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अनोखी परीक्षा – शिक्षाप्रद कथा

राजा भरतसेन के दोनों पुत्र अमरसेन और समरसेन जुड़वाँ पैदा हुए थे।

माँ के गर्भ से उनमें से कौन पहले आया था, यह न राजा को पता था – ना ही रानी को। जिस दाई की मौजूदगी में रानी  को पुत्रों की प्राप्ति हुई थी। संयोगवश राजकुमारों के जन्म के तीसरे दिन ही उसकी मृत्यु हो गयी और यह भेद – भेद ही रह गया कि अमरसेन और समरसेन में से कौन बड़ा राजकुमार है। 

राजा भरतसेन बहुत वृद्ध हो गये थे और वह चाहते थे कि दोनों में से किसी एक को राजसिंहासन सौंपकर रानी सहित तीर्थाटन के लिए निकल जाएँ । दोनों राजकुमारों में आपस में बहुत प्यार था, इसलिये दोनों ही यह चाहते थे कि राजा दूसरा भाई बन जाये,   लेकिन राजा भरतसेन को तो किसी एक के पक्ष में निर्णय करना था और वह समझ नहीं पा रहे थे किसे राजा बनायें।  

राजा का मंत्री चतुरसेन बहुत चतुर व्यक्ति था। राजा ने अपनी समस्या चतुरसेन के सामने रखी और बोले -“दोनों ही राजकुमार समान रूप से गुणी है। एक समान दुर्जेय योद्धा हैं। तलवारबाजी, भाला फेंकने, तीर चलाने में कौन ज्यादा निपुण है, यह कहना मुश्किल है। मल्लयुद्ध में भी दोनों समान पराक्रमी हैं। मैं दोनों में से किसी भी पुत्र के साथ अन्याय नहीं करना चाहता, लेकिन यह भी नहीं चाहता कि अधिक योग्य पुत्र राज्य से वंचित हो जाये। अब आप ही बताएँ महामंत्री, हम किस पुत्र का राज्याभिषेक करें।”

 

महामंत्री चतुरसेन सोच में पड़ गये और कुछ देर विचार करने के बाद बोले -“इसका मतलब है, हम यदि दोनों राजकुमारों की परीक्षा लें तो भी यह जानना मुश्किल होगा कि दोनों में से कौन अधिक गुणी है।”

    

“हाँ, और दोनों ही मेरे अपने पुत्र हैं। मुझे समान रूप से प्यारे हैं। इसलिए समझ नहीं पा रहा हूँ -क्या करूँ? आप महामंत्री हैं, मेरी सारी  समस्याएँ आप ही सुलझाते हैं। अब यह समस्या भी आप ही सुलझाइये।” राजा भरतसेन ने कहा। 

महामंत्री चतुरसेन ने बहुत सोच-विचार किया, किन्तु वह भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके तो बोले -“महाराज, मुझे सोच-विचार के लिए एक दिन की छुट्टी दीजिये। कल मैं राजदरबार में नहीं आऊँगा। परसों मैं इस विषय में जरूर कुछ कह सकूँगा।”

राजा भरतसेन ने महामंत्री को छुट्टी दे दी। 

वो ठेठ सर्दियों के दिन थे। राज्य में अक्सर बर्फबारी भी हुआ करती थी। 

उस शाम काफी ठण्ड हो चुकी थी, जब महामंत्री चतुरसेन अपने घर पहुँचे।    

अपने घर पहुँच महामंत्री बेचैनी से चहलकदमी करने लगे। उन्हें बार-बार इधर से उधर चक्कर काटता देख उनकी पत्नी ने अपनी युवा पुत्री गुणवती से कहा -“बेटी, तेरे पिताजी बड़े परेशान दिख रहे हैं। उनसे पूछ तो सही, क्या परेशानी है ?”    

गुणवती पिता के निकट आई और पूछा -“आप किसी बात से परेशान हैं क्या पिताजी?”

“हाँ बेटी।” चतुरसेन ने कहा और अपनी परेशानी का सारा कारण अपनी पुत्री को बताया। 

“बस, इतनी सी बात से आप परेशान हैं।” गुणवती हँसी – “इस समस्या का हल तो मैं आपको बता दूँ।”

“सच …।” चतुरसेन का चेहरा खिल गया -“तो जल्दी से बता न बेटी।”

गुणवती ने बताया और उसका बताया उपाय चतुरसेन को पसन्द आया। अगले दिन राजदरबार में चतुरसेन ने राजा भरतसेन से कहा -“महाराज, दोनों में से राज-काज के दृष्टिकोण  से कौन अधिक योग्य रहेगा, जानने के लिये दोनों राजकुमारों की एक परीक्षा लेनी होगी और इसके लिये आपको तीन दिन के लिये दोनों राजकुमारों को मेरे घर भेजना होगा। मैं दोनों को अलग-अलग कमरों में ठहराऊँगा। आप दोनों को समझा दीजिये कि तीन दिन उन्हें राज-काज सीखने के लिये मेरे यहाँ रहना होगा। और वहाँ मैं जो कहूँगा, वही करना होगा।”  

राजा चतुरसेन ने दोनों पुत्रों को बुलाया और वैसा ही कहा, जैसा महामंत्री चतुरसेन ने कहा था।  दोनों राजकुमार पिता के आज्ञाकारी पुत्र थे, वे पिता की आज्ञानुसार महामंत्री चतुरसेन के घर पहुँच गये। 

महामंत्री चतुरसेन ने दोनों राजकुमारों के लिये कमरे, पहले ही तैयार करवा दिये थे।  

चतुरसेन के यहाँ दो नौकर थे। रामू और हरिया। 

चतुरसेन ने रामू से कहा कि वह अमरसेन को उसके कमरे में ले जाये और हरिया को आदेश दिया -वह समरसेन को उसके कमरे में ले जाये। दोनों नौकर दोनों राजकुमारों को उनके कमरों में ले गये। 

अपने कमरे में पहुँच अमरसेन ने देखा – कमरे में कोई खिड़की नहीं थी और उसका बिस्तर एक दीवार के साथ ज़मीन पर लगा था। बिस्तर पर लेटकर अमरसेन ने रामू से कहा -“भाई, अगर कष्ट न हो तो एक सुराही में स्वच्छ जल, एक गिलास और हाथ से हवा झलनेवाला एक पंखा ला दीजिये।”

 

“अभी लाया।” कहकर रामू पलट गया, लेकिन जब समरसेन हरिया के साथ अपने कमरे में गया, यही सब देख आग-बबूला हो उठा -“यह क्या ज़मीन पर बिस्तर। यह क्या हिमाकत है ? मैं – हमेशा शाही पलंग पर सुगन्धित बिस्तर पर सोने वाला राजकुमार समरसेन ज़मीन पर सोयेगा।  महामंत्री ने यह सोच भी कैसे लिया।”

अगले ही क्षण म्यान से तलवार निकाल हवा में लहराते हुए समरसेन कमरे से बाहर निकला और चिल्लाया -“महामंत्री।”          

चतुरसेन तुरन्त ही अपनी पत्नी के साथ दौड़ा-दौड़ा सामने आया तो चिल्लाकर समरसेन दहाड़ा -“मेरा बिस्तर ज़मीन पर लगवाने की तुमने हिम्मत भी कैसे की ?”

“क्षमा करें युवराज।” चतुरसेन बोला -“मैंने वही किया है, जिसकी मुझे आज्ञा थी।”

“किसकी आज्ञा से तुमने हमारा बिस्तर ज़मीन पर लगवाया, बुलाओ उसे – हम अभी उसकी गर्दन धड़ से अलग कर देंगे।” समरसेन गरज उठा।

“क्षमा करें युवराज। आप ऐसा नहीं कर सकते। क्या आपको याद नहीं कि आपके पिता ने राज-काज में निपुणता पाने के लिये मेरे यहाँ भेजा है। क्या आपका यह फ़र्ज़ नहीं है कि आप मेरी हर आज्ञा का पालन करें।” चतुरसेन ने कहा।

समरसेन ठण्डा पड़ गया और धीमे स्वर में बोला -“लेकिन मैं ज़मीन पर बिछे बिस्तर पर सो नहीं सकता। आराम भी नहीं कर सकता।” 

“ठीक है। कुछ देर रुकिये। मैं पता करता हूँ कि आपकी सुविधा के लिये क्या किया जा सकता है।” चतुरसेन बोला।  

शोर सुनकर राजकुमार अमरसेन भी अपने कमरे से बाहर आ गया था। 

“भाई, तीन दिन की ही तो बाद है। तीन दिन के लिये ज़मीन पर बिछे बिस्तर पर ही सो लो। सोच लो कि हमारे पिता ने, हमारे महाराज ने हमें किसी युद्ध में लड़ने के लिये भेजा है और हमें किसी जंगल अथवा मैदानी क्षेत्र में रात  गुजारनी है। तब हमें ज़मीन पर ही सोना पडेगा और शायद तब हमें बिस्तर भी न मिले।”

“तब की तब देखेंगे भाई। यहाँ मुझे आराम करने के लिये आरामदेह पलंग चाहिये।” समरसेन चिल्लाया। 

“ठीक है। आपके लिये आपके कमरे में शाही पलंग जैसे ही एक पलंग का प्रबन्ध किया जा रहा है।” तभी महामंत्री चतुरसेन वहाँ आते हुए बोले। फिर वह अमरसेन की ओर मुड़ा -“क्या आपके लिये भी शाही पलंग का इन्तज़ाम किया जाए युवराज ?”

“नहीं, मुझे ज़मीन पर सोने में भी कोई असुविधा नहीं है।” अमरसेन ने कहा।        

उस रोज़ जब दोपहर के भोजन का समय हुआ तो रामू और हरिया शनील के शानदार लाल कपड़े से ढकी एक मिट्टी की थाली लेकर अमरसेन और समरसेन के कमरों में पहुँचे। 

समरसेन ने जैसे ही कपड़ा हटाया, मिट्टी की थाली में केला, अमरुद, सेव, नासपाती, पपीता आदि फल देखकर उबल पड़ा -“यह सब क्या है ? यह मेरे भोजन का समय है। दाल, चावल, हलवा, पूरी, दही और खीर का प्रबन्ध करो।”

हरिया मिट्टी की थाली और उसमे रखे फल लेकर वापस पलट गया। थोड़ी देर बाद वह समरसेन द्वारा माँगे गए सभी पकवान लेकर आ गया। उसी समय महामंत्री चतुरसेन अमरसेन के कमरे में आकर पूछा -“युवराज, आप यह फलाहार खा लेंगे या आपके लिये कोई और प्रबन्ध किया जाये।”

“नहीं, मुझे कुछ और नहीं चाहिये। हमारी माँ जब भी उपवास करती हैं – फलाहार ही लेती हैं। आज मैं भी अनुभव करना चाहता हूँ कि दिन भर फलों का सेवन करके रहने से कैसा लगता है।” अमरसेन ने कहा-| और फिर शिकार अथवा युद्ध के दौरान हम किसी निर्जन स्थान में फँस जाएँ और खाने के लिये हमारे पास कुछ न हो, तब भी तो हमें पेड़ों के पत्ते या फल खाकर जीवित रहेंगे”

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अगले दिन सुबह – सुबह बर्फबारी होने लगी और राज्य में ठण्ड बहुत बढ़ गयी। ऐसे में अचानक रामू अमरसेन के कमरे में आया और एक मोटा कम्बल उसे देते हुए बोला -“आपके लिये महामंत्री का आदेश है – आप घर से बाहर निकल पश्चिम दिशा में दो कोस तक घूमकर आयें।”

अमरसेन बाहर निकला। अभी वह दो-तीन फर्लांग ही आगे बढ़ा था कि उसे एक पेड़ के नीचे ज़मीन पर, गन्दे से कपड़ों में,  चेहरे पर बाल बिखराये एक युवती लेटी हुई दिखाई दी। वह ठण्ड से थर-थर काँप रही थी और बड़बड़ा रही थी -“कोई मुझे एक कम्बल दे दो।”

बिखरे हुए बालों और मुँह पर लगी मिट्टी की वजह से उस युवती का चेहरा बिल्कुल नज़र नहीं आ रहा था। राजकुमार अमरसेन को उस लड़की से घिन्न नहीं हुई, बल्कि बहुत तरस आया। उसने बहुत ठण्ड के बावजूद अपना कम्बल उतारकर उस युवती के बदन पर ढक दिया और बोला -“अभी तुम इससे काम चलाओ। दिन में तुम राजा के दरबार में पहुँचना और महाराज से मदद माँगना। उनसे कहना तुम्हें अमरसेन ने भेजा है।”     

राजकुमार अमरसेन के बाहर निकलने के एक घण्टे बाद हरिया समरसेन के कमरे के कमरे में पहुँचा और उसे एक कम्बल देकर बोला -“आपके लिये महामंत्री का आदेश है – आप घर से बाहर निकल पूरब दिशा में दो कोस तक घूमकर आयें।”

“पागल हुआ है।” समरसेन हरिया पर कुपित होकर बोला -“यह ठण्ड का मौसम कोई घूमने का है। सोने दे मुझे।”   

हरिया ने महामंत्री को बताया  तो वह स्वयं समरसेन के कमरे में आये और कर्कश स्वर में बोले -युवराज, राजा महाराजा हर मौसम में प्रजा का हाल जानने के लिये घूमने निकलते हैं। क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें भी मेरा आदेश मानकर घूमने निकलना चाहिये। याद रहे, महाराज ने, आपके पिता ने आपको और आपके भाई को राज-काज के ढंग सिखाने के लिये मेरे यहाँ भेजा है।”

महामंत्री चतुरसेन के बार-बार समझाने पर समरसेन भी कम्बल ओढ़कर बाहर  निकला। थोड़ी देर बाद उसे भी रास्ते में एक पेड़ के नीचे एक फटेहाल कीचड में मुख साने, बाल चेहरे पर बिखराये एक युवती दिखाई दी, जो ठण्ड के कारण थर-थर काँप रही थी और बड़बड़ा रही थी -“कोई मुझे एक कम्बल दे दो।”

समरसेन ने उस युवती को एक ठोकर मारी और गुर्राया -“ठण्ड में मरने के लिये यहां क्यों पडी है। कहीं और जाकर मर।“ फिर वह आगे बढ़ गया।

फिर एक दिन यूँ ही बीत गया। अगले दिन महामंत्री चतुरसेन समरसेन के कक्ष में आये और उसे उठाकर बोले -“युवराज आज एक बहुत मुश्किल काम तुम्हें करना है। मुझे मालूम है – तुम वो काम करना नहीं चाहोगे, लेकिन फिर भी तुम्हें करना ही होगा। इसलिये अपना दिमाग ठण्डा रखकर मेरे साथ चलो।”

समरसेन महामंत्री चतुरसेन के साथ कुछ दूर स्थित एक मैदान में गया, जहाँ एक नीम का पेड़ था।  उससे  दी सौ गज़ की दूरी पर एक पीपल का पेड़ था।  नीम के पेड़ के नीचे थोड़ी मात्रा में मकान बनाने की सामग्री पडी थी। रेता भी था, रोड़ी भी थी, बजरी  भी थी और सौ से अधिक ईंटें भी थीं। वहां एक फावड़ा और एक तसला भी रखा था। 

महामंत्री चतुरसेन ने नीम के पेड़ के नीचे रखे सामान की तरफ संकेत करते हुए समरसेन से कठोर स्वर में कहा -“ये सारा सामान तुम्हें उस पीपल के पेड़ के नीचे तक पहुँचाना है और अब की बार तुम कुछ नहीं कहोगे कि तुम एक राजकुमार हो, यह काम नहीं करोगे आदि आदि।”

राजकुमार समरसेन का मन तो नहीं था, पर अनमने मन से वह यह काम करने लगा। पहले उसने फावड़े से रेता, रोड़ी और बजरी तसले में भरकर पीपल के पेड़ के नीचे तक पहुँचाया, किन्तु ऐसा करते हुए उसने यहाँ ज़रा भी ध्यान नहीं दिया कि हर सामान की थोड़ी-थोड़ी दूर अलग-अलग ढेरियाँ बनाये। बाद में ईंटें तो पेड़ के निकट पहुँच दूर से ही पीपल के नीचे फेंकता रहा, जिसके कारण काफी ईंटें टूट भी गयीं। 

यही काम जब कुछ घण्टे बाद राजकुमार अमरसेन को दिया गया तो उसने रेता, रोड़ी, बजरी की करीने से अलग-अलग धेयान बनाईं और ईंटों को एक के ऊपर एक रखकर कुछ ही लाइनों में थोड़ी जगह में खड़ी कर दीं।

इसके बाद महामंत्री चतुरसेन ने दोनों राजकुमारों की कोई परीक्षा नहीं ली और उन्हें ससम्मान अनेक उपहार देकर विदा किया। समरसेन तो अपने उपहार लेकर तत्काल अपने घोड़े पर सवार होकर वहाँ से चला गया, लेकिन अमरसेन वहीं खड़ा रहा, यह देख चतुरसेन ने पूछा -“आप कुछ कहना चाहते हैं युवराज ?”

“हाँ, मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ। मेरा अनुमान है – आपने राज-काज सिखाने के बहाने आपने हमारी यह जो परीक्षा ली है, उसके पीछे उसी का दिमाग है। जब हम यहाँ आये तो समरसेन ने ज़मीन पर बिछे बिस्तर पर सोने के लिये मना कर दिया था। तब आप किसी से कुछ पूछंने गये थे और मैं जानता हूँ – वह आपकी पुत्री ही थी, जिससे आप कुछ पूछने गये थे, क्योंकि आप और आपकी पत्नी तो तब हमारे सामने ही थे।”

“सही कहते हो युवराज और ठण्ड में ठिठुरती जिस गन्दी सी लड़की को आपने अपना कम्बल दिया था, वह भी मेरी पुत्री गुणवती ही थी।” चतुरसेन ने बताया तो अमरसेन हतप्रभ रह गया-“छिः इतनी गन्दी……।” वह बोला। 

चतुरसेन हँसने लगा और बोला -“अब आप राजमहल में पहुँचिये युवराज। जल्दी ही मैं अपनी पुत्री के लिये आपका हाथ माँगने आऊँगा।”

और फिर महामंत्री चतुरसेन ने जब राजा भरतसेन को दोनों राजकुमारों की अनोखी परीक्षा के बारे में बताया और कहा -“अमरसेन हर  अवस्था में रह सकता है।  उसे गरीब प्रजा पर दया आती है और वह हर कार्य  साफ़ सुथरे ढंग से दिल लगाकर करता है।”

सारी बातें सुनकर राजा भरतसेन को यह समझते देर न लगी कि किस युवराज को भविष्य में राजा बनाना है, लेकिन पहले दोनों राजकुमारों का विवाह आवश्यक था, इसलिये राजा भरतसेन ने समरसेन के लिये भी राज्य की एक सुन्दर सुशील कन्या पसन्द की और दोनों राजकुमारों का एक ही मण्डप में विवाह सम्पन्न  करवाया। 

अमरसेन ने जब पहली बार गुणवती का चेहरा देखा, देखता रह गया और बोला -“गन्दी लड़की, मुझे नहीं पता था, तुम इतनी सुन्दर हो।’

काजल की