किस्मत का करिश्मा – शिक्षाप्रद कथा
बहुत पुराने समय की बात है! मगध देश की राजधानी पाटलिपुत्र में एक बहुत ही धनवान सेठ धनीराम रहता था! धनीराम के दो बेटे थे!
बड़ा नरेश बहुत ही उद्दण्ड था और बुरे दोस्तों की कुसंगति में ढेरों बुरी आदतें उसमें भर गई थीं, लोगों को अकारण परेशान करना, चोरी करना और जुआ खेलना उसकी मुख्य बुरी आदतें थीं!
लेकिन छोटा सुरेश बहुत ही नर्मदिल और सबकी मदद करनेवाला बहुत ही अच्छा लड़का था!
सेठ धनीराम की पत्नी का कुछ सालों पहले स्वर्गवास हो गया था और सेठ धनीराम को काम-धन्धे से इतनी फुरसत नहीं मिलती थी कि अपने दोनों बच्चों पर विशेष ध्यान दे सकें, इसलिये उन्हें बच्चों की अच्छाइयों और बुराइयों का जरा भी पता न था, किन्तु बड़ा बेटा नरेश, चूंकि बड़ा था, पहला पुत्र था, इसलिये सेठ धनीराम को नरेश अधिक प्रिय था और उस पर जरूरत से ज्यादा विश्वास था, जिसका अक्सर नरेश नाज़ायज़ फायदा भी उठाता था!
जब भी वह कुछ भी गलत काम करता था, पिता द्वारा पकड़े जाने पर बड़ी धूर्तता से उसका इल्ज़ाम अपने छोटे भाई पर डाल देता था, जिसके कारण निर्दोष होते हुए भी अक्सर सुरेश को पिता के हाथों से बुरी तरह पिटना पड़ता था!
एक बार नरेश के बुरे दोस्तों में से एक ने नरेश से कहा – “अरे यार, उज्जैन से एक बहुत बड़ा व्यापारी पाटलिपुत्र आया है, जो पास की ही एक धर्मशाला में रुका है! उसके पास सोने की एक हज़ार से अधिक मुद्राएँ हैं और उसे जुआ खेलने की बुरी लत है! अगर हमारे पास भी सोने की हज़ार मुद्राएँ हों तो हम सब मिलकर उसे जुए में हरा सकते हैं और फिर हज़ार स्वर्ण मुद्राओं से अच्छा खासा व्यापार करके लाखों कमा सकते हैं!”
नरेश के बुरे दोस्तों ने उसे उकसा दिया कि किसी तरह वह अपने पिता के धन में से हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ चुरा लाये!
वास्तव में नरेश के दोस्त जिसे उज्जैन का व्यापारी बता रहे थे, वह उन्हीं का एक शातिर जुआरी दोस्त था और नरेश के बुरे दोस्तों ने उस शातिर जुआरी के साथ मिलकर नरेश से हज़ारों स्वर्ण मुद्राएँ धूर्तता भरी बेइमानी से जीतकर नरेश को लूटने की योजना बनाई थी!
अपने कुमित्रों की योजना में फंस नरेश अपने पिता की बड़ी मेहनत से कमाई दौलत में से हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ चुराकर जुआरियों के पास पहुँच गया और जुआरियों की मिली-भगत की वज़ह से वह सारी स्वर्ण मुद्राएँ जुए में हार गया! फिर पिता को स्वर्णमुद्राओं की चोरी का पता चला तो नरेश ने पिता को समझाया कि चोरी सुरेश ने की है।
उस दिन सेठ धनीराम ने सुरेश की खूब कसकर पिटाई की! थप्पड़ से, घूंसों से, लात से, छड़ी से! सुरेश पिता से मार खाता, चिल्लाता रहा -“पिताजी, मैंने चोरी नहीं की! मुझे नहीं पता सोने के सिक्के किसने चुराये! मैंने तो उन्हें देखा भी नहीं!”
लेकिन सेठ धनीराम ने सुरेश की एक न सुनी! मारते मारते उसे घर से धक्का दे दिया और दहाड़ा -“चल, निकल जा मेरे घर से! अब मुझे अपना मुंह तभी दिखाना, जब हज़ार स्वर्णमुद्राएं तेरे पास हों!”
बेचारा सुरेश…! उसकी समझ में तो यह भी नहीं आ रहा था कि पिता द्वारा घर से धक्का देने के बाद, अब वह कहाँ जाये! किसके पास जाये, पर फिर भी बिना सोचे समझे वह चलता चलता अपने घर से बहुत दूर पहुँच गया! शाम ढल गयी और अन्धेरा भी होने लगा! तब सुरेश को डर भी लगने लगा!
पर कहते हैं ना, जिसका कोई नहीं होता, उसका भगवान होता है!
अन्धेरे में डरकर जब सुरेश रोने लगा तो उसके कानों में अचानक एक भारी भरकम आवाज आई-“हरिओम…! अरे कोई है क्या यहाँ…?”
आवाज सुनकर सुरेश और भी अधिक डर गया! उसने चारों तरफ नज़र दौड़ाई तो उसे पता चला कि वह अपने घर से बहुत दूर किसी जंगल में आ गया है! वह जिधर से आया था, पलटकर उसी तरफ वापस भागना चाहता था कि आवाज फिर आई – “हरिओम…! कोई है पास में… जरा मेरी मदद करो!”
दोबारा वही आवाज सुनकर सुरेश को उतना डर नहीं लगा, जितना अचानक ही पहली बार सुनकर लगा था! वह आवाज की दिशा में बढ़ा, तभी आवाज फिर आई -“अरे मैं यहाँ हूँ.. इस कुंएं में.. कोई मुझे कुंएं से बाहर निकालो!”
इस बार आवाज सुनकर सुरेश उस कुंएं के पास पहुँच गया, जिसमें से आवाज आ रही थी!
वह एक सूखा कुंआं था, उसमें कोई इन्सान गिरा हुआ था और उछल-उछलकर बार-बार ऊपर आने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसके हाथ कुंएं की मुंडेर को छू भी नहीं पा रहे थे!
सुरेश ने कुंएं में झाँककर देखा। अँधेरे में भी कुंएं में किसी इन्सान का साया साफ़ नज़र आ रहा था।
कुंआ ज़मीन में खुदा हुआ था और कुंएं के चारों ओर कोई ऊँची दीवार न थी। अँधेरे में उस तरफ आनेवाला कोई भी व्यक्ति सहजता से कुंएं में गिर सकता था।
“कौन है अन्दर…….?” सुरेश ने कुंएं के निकट पहुँचने के बाद अन्दर झाँकते हुए पूछा।
“मैं हूँ बेटा।” अन्दर से आवाज़ आई।
“पर तुम अन्दर क्या कर रहे हो ?” सुरेश ने भोलेपन से पूछा।
“मैं अन्दर गिर गया हूँ बेटा। मुझे बाहर निकालो।” आवाज़ फिर आई।
“लेकिन मैं तो एक छोटा हूँ। मैं आपको नहीं निकाल पाऊँगा।” सुरेश बोला।
“ठीक है तुम मेरी मदद तो कर सकते हो।” कुंएं के अन्दर गिरे व्यक्ति ने पूछा।
“मदद ….हाँ, मदद तो कर सकता हूँ। लेकिन मुझे नहीं समझ में आता – मदद कैसे करूँ ?” सुरेश ने कहा।
“आस-पास कोई मज़बूत रस्सी मिल जाये या कोई मज़बूत बेल दिखे तो उसका एक सिरा किसी मज़बूत पेड़ के तने से बाँध दूसरा सिरा इस कुंएं में लटका दो। मैं कुंए के अन्दर आने वाले सिरे को पकड़ कर बाहर निक्कल आऊँगा।” कुंएं के अन्दर गिरे व्यक्ति ने कहा।
“ठीक है। मैं रस्सी या बेल ढूँढता हूँ।” सुरेश ने कहा और वह आसपास रस्सी या बेल ढूँढने लगा, लेकिन उसे रस्सी या कोई बेल वहां नहीं मिली तो कुंएं के निकट जाकर चिल्लाया -“यहां कहीं पर भी कोई बेल या रस्सी नहीं है।”
“ओह।” कुंएं के अन्दर से गहरी साँस लेने का स्वर उभरा। फिर आवाज़ आई -“बेटा, यह एक सूखा कुंआ है। ज्यादा गहरा नहीं है। अगर तुम कुछ बड़े-बड़े पत्थर लाकर सामने की तरफ गिरा दो तो उन पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर किसी तरह मुंडेर थामकर मैं कुंएं से बाहर निकल आऊँगा।”
“ठीक है…मैं पत्थर ढूँढता हूँ।” सुरेश ने कहा।
और वह आसपास पत्थर ढूँढने लगा। ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र था। जगह-जगह बड़े छोटे बहुत से पत्थर थे। अतः सुरेश कुछ अच्छे समतल पत्थर ढूँढ-ढूँढ कर लाने लगा और कुंएं में जिधर मनुष्य खड़ा था, उसके दूसरी ओर गिराने लगा।
जब वह काफी पत्थर गिरा चुका तो अचानक ही अन्दर से आवाज़ आई -“बबस, अब ज़रा रुको। मैं बाहर निकलने की कोशिश करता हूँ।”
सुरेश ने कुंए में पत्थर डालना बन्द कर दिया।
कुंएं में गिरा व्यक्ति सुरेश द्वारा कुंएं में गिराये गये पत्थरों को, कुंएं की दीवार के साथ एक के ऊपर एक जमाकर, कुंएं का तल ऊँचा करने लगा और थोड़ी देर बाद, जब उसे लगा कि अब वह पत्थरों पर चढ़कर, कुंएं से बाहर निकलने में सफल हो सकता है तो वह पत्थरों पर चढ़कर, कुँयें के बाहर की ज़मीन पर हाथ जमाकर कुंएं से बाहर निकल आया। कुंएं से बाहर आते समय उसके साथ एक पोटली भी थी, जिसे उसने कन्धे से लटका रखा था। पोटली में, उसे दक्षिणा में मिला बहुत सारा सामान था।
“आप इस कुंएं में कूदे क्यों थे ?” उस व्यक्ति के बाहर आते ही सुरेश ने उस व्यक्ति से पूछा।
“मैं कूदा नहीं था बेटा। मुझे रतौंधी का रोग है। शाम होते ही मुझे ठीक से दिखना बन्द हो जाता है। मैं इस जंगल पार के गाँव में रहता हूँ। पाटलिपुत्र के एक यजमान के यहाँ सत्यनारायण की कथा का प्रवचन करने गया था, लौटते हुए दिखना कम हो जाने की वजह से इस सूखे कुंएं में गिर गया, पर बेटा तुम तो बहुत छोटे हो। तुम्हें तो इस समय अपने घर में होना चाहिये। तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?” उस व्यक्ति ने जो कि एक प्रकाण्ड पंडित गंगाराम था, सुरेश से बोला।
सुरेश को रोना आ गया। रोते-रोते उसने बताया कि उसके पिता ने कैसे उसे मार-मारकर, घर से बाहर निकाल दिया है।
सुरेश की सारी कहानी सुनकर वह पण्डित गंगाराम गम्भीर स्वर में बोला -“क्या तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगे?”
“मुझे बहुत भूख लग रही है। जब से पिताजी ने मुझे घर से निकाला है, मैंने कुछ नहीं खाया। क्या आप मुझे खाने को कुछ देंगे ?” सुरेश ने पूछा।
“अवश्य।” पण्डित गंगाराम ने कहा।
“तो फिर मैं जरूर चलूँगा।” सुरेश ने कहा।
“तो चलो। यह जंगल ज्यादा बड़ा और घना नहीं है। यहाँ खतरनाक जंगली जानवर भी नहीं हैं। तेज़-तेज़ कदमों से चलेंगे तो हम घंटे भर में घर पहुँच जायेंगे।” पण्डित गंगाराम ने कहा।
“ज़रा देर रुकिये।” सुरेश बोला-“इस कुंएं में बाद में भी कोई गिर सकता है। इसलिये पहले मैं इसके चारों तरफ ढेर सारे पत्थरों से एक ऊँचा घेरा बना देता हूँ, जिससे कोई और सूखे कुंएं में नहीं गिरेगा।”
“यह तुमने बहुत अच्छी बात कही। चलो, हम दोनों मिलकर इस कुंएं के चारों तरफ घेरा बनाते हैं।” पण्डित गंगाराम ने कहा। फिर सूखे कुंएं के चारों ओर एक घेरा बनाने के बाद वे दोनों चल दिये।
पण्डित गंगाराम जब घर पहुँचा तो उसकी पत्नी बड़ी परेशान घर के बाहर टहल रही थी। पति के साथ एक लड़के को देख उसने पूछा -“यह लड़का कौन है जी ?”
“इसे तुम अपना बेटा समझ लो। हमारे विवाह को बारह बरस हो गये, किन्तु ईश्वर ने हमें एक भी सन्तान नहीं दी, लेकिन हमारा दुःख देखकर ही समझ लो, प्रभु ने यह लड़का हमें सन्तान के रूप में दे दिया है।” पण्डित गंगाराम ने कहा।
पण्डित गंगाराम की पत्नी यशोदा तो यह सुनते ही निहाल हो गयी। उसने सुरेश को कलेजे से लगा लिया और खूब प्यार किया। उसे अपने हाथों से भर पेट खाना खिलाया।
सुरेश गंगाराम और यशोदा का बेटा बनकर उन्हीं के यहाँ रहने लगा। वह दोनों की उसी तरह सेवा करता, जैसे कोई सगा बेटा अपने माँ-बाप की करता है।
गंगाराम न केवल एक बड़ा विद्वान् पण्डित था, बल्कि आसपास उसकी टक्कर का कोई वैद्य भी नहीं था। मुश्किल से मुश्किल बीमारियों का चुटकियों में इलाज़ कर देने की औषधियों का उसे ज्ञान था। सुरेश को वह रोज़ शिक्षित करने लगा और एक दिन जब उसे महसूस हुआ कि सुरेश अब किसी भी मामले में उससे कम नहीं रह गया है तो उसने एक दिन सुरेश से कहा -“बेटा, अब तुम जवान हो गये हो। विवाह योग्य हो गये हो। मैं चाहता हूँ कि अपने योग्य कन्या का चुनाव तुम खुद करो। हमारे गाँव में तुम्हारे योग्य कोई कन्या नहीं हैं। सब की सब अशिक्षित और साधारण रंग-रूप की हैं। जबकि तुम्हारे मस्तक और हाथ की रेखाएँ बताती हैं – तुम्हारा विवाह किसी बहुत ही सुन्दर राजकुमारी से होगा। इसलिये मैं चाहता हूँ – तुम यहाँ से पश्चिम की पहाड़ियों की दिशा में जाओ। उन पहाड़ियों में तुम्हें पीले रंग का गेंदे के फूल जैसा एक बहुत बड़ा फूल मिलेगा। वह फूल अपने पेड़ पर हर बारह साल बाद उगता है। और एक पेड़ पर एक ही फूल उगता है। तुम पेड़ से वह फूल तोड़ लेना। वह बेहद करामाती फूल है। उसकी खुशबू सुँघाने से बड़ी से बड़ी बीमारी दूर हो जाती है। उस फूल को तुम सम्भालकर रखना, वह फूल हमेशा गीले कपड़े में रखोगे तो वह कभी मुरझायेगा नहीं और बरसोंबरस उस फूल से तुम बीमारों का इलाज़ कर सकोगे। पर ध्यान रहे – पहाड़ियों पर चढ़ते उतरते वह फूल कहीं गिरा मत देना, बारह वर्ष पहले मैंने भी वह फूल हासिल किया था, किन्तु कुछ देर के लिये मैंने वह फूल एक चट्टान पर रख दिया था, तभी बहुत तेज़ हवा का एक झोंका आया और वह फूल उड़ा ले गया। फिर वह फूल मुझे कभी नहीं मिला।”
सुरेश ने गंगाराम और यशोदा से विदा लेकर अपने लिये सुन्दर सुशिक्षित पत्नी की तलाश में सफर के लिये प्रस्थान किया!
कई दिनों के निरन्तर भ्रमण के बाद वह उन्हीं पहाड़ियों में पहुँच गया, जहाँ गंगाराम ने गेंदे के फूल जैसे एक पीले और बड़े फूल का होना बताया था! सुरेश बहुत जल्दी ही उस चमत्कारी फूल के पौधे तक भी पहुँच गया, किन्तु जैसे ही वह पौधे की दिशा में पहुँचा, उसने देखा एक युवती उस फूल को तोड़ रही है!
“ऐ रुको!” सुरेश दूर से ही चिल्लाया!
आवाज सुन, वह युवती फूल तोड़कर आगे भाग निकली!
सुरेश तो उसी फूल के लिये उन पहाड़ियों में आया था, वह भला उस युवती को फूल कैसे ले जाने देता! वह उस युवती के पीछे भागा! उन्हीं पहाड़ियों में आगे जाकर एक गुफा थी! वह युवती गुफा में प्रविष्ट हो गई!
गुफा के अन्दरूनी हिस्से में पत्थर का एक द्वार भी था! वह युवती द्वार बन्द कर ही रही थी कि सुरेश निकट पहुँच गया और उसने द्वार को बन्द होने से रोक दिया और चिल्लाया -“वो फूल मुझे दे दो! मैं उस फूल के लिये ही बहुत लम्बा सफ़र करके यहाँ तक आया हूँ!”
“नहीं…!” वह युवती मुंह घुमा सुरेश की ओर देखते हुए बोली-“इसी फूल के लिये मैं दस साल से इस सुनसान क्षेत्र में रह रही हूँ! यह फूल मैं किसी को नहीं दे सकती!”
उस युवती का स्वर चांदी की घंटियों जैसा सुरीला था और वह बेपनाह खूबसूरत थी! जैसे ही उसने सुरेश की ओर देखा, सुरेश ने भी उसे देखा और देखता ही रह गया!
वह परियों सी सुन्दर गोरी-चिट्टी तथा आकर्षक थी! उस पर से नज़रें हटाना सुरेश के लिये असम्भव हो उठा! वह गुफा के द्वार को धक्का दे, गुफा में दाखिल हो गया और एकटक उस युवती को देखते हुए बोला -“तुम दस साल से इस फूल के खिलने की प्रतीक्षा क्यों कर रहीं थीं और दस सालों से इसी गुफा में क्यों रह रही हो?”
“गुफा में, मैं अकेली नहीं हूँ! मेरे पिता भी हैं, जो बरसों से पक्षाघात के शिकार हैं! इस फूल की सुगन्ध से उनके शरीर के शिथिल पड़ गये अंग फिर से सक्रिय हो सकते हैं और वह ठीक हो सकते हैं! यदि तुम्हें यह फूल चाहिये तो मैं तुम्हें दे सकती हूँ किन्तु अपने पिता को स्वस्थ करने के बाद!” युवती ने कहा!
“मैं तुम्हारे पिता से मिलना चाहता हूँ!” सुरेश ने कहा तो वह युवती उसे गुफा में काफी अन्दर तक ले गयी!
एक स्थान पर पहुँच कर सुरेश ने देखा, पत्थर की एक चारपाई पर एक वृद्ध व्यक्ति निढाल पड़ा है! वहाँ गुफा की दीवारों में बने दो आलों में बहुत तेज़ प्रकाश उत्सर्जित करने वाले चमकदार हीरे रखे थे, जिनसे सारी गुफा में रोशनी फैली हुई थी!
उस युवती ने अपने पिता को सुरेश के बारे में बताया कि यह युवक मुझसे चमत्कारी फूल माँग रहा है!
“तुम इस फूल का क्या करोगे बेटे?” उस वृद्ध ने सुरेश से पूछा!
“मैं इससे दीन-दुखियों का मुफ्त में इलाज़ करूँगा, जिससे वे स्वस्थ और सानन्द जीवन व्यतीत कर सकें!” सुरेश ने जवाब दिया!
“तब तो तुम्हीं इस फूल के वास्तविक अधिकारी हो, यह मेरी बेटी आठ साल की थी, जब मैं इस गुफा में आया ! तभी मेरे आधे शरीर को लकवा मार गया और तब से मैं और मेरी बेटी इस फूल के खिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे! तुम लोगों को स्वस्थ करने के लिये यह फूल चाहते हो तो सबसे पहले तुम्हें मुझे ही स्वस्थ करना चाहिए!” उस वृद्ध ने कहा!
“हाँ, मैं पहले ऐसा ही करूँगा, फिर यह फूल आपसे प्राप्त करूँगा, लेकिन पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपलोग कौन हैं और इस निर्जन स्थान में क्यों रह रहे हैं?”
उस वृद्ध ने सुरेश की सभी बातों का उत्तर देते हुए उसे बताया-
“बेटे, मेरा नाम विजयसिंह है! यह मेरी बेटी रूपमती है! कभी मैं विजयगढ़ नाम के राज्य का राजा हुआ करता था! एक रात मेरे महामंत्री मक्कड़सिंह ने मेरे साथ विश्वासघात कर सेनापति और सैनिकों को धन दौलत का लालच देकर मेरे राज्य पर कब्जा कर लिया! वह तो मुझे और मेरी बेटी को मार ही डालता, लेकिन मेरे कुछ भरोसे के सेवकों ने मेरी मदद की, जिससे मैं विजयगढ़ से भाग यहाँ इन पहाड़ियों में आकर अपनी बेटी के साथ इस गुफा मे रहने लगा! मैंने सारे वेद शास्त्र पढ़े हैं और हर तरह के अस्त्र-शस्त्र का संचालन जानता हूँ और पक्षाघात का शिकार होने के बावजूद मैंने अपनी पुत्री को हर तरह से योग्य बनाया है, जिससे एक दिन हम विजयगढ़ का राज्य वापस प्राप्त कर सकें, लेकिन यह कार्य सिर्फ हम दोनों नहीं कर सकते, इसके लिये हमें एक युवा और योग्य नौजवान की जरूरत थी! जो मेरी बेटी से विवाह कर, उसका ध्यान रख सके, क्योंकि मैं काफी वृद्ध हो चुका हूँ और शरीर से भी निर्बल हो चुका हूँ! मुझे लगता है – भगवान ने तुम्हें मेरी पुत्री के लिये ही हमारे निकट भेजा है! क्या तुम इससे विवाह करोगे और हमें हमारा राज्य वापस दिलवाने में हमारी सहायता करोगे? मैं कुछ ही महीनों में तुम्हें हर प्रकार के अस्त्र-शस्त्र का संचालन करने में निपुण बना दूंगा!”
सुरेश ने राजा विजयसिंह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और रूपमती से विवाह कर उन्हीं के साथ उसी गुफा में रहने लगा!
अगले छ: महीनों में चमत्कारी फूल की मदद से राजा विजयसिंह का पक्षाघात बिल्कुल ठीक हो गया! उसका शरीर भी पहले से अधिक ताकतवर हो गया और उन छ: महीनों में सुरेश हर तरह के अस्त्र-शस्त्र संचालन में निपुण हो गया!
फिर एक दिन रूपमती ने सुरेश से कहा -“अब हमें विजयगढ़ चलना चाहिये! मैं अपने पिता का खोया हुआ राज्य फिर से हासिल करना चाहती हूँ और आपको विजयगढ़ के राजा के रूप में देखना चाहती हूँ!”
सुरेश राजा विजयसिंह और राजकुमारी रूपमती के साथ उन पहाड़ियों से विजयगढ़ के लिये प्रस्थान किया!
विजयगढ़ पहुँचकर राजा विजयसिंह अपने पुराने और बहुत विश्वसनीय साथी भानुप्रताप के यहाँ पहुँचे!
भानुप्रताप राजा विजयसिंह को अचानक सामने पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने उन्हें समाचार दिया कि तात्कालीन राजा मक्कड़सिंह को कोढ़ की बीमारी हो गई है और उसके शरीर में जगह जगह से मवाद बह रहा है! मक्कड़सिंह ने मुनादी करवा रखी है, जो उसे ठीक करेगा, उसे वह मुंहमाँगा ईनाम देगा! मक्कड़सिंह की अपनी कोई सन्तान नहीं है और उसकी पत्नी भी मर चुकी है! राज्य में राजा के अकर्मण्य होने के कारण बड़ी अव्यवस्था फैली हुई है! चोर डाकुओं ने सारे राज्य में उत्पात मचा रखा है! यदि कोई योग्य व्यक्ति राज्य का शासन सम्भालने के लिये आगे नहीं आता तो भविष्य में बहुत खून-खराबा होने से कोई नहीं रोक सकता!
राजा विजयसिंह से अनुमति लेकर सुरेश मक्कड़सिंह से मिलने गया और उससे कहा -“महाराज, मैं एक वैद्य हूँ और आपको पूरी तरह स्वस्थ कर सकता हूँ, आपने घोषणा की है कि जो आपको स्वस्थ करेगा, उसे आप मुंहमाँगा ईनाम देंगे! क्या यह सच है?”
“हाँ, यह सच है!” मक्कड़सिंह ने कहा!
“तो ठीक है! आपको स्वस्थ करने के बदले मुझे आपका राज्य चाहिये ! आप अपने सभी मंत्रियों और दरबारियों को बुलाकर अपना राज्य मुझे सौंप दें और आश्वासन दें कि स्वस्थ होते ही आप संन्यास ग्रहण कर लेंगे और विजयगढ़ छोड़ कर दूर कहीं चले जायेंगे!”
सुरेश की शर्त सुनकर मक्कड़सिंह को क्रोध आ गया और वह कुछ कहने ही वाला था कि सुरेश फिर से कह उठा -“वैसे मैं चाहूँ तो अभी इसी समय तुम्हें मारकर विजयगढ़ कि राजा बन सकता हूँ! विजयगढ़ के पुराने महाराज विजयसिंह भी मेरे साथ हैं! वह मेरे ससुर हैं! उनकी पुत्री मेरी पत्नी है, लेकिन मैं यह राज्य बिना एक भी खून की बूंद बहाये प्राप्त करना चाहता हूँ और तुम्हें तुम्हारे पापों का प्रायश्चित करने का अवसर भी देना चाहता हूँ! अब यह तुम सोच लो कि तुम स्वस्थ होकर जीवित रहना चाहते हो या अभी इसी समय मरना चाहते हो!”
मक्कड़सिंह डर गया और उसने सुरेश की सारी बातें मानकर सभी मंत्रियों और दरबारियों को बुलाकर सुरेश को विजयगढ़ का राजा घोषित कर दिया!
सुरेश ने भी चमत्कारी फूल के चमत्कार से मक्कड़सिंह का कोढ़ ठीक कर दिया! स्वस्थ होने के बाद मक्कड़सिंह विजयगढ़ छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिये बहुत दूर चला गया!
विजयगढ़ का राजा बनने के बाद एक दिन सुरेश ने अपने धर्म पिता गंगाराम और माता यशोदा को भी अपने राज्य में बुला लिया!
पण्डित गंगाराम और यशोदा सुरेश को राजा के रूप में देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले -“बेटा सुरेश, तुम्हारे प्रबल भाग्य की रेखाएँ पढ़कर मैं जान गया था कि एक न एक दिन तुम कहीं के राजा अवश्य बनोगे, पर अब मैं चाहता हूँ कि तुम अपने असली पिता सेठ धनीराम को भी अपने पास बुला लो! वह काफी वृद्ध हो गये होंगे! तुम्हारे पास रहकर उनका बुढ़ापा आराम से कट जायेगा!”
“हरगिज़ नहीं…!” सुरेश कुछ क्रुद्ध होते हुए बोला-“उन्होंने मुझ पर हज़ार स्वर्ण मुद्राओं की चोरी का इल्ज़ाम लगाकर, पीट-पीटकर घर से बाहर निकाल दिया था!”
“उसमें उनकी कोई गलती नहीं थी सुरेश! तुम्हारे भाग्य में यही लिखा था! और जरा सोचो, अगर उन्होंने तुम्हें घर से नहीं निकाला होता तो क्या आज तुम विजयगढ़ के राजा होते! भगवान जो करता है, अच्छे के लिये ही करता है सुरेश…! अपने पिता का एहसान मानो कि उन्होंने तुम्हें घर से निकाला!”
बात सुरेश की समझ में आ गई!
सुरेश अपने कुछ विश्वस्त साथियों के साथ घोड़े पर सवार होकर पाटलिपुत्र पहुँचा, किन्तु अपने घर के सामने पहुँच वह स्तब्ध रह गया! वह घर बिल्कुल खण्डहर नज़र आ रहा था और उसकी दशा बता रही थी, कभी वह बुरी तरह जल गया होगा!
उसने एक पड़ोसी से पूछा -“इस घर में रहने वाले लोग कहाँ हैं?”
“सेठ धनीराम के बारे में पूछ रहे हो?” पड़ोसी ने पूछा!
“हाँ…!”
“कई बरस पहले उनके बेटे नरेश ने उन्हें मारपीट कर घर है निकाल दिया था, लेकिन अगले ही दिन भयंकर मूसलाधार बारिश हुई और इस पूरे घर पर बिजली गिर पड़ी और सारे घर में आग लग गयी! नरेश उसी आग में जलकर मर गया!”
“और सेठ धनीराम का क्या हुआ?” सुरेश ने पूछा!
“वह पास के मन्दिर के बाहर बैठे भीख माँगते हैं!” पड़ोसी ने बताया!
जब सुरेश पड़ोसी के बताये मन्दिर तक पहुँचा तो यह देख उसके दिल को धक्का सा लगा कि उनका शरीर लकड़ी की घुन लगी खपच्ची जैसा जर्जर हो चुका था! उनके सारे शरीर पर मक्खी और मच्छर भिनभिना रहे थे और फटे-चिथड़े वस्त्रों में उनकी दशा बता रही थी कि वह वर्षों से नहाये भी नहीं होंगे!
“पिताजी, मैं हूँ सुरेश…! आपने कहा था न, अब मुझे अपना मुंह तभी दिखाना, जब हज़ार स्वर्ण मुद्राएं तेरे पास हों तो आज मैं हज़ार स्वर्ण मुद्राएं लेकर आया हूँ!” सुरेश ने अपने पिता को झकझोरते हुए कहा!
धनीराम ने आंखें खोलकर सुरेश को देखा और बोला – “तू आ गया! अच्छा किया! मगर मुझे मालूम है – मैंने तुझ पर गलत आरोप लगाकर पीटा था! चोरी नरेश ने की थी!”
“अब मैं आपको अपने साथ ले जाऊँगा पिताजी और हम सब सुख से रहेंगे!” सुरेश बोला और वह झुककर अपने पिता को गोद में उठाने लगा!
“मुझे उठा कर अपने हाथ गन्दे मत कर बेटा! वैसे भी मैं जा रहा हूँ! बस, तुझे देखने की चाह में एक सांस अटकी हुई थी… !” कहते-कहते धनीराम ने बेटे की बाहों में दम तोड़ दिया!
सुरेश अपने पिता के शव को अपने साथ विजयगढ़ ले गया, जहाँ उसने समस्त रीति रिवाजों सहित सम्मानपूर्वक अपने पिता का दाह संस्कार किया! उसके बाद सुरेश विजयगढ़ का राजा बन, अपने धर्म पिता गंगाराम, माता यशोदा और पत्नी तथा ससुर विजयसिंह के साथ सुखपूर्वक रहने लगा!
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याद रहे – बुरे काम का सदैव बुरा नतीजा होता है और अच्छे इन्सानों की भगवान भी हमेशा मदद करते हैं!