सूर्यदेव से शिक्षा प्राप्ति (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
माता अंजना अपने पुत्र की मानसिक स्थिति देखकर कभी कभी उदास हो जातीं और वानरराज केसरी तो प्रायः चिंतित ही रहा करते| हनुमान जी की आयु भी विद्याध्ययन के योग्य हो गई थी| माता-पिता ने सोचा – ‘अब इसे गुरु के पास विद्या प्राप्ति के लिए भेजना चाहिए| कदाचित इसी से इसकी दशा परिवर्तित हो जाए| यद्यपि वे अपने ज्ञानमूर्ति पुत्र की विद्या बुद्धि एवं बल-पौरुष तथा ब्रह्मादि देवताओं द्वारा प्रदत्त अमोघ वरदान से भी पूर्णतया परिचित थे, किंतु वे यह भी जानते थे कि सामान्यजन महापुरुषों का अनुकरण करते हैं और समाज में अव्यवस्था उत्पन्न न हो जाए, इस कारण महापुरुष स्वतंत्र आचरण नहीं करते| वे सदा शास्त्रों की मर्यादा का ध्यान रखते हुए नियमानुकूल व्यवहार करते हैं|’
इसी कारण जब-जब दयाधाम प्रभु भूतल पर अवतरित होते हैं, वे सर्वज्ञान संपन्न होने पर भी विद्या-प्राप्ति के लिए गुरु गृह जाते हैं| वहां गुरु की सर्वविध सेवा कर अत्यंत श्रद्धापूर्वक उनसे विद्योपार्जन करते हैं| सच तो यह है कि गुरु को सेवा से संतुष्ट कर अत्यंत श्रद्धा और भक्तिपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या ही फलवती होती है| अतएव माता अंजना और केसरी ने हनुमान जी को शिक्षा प्राप्ति के लिए गुरु गृह भेजने का निश्चय किया|
माता-पिता ने अत्यंत उल्लासपूर्वक हनुमान जी का उपयन संस्कार करवाया और फिर उन्हें विद्या प्राप्ति के लिए गुरु के चरणों में जाने की आज्ञा प्रदान की, किंतु वे किस सर्वगुण संपन्न, आदर्श गुरु के समीप जाएं| माता अंजना ने अतिशय स्नेह से कहा – बेटा! सर्वशास्त्र मर्मज्ञ समस्त लोकों के साक्षी भगवान सूर्य हैं| वे तुम्हें समय पर विद्याध्ययन कराने का आश्वासन भी दे चुके हैं| अतएव तुम उन्हीं के पास जाकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शिक्षा ग्रहण करो|”
कौपीन-कछनी काछे, मुंज का यज्ञोपवीत धारण किए, पलाशदंड एवं मृगचर्म लिए ब्रह्मचारी हनुमान जी ने भगवान सूर्य की ओर देखा और फिर विचार करने लगे| माता अंजना ऋषियों के शाप से अवगत थी ही, उन्होंने तुरंत कहा – अरे बेटा! तेरे लिए सूर्यदेव कितनी दूर हैं? तेरी शक्ति की सीमा नहीं है| अरे, ये तो वे सूर्यदेव हैं, जिन्हें अरुण-फल समझकर तू बचपन में उछलकर निगलने पहुंच गया था। सूर्य के साथ तू क्रीडा कर चुका है| तेरे भय से राहु प्राण लेकर इंद्र के पास भागा था और तेरे भय से इंद्र भी सहम गए थे| बेटा! ऐसा कोई कार्य नहीं, जो त न कर सके| तेरे लिए असंभव कुछ भी नहीं| तू जा और भगवान सूर्य से सम्यक प्राप्त कर| तेरा कल्याण सुनिश्चित है|”
फिर क्या था? हनुमान जी ने माता पिता के चरणों में प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया| दूसरे ही क्षण वे आकाश में उछले तो सामने सूर्यदेव सारथि अरुण मिले| हनुमान जी ने पिता का नाम लेकर अपना परिचय दिया और उन्होंने अंशुमाली का दिखाला दिया|
हनुमान जी ने अत्यंत श्रद्धापूर्वक भगवान सूर्य के चरणों में प्रणाम किया| पवन कुमार को सामने खड़े देख सूर्यदेव ने कहा – “बेटा! यहां कैसे?”
हनुमान जी ने अत्यंत नरम वाणी में उत्तर दिया – ‘प्रभो! यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने पर माता ने मुझे आपके चरणों में विद्याध्ययन करने के लिए भेजा है| आप कृपापूर्वक मुझे ज्ञान प्रदान करें|”
सूर्यदेव बोले – “देख लो, मेरी बड़ी विचित्र स्थिति है| मुझे अहर्निश रथ पर दौड़ते रहना पड़ता है| ये अरुण जी रथ का वेग कम करना नहीं जानते| ये क्षुधा-पिपासा और निद्रा को त्यागकर अनवरत रूप से रथ हांकते ही रहते हैं| इस विषय में पितामह से कुछ कहने का अधिकार भी मुझे नहीं| रथ से उतरना भी मेरे लिए संभव नहीं| ऐसी दशा में मैं तुम्हें शास्त्र का अध्ययन कैसे कराऊं? तुम्हीं सोचकर कहो, क्या किया जाए? तुम्हारे जैसे आदर्श बालक को शिष्य के रूप में स्वीकार करने में मुझे प्रसन्नता ही होगी|”
भगवान सूर्य ने टालने का प्रयत्न किया, किंतु हनुमान जी को इसमें किसी प्रकार की कठिनाई की कल्पना भी नहीं हुई| उन्होंने उसी विनम्रता से कहा – “प्रभो! वेगपूर्वक रथ के चलने से मेरे अध्ययन में क्या बाधा पड़ेगी? हां, आपको किसी प्रकार की असुविधा नहीं होनी चाहिए| मैं आपके सम्मुख बैठ जाऊंगा और रथ के वेग के साथ ही आगे बढ़ता रहूंगा|”
सूर्यनारायण को इससे तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ| वे हनुमान जी की शक्ति से परिचित थे| वे यह भी अच्छी तरह जानते थे कि हनुमान जी स्वयं ज्ञानी हैं, किंतु शास्त्र की मर्यादा का पालन करने हेतु एवं मुझे यश प्रदान करने के लिए ही मुझसे विद्या प्राप्त करना चाहते हैं।
बस, फिर क्या था। सूर्यदेव वेदादि शास्त्रों एवं समस्त विद्याओं के अंगोपांग एवं उनके रहस्य जितनी शीघ्रता से बोल सकते थे, बोलते चले जाते थे| हनुमान जी शांत भाव से उन्हें सुनते जा रहे थे| प्रश्न और शंका तथा उत्तर और समाधान की आवश्यकता ही नहीं थी| भगवान सूर्य ने हनुमान जी को वर्ष-दो-वर्ष या दो-चार मास में नहीं, कुछ ही दिनों में समस्त वेदादि शास्त्र, उपशास्त्र एवं विद्याएं सुना दीं| हनुमान जी में तो स्वतः सारी विद्याएं निवास करती थीं| सविधि विद्याध्ययन हो गया| सबमें वे पारंगत हो गए|
फिर हनुमान जी सूर्यदेव को प्रणाम करके बोले – “प्रभो! गुरु-दक्षिणा के रूप में आप अपना अभीष्ट व्यक्त करें|”
सर्वथा निष्काम सूर्यदेव ने उत्तर दिया “मुझे तो कुछ नहीं चाहिए, किंतु यदि तुम मेरे अंश से उत्पन्न कपिराज बालि के छोटे भाई सुग्रीव की रक्षा का वचन दे सको तो मुझे प्रसन्नता होगी|”
“आज्ञा शिरोधार्य है|” हनुमान जी ने गुरु के सम्मुख प्रतिज्ञा की – “मेरे रहते सुग्रीव का बाल भी बांका नहीं हो सकेगा, मैं प्रतिज्ञा करता हूं|”
“तुम्हारा सर्वविध मंगल हो|” भगवान सूर्यदेव ने आशीर्वाद दिया और केसरीनंदन गुरुदेव के चरणों में साष्टांग लेट गए|
परम विद्वान पवन कुमार ने गंधमादन पर लौटकर अपने माता-पिता के चरणों में मस्तक रखा| माता-पिता के हर्ष की सीमा न थी| उस दिन उनके यहां ऐसा अद्भुत उत्सव मनाया गया| गंधमादन पर हर्ष और उल्लास के समारोह का इतना सुंदर और विशाल आयोजन इसके पूर्व कभी किसी ने नहीं देखा था| संपूर्ण कपि – समुदाय आनंद विभोर हो गया| सबने प्राणप्रिय अंजनानंदन को अपने अंतर्हदय का आशीर्वाद दिया|
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