तुम्हें देवराज चौहान और आशा चौहान का बेटा नहीं, भारत का बेटा, जनता का सुपरहीरो कहें और जानें।”

और फिर देवराज चौहान ने अपने बहुगुणी बेटे को सीने से लगा लिया!

एक बार आशीष ने अपने पिता से पूछा -” पापा, आप मिलिट्री के लोग बहादुरी के बड़े-बड़े कारनामे कैसे कर लेते हैं, क्या आप लोगों को जरा भी डर नहीं लगता?”

तब देवराज चौहान ने कहा -“डर किसे नहीं लगता बेटे! डर सबको लगता है! लेकिन जब मन में जोश होता है! अपनी भारतमाता की रक्षा का जुनून दिल में होता है! हर डर चूहा बनकर भाग जाता है! अगर अपने मन से किसी भी डर को भगाना है तो मन के जोश और जुनून को हमेशा ज़िन्दा रखो!”

“पापा, आपको मरने का डर भी नहीं लगता?” आशीष ने पूछा? 

“नही…!” देवराज चौहान मुस्कुराये -“यह डर तो बहुत छोटा है और सेना के जवान कोई छोटा डर अपने मन में नहीं पालते! हर जवान जानता है कि एक न एक दिन तो हर उस इन्सान ने मरना ही है, जिसने इस दुनिया में जन्म लिया है तो जब एक न एक दिन सभी ने मरना है तो अपने वतन पर क्यों न जान दी जाये! और फिर वो ही बात है कि वतन पर मर मिटने वालों में ऐसा ज़ज़्बा और जुनून होता है कि उनके सामने हर डर बौना हो जाता है, छोटा पड़ जाता है!”

“तो क्या आपको कभी भी किसी बात से डर नहीं लगता?” आशीष ने पूछा! 

“लगता तो है!” देवराज चौहान इस बार धीरे से बोले और काफी गम्भीर हो गये – “हम मिलिट्री वालों को सिर्फ एक डर लगता है – अपनों को खोने का डर! और हमारे देश के करोड़ों लोगों को ऐसे डर को सच्चाई के रूप में न झेलना पड़े, इसलिये हम हंसते-हंसते अपनी जान कुर्बान कर देते हैं!”

अपने बहादुर पिता की बहादुरी पर नाज़ करते हुए आशीष का बचपन फलता-फूलता किशोरावस्था में आ चुका था और वह भी देश का एक बहुत ही बहादुर जांबाज बनने के सपने देखने लगा था! 

वक़्त बीतता रहा! 

आशीष हमेशा पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद, शूटिंग, रेस, डिस्कस थ्रो, तीरन्दाजी में कहीं फर्स्ट तो कहीं सेकेण्ड, थर्ड आता रहा! उसके लिये उसके पिता हीरो थे और वह चाहता था कि अपने माता-पिता को वह ‘प्राउड फील’ कराये! लोगों में एक सुपरहीरो का सा नाम कमाये, इसके लिये वह जितनी मेहनत कर रहा था, आज के अधिकांश बच्चे ऐसी मेहनत से जी चुराते हैं! 

कुछ साल और बीत गये! 

देश में लूटपाट, राहजनी, चोरी, डकैती और बहुत से अनैतिक अपराधों के अतिरिक्त आतंकवादी गतिविधियाँ भी बहुत बढ़ गयीं थीं! 

और ऐसी ही एक घटना तब घट गयी, जब आशीष अपने स्कूल की पूरी छुट्टी के बाद अपनी बस में बैठा! आशीष के साथ उसका एक बेहद करीबी दोस्त विनय विन्डो के साथ वाली सीट पर बैठा था! 

आशीष की सीट बस की दोनों ओर की सीटों के बीच की गैलरी की तरफ थी, इसलिये उसने अपनी एक टांग बाहर निकाल रखी थी! 

बस का ड्राइवर अधेड़ आयु का जयसिंह और अटेन्डेन्ट चारू बनर्जी था, जयसिंह को इस स्कूल बस को चलाते बारह साल हो गये थे और उसकी सर्विस के दौरान कभी कोई छुटपुट ‘रोड रेज’ जैसी घटना भी नहीं हुई थी, एक्सीडेंट तो बहुत दूर की बात थी! 

चारू बनर्जी भी दस साल से इस बस का अटेन्डेन्ट था और अपनी मजाकिया आदत की वजह से सभी बच्चों में बहुत लोकप्रिय था! 

बस के पहले स्टाप पर हमेशा मयंक माहेश्वरी उतरता था! हमेशा की तरह ड्राइवर जयसिंह ने उसके स्टाप पर बस रोकी, तभी तीन व्यक्ति जिनके आधे चेहरे कोरोना महामारी के दौरान प्रचलित हुए मास्क से ढंके हुए थे, अटेन्डेन्ट चारू बनर्जी को तेजी से धक्का देते हुए बस में घुसे! तीसरे व्यक्ति ने घुसते ही बस का गेट बन्द कर लिया और तभी अचानक तीनों व्यक्तियों के हाथों में रिवाल्वर चमकने लगे और उनमें से सबसे पहले बस में दाखिल होने वाला ड्राइवर जयसिंह के सिर पर रिवाल्वर सटाकर दहाड़ा – “कोई शोर नहीं! और बस जिधर मैं कहूँ – अब उधर जायेगी!”

दूसरा रिवाल्वरधारी अपना रिवाल्वर हिलाते हुए अपनी अपनी सीटों पर बैठे सभी छात्रों से सम्बोधित हुआ -“बच्चों, हम तुम लोगों को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाना चाहते, इसलिये जिस किसी के पास भी मोबाइल हो, चुपचाप मोबाइल निकाले और मोबाइल वाला अपना हाथ ऊपर कर ले!”

“हमारे स्कूल में मोबाइल एलाऊड नहीं है!” एक छात्र ने कहा! 

“फिर भी बहुत से स्टुडेंट चोरी छिपे मोबाइल लाते हैं तो ऐसे सभी बच्चे अपने मोबाइल निकाल कर हाथ में मोबाइल लेकर, हाथ ऊपर उठा लें! वरना किसी ने हाथ नहीं उठाया और तलाशी में उसके पास मोबाइल निकल गया तो मैं उसे तत्काल शूट कर दूंगा!”

तीसरा रिवाल्वरधारी इतना कहकर बारी-बारी से हर सीट के करीब आकर पूछने लगा-“तुम्हारे पास मोबाइल है?” फिर वह सीट पर बैठे दोनों छात्रों की जेबों और बैग को हाथ लगाकर चैक करता और आगे बढ़ जाता!”

तीसरा गनमैनं इस दौरान बस के निकासी गेट पर खड़ा रहा! 

ड्राइवर जयसिंह, जो कि अजनबी लोगों को बस में चढ़ता देख, चिल्लाने ही वाला था कि “अरे कहाँ घुसे आ रहे हो, यह स्कूल बस है!” बदमाशों की तेजी की वजह से उसके शब्द हलक में ही घुट गये और अब वह पहले गनमैन के निर्देश पर बस चला रहा था! 

बस में बैठे बच्चों में कुछ शान्त थे, कुछ डरे हुए तो कुछ को रोना भी आने लगा था, लेकिन आशीष एकदम लापरवाही की मूर्ति बना सिर झुकाए ऊंघने लगा था! 

सभी छात्रों के निकट आकर बात करने वाला दूसरा रिवाल्वरधारी आशीष की सीट के निकट आया! दांये हाथ में रिवाल्वर सम्भाले, उसने बायें हाथ से आशीष को हिलाते हुए पूछा -“तेरे पास मोबाइल है!”

और इससे पहले कि वह आशीष की जेबें चैक करता, बिजली सी कौंध गयी! 

आशीष का दायें हाथ का पावरफुल बाक्सिंग पंच उसके थोबड़े पर पड़ा और बायें हाथ से उसका रिवाल्वर छीन आशीष ने “धांय -धांय” दो फायर कर दिये और गोलियाँ पहले और तीसरे रिवाल्वरधारियों के रिवाल्वर वाले हाथों पर लगीं! रिवाल्वर उनके हाथ से छूट गये, लेकिन रिवाल्वर का ट्रिगर दबाने के साथ ही आशीष अपनी सीट से उछलते हुए चीख उठा  -“पकड़ो, मारो!”

और जो छात्र अब तक डरे और शान्त थे, तूफान की तरह तीनों रिवाल्वरधारियों पर टूट पड़े! 

“ड्राइवर अंकल..!” आशीष चिल्लाकर बोला -“बस को पास के थाने में ले चलो!” 

जयसिंह ने ऐसा ही किया! 

अगले दिन सभी समाचारपत्रों और टीवी चैनल्स की प्रमुख खबर थी कि एक स्कूली छात्र आशीष चौहान ने अपने उलटे हाथ से गजब का कमाल किया और अपनी माँगें मनवाने के लिये स्कूली बस को अगवा करने वाले तीन खतरनाक आतंकवादियों को धूल चटा दी! 

आशा चौहान जब यह खबर, बधाई देने आये, अपने कई पड़ोसियों के साथ बार-बार टीवी चैनल पर देख रही थीं, उनकी एक पड़ोसन मनजीत कौर बोली -“आशा तेरा मुण्डा तो बडा बहादुर है!”

“हां, क्योंकि उसका बाप मिलिट्री का एक बहुत ही ज्यादा बहादुर सैनिक है! बच्चों को बहादुर तो उनके बाप ही बनाते हैं! माँएँ तो कलेजे का टुकड़ा बनाकर आंचल में छिपाकर रखती हैं! अपवाद भी होंगी, पर मैं तो ऐसी ही हूँ! आशीष मेरे कलेजे का टुकड़ा है!” आशा चौहान बोली।

MORAL:

एक दिन आशीष को लगा, उसका बायां हाथ, दायें से भी बेहतर काम करता है तो उसने बायें हाथ से भी लिखने, बॉक्सिंग, शूटिंग की प्रैक्टिस आरम्भ कर दी। नहीं जानता था -उसके उलटे हाथ का कमाल एक दिन उसे अखबारों और टीवी चैनल्स की सुर्खियाँ बना देगा। बहादुरी की प्रेरणा देती एक बहादुर बच्चे की रोमांचक गाथा।