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मुश्किलों का साथी- शिक्षाप्रद कथा

“एक-दो-तीन-चार…….।” जयंतीलाल पाँच-पाँच सौ के नोटों की गिनती कर रहा था। तीस की संख्या पर वह रुक गया।

गड्डी के बाकी नोट अपनी पत्नी सुहासिनी को पकड़ाते हुए बोला -“ये बाकी पच्चीस हज़ार सम्भालकर रख ले। बहुत सारा उधार चुकाना है। पर पहले रविपाल के पैसे दे आऊँ। हमारी जरूरत पर उसने एक मिनट भी नहीं लगाया – नब्बे हज़ार देने में। बाबू जी की ज़िन्दगी उसी की मदद से बच सकी है। उसने इकट्ठे नब्बे हज़ार दिये और मैंने हर महीने पन्द्रह-पन्द्रह हज़ार करके लौटाये हैं। आज यह छठी किश्त दे आऊँ तो समझूँ गंगा नहा लिया।”

“पैसे तो आज तुम पूरे चुका दोगे, लेकिन उनका एहसान तो मरते दम तक नहीं उतारा जा सकता ।” सुहासिनी ने पति के हाथों से बाकी के पच्चीस हज़ार लेते हुए कहा। 

“सही कह रही है तू।” जयंतीलाल ने कहा -“हमारे लिये तो भगवान का काम किया था उसने। बल्कि भगवान से बढ़कर। भगवान से माँगो तो पता नहीं कब देता है वो! रविपाल ने तो एक सेकेण्ड नहीं लगाया, निकालकर – नब्बे हज़ार हाथ पर रख दिये।”

“आज आख़िरी किश्त देकर भी, बार-बार धन्यवाद करना, नहीं भूलना।” सुहासिनी बोली। 

“पागल हुई है।” जयंतीलाल बोला -“मैं तो उस आदमी के पैर भी छू लूँ, पर बचपन का दोस्त  है। देगा कनपटी पे एक हाथ कि तबियत हरी हो जायेगी।”  

रविपाल जयंतीलाल के साथ-साथ खेला, बड़ा हुआ था। सिर्फ एक बात में दोनों समान थे, वह यह कि जयंतीलाल एक साधारण मिडिल क्लास परिवार का इकलौता चश्मेचिराग था, जबकि रविपाल एक खानदानी रईस करोड़पति परिवार की एकमात्र सन्तान।

सिर्फ अपने-अपने परिवार में इकलौता होने की समानता के अलावा दोनों में कुछ भी साम्य न था। जयंतीलाल दबे रंग का पतला-दुबला छोटे कद का इंसान था, जबकि रविपाल बेहद गोरा-चिट्टा फिल्म स्टार जैसी खूबसूरती का छह फुटा डैशिंग स्मार्ट नौजवान।  

वह दिसंबर की सर्दियों के तीसरे रविवार की एक सुहानी सुबह थी। 

लगभग दस बजे का समय था, जब रविपाल अपने काफी बड़े ड्राइंग हॉल की एक सोफाचेयर पर बैठा एक हाथ में चाय का कप थामे, चाय की चुस्कियाँ लेते हुए – दूसरे हाथ में थमे अखबार की हेडलाइन्स पर नज़र डाल रहा था। ड्राइंग हॉल का मुहाना पूरब की ओर पड़ता था, इसलिये उसकी पारदर्शी शीशों की खिड़कियों से धूप छन-छनकर भीतर आ रही थी। 

चाय का कप खाली हो गया तो सेन्टर टेबल के मज़बूत शीशदार टॉप पर कप रखते हुए रविपाल ने पत्नी को आवाज़ लगाई -“दिव्या जी, अजी  सुनती हो ?”

“कहिये रवि बाबू ? चाय और चाहिए क्या ?” दिव्या ने ड्राइंग हॉल से सटे किचेन की छोटी विन्डो से झाँककर पूछा। 

“हाँ यार, एक कप और मिल जाये तो भगवान तुम्हारा भला करे।” रविपाल ने अखबार सेन्टर टेबल पर रख दिया। 

“आज फिर कोई दुःख भरी खबर पढ़ ली क्या ?” दिव्या ने खनकती हँसी बिखेर, किचेन से ही पूछा। 

“हाँ यार, लिखा है – पिता के इलाज़ के लिये पर्याप्त धन न होने की वजह से एक चौबीस वर्ष के नौजवान ने आत्महत्या कर ली।” रविपाल ने गहरी साँस ली। 

“काश, वह मदद के लिये तुम्हारे पास आ जाता।” दिव्या ने चुटकी ली। 

“नहीं आ सकता था। खबर नागपुर की है और हम दिल्ली में हैं।” रविपाल ने कहा। 

“एक बात बोलूँ रवि बाबू ….।” दिव्या ने कहा। 

“हाँ, बोलो।”

“तुम हैना, अखबार पढ़ना बन्द ही कर दो। जब भी अखबार में कोई दुःख भरी खबर पढ़ लेते हो दुखी हो जाते हो और तब हमेशा तुम्हें चाय का दूसरा कप चाहिये होता है।”

“क्या करूँ – दुखी दिल को दिव्या जी की चाय से ही सुकून मिलता है।” 

“ठीक है, बनाती हूँ चाय। पर  रवि बाबू – आज जब मन्दिर जाओ, भगवान से कहना तुम्हें एक नाज़ुक से दिल वाली नारी बना दे और मुझे पत्थरदिल पुरूष। जोड़ी हमारी तब भी यही रहेगी।”

रविपाल हँस दिया।  पति-पत्नी दोनों में बड़ी अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी। दोनों खुशमिज़ाज़ थे, लेकिन रविपाल कुछ ज्यादा ही भावुक इन्सान था। आजकल शायद ऐसे इन्सान भगवान के कारखाने से निकलने बन्द हो गये हैं । 

रविपाल हमेशा अपनी पत्नी को ‘दिव्याजी’ कहता था और दिव्या उसे ‘रवि बाबू’।       

वार्तालाप रुकते ही रविपाल फिर से आज का अखबार उठाने ही वाला था कि उसकी आठ वर्षीय इकलौती बेटी सुरीली आँखें मलती हुई ड्राइंग हॉल में आई और जल्दी से पिता की गोद में बैठ गयी।  

“मैं भी चाय पियूँगी।” पिता के गले में अपनी दोनों बाहें डालते हुए वह बोली। 

“बुरी बात….बच्चे चाय नहीं,  दूध पीते हैं।” रविपाल सुरीली के गाल चूमते हुए बोला। 

“नहीं, फिर मैंने चॉकलेट खानी है।”

“गन्दी बात। सुबह-सुबह चॉकलेट नहीं खाते। जाइये, पहले ब्रश करके आइये। फ्रेश होकर आइये। फिर मम्मी आपको अण्डा, ब्रेड और दूध देगी।” रविपाल ने कहा। 

सुरीली पापा की गोद से उतर वाशरूम की दिशा में चल दी। रविपाल के घर में इन्ट्री का पहला कमरा, ड्राइंग हॉल ही था। किचेन, डाइनिंग रूम, रीडिंग रूम, बेडरूम, सब पीछे थे। बाहर से आने वाले हर शख्स का प्रवेश ड्राइंग हॉल में ही होता था। 

जयंतीलाल के कदम जब ड्राइंग हॉल में पड़े, रविपाल ने सेन्टर टेबल से दोबारा अख़बार उठा लिया था। 

“गुड मॉर्निंग रवि।” जयंतीलाल की आवाज़ सुनते ही रविपाल ने चौंककर मुख्यद्वार की ओर देखा और पत्नी को जोर से हाँक लगाई -“दिव्या जी, चाय का पानी एक कप बढ़ा देना। जय आया है।” रविपाल जयंतीलाल को ‘जय’ के संक्षिप्त नाम से पुकारता था। 

जयंतीलाल करीब आकर रविपाल के साथ पडी सोफाचेयर पर ही पसर गया। 

फिर उसने अपनी जेब में हाथ डाला ही था कि रविपाल ने पूछ लिया -“बाबूजी कैसे हैं ?”

“अच्छे हैं। तुझे हमेशा याद करते  हैं। किसी रोज़ आ ना, घर पर।  भाभी और सुरीली को लेकर।” जयंतीलाल ने जेब से नोटों का बण्डल निकालकर रविपाल की ओर बढ़ा दिया -“ये ले, आख़िरी पन्द्रह हज़ार। तेरे दिये कर्ज़े की आखिरी किश्त।”

“बेवकूफ। तूने फिर क़र्ज़ शब्द का प्रयोग किया। मैंने तुझे पहले भी बताया था कि मैंने अपने यार की मदद की थी। कोई क़र्ज़ नहीं दिया था।” रविपाल जयंतीलाल से रुपये लेकर वहीं सेन्टर टेबल पर रखते हुए बोला। 

“एक ही बात है।” जयंतीलाल मुस्कुराया -“पर यार, तूने जो ऐन मुश्किल के समय मेरी मदद की, उसका एहसान तो मैं मरते दम तक नहीं भूलूँगा।” 

“कर दी न, दिल तोड़ने वाली बात।” रविपाल ने हाथ बढ़ाकर एक चपत जयंतीलाल की गुद्दी पर रसीद की -“पगले, यारी-दोस्ती में एहसान, सॉरी, थैंक्यू जैसे शब्द एवॉयड करते हैं।”

तभी दिव्या एक ट्रे में चाय के दो कप लेकर आई और जयंतीलाल से बोली -“भाई साहब, आलू का परांठा खायें तो आपके लिये बना दूँ l ये तो रविवार के दिन देर से उठते हैं तो देर से नहाते हैं। देर से मन्दिर जाते हैं। देर से नाश्ता करते हैं।”

“भाई, हफ्ते का एक यही वार तो अपना वार है। रवि का रविवार।” रविपाल जयंतीलाल की ओर  देखते हुए बोला -“बाकी दिन तो वही ऑफिस, वही काम, वही सिरखपाई।”

“नहीं भाभी, मैं घर से हैवी नाश्ता करके चला हूँ।” जयंतीलाल चाय का कप उठाते हुए दिव्या से सम्बोधित हुआ।    

रविपाल एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। गुरुग्राम की एक कम्पनी में काम करता था। सैलरी डेढ़ लाख रुपये महीने से अधिक ही बैठती थी। पैतृक जायदाद करोड़ों की थी। अपनी बेहद शानदार कोठी के अलावा छह चार मंज़िला मकान थे, जिनसे चार लाख से अधिक मासिक किराया आता था। एक बहुत बड़ा डेली नीड स्टोर था, जिसे रविपाल का दूर के रिश्ते का एक भाई चलाता था और रविपाल के घर का सारा सामान घर पर और स्टोर के प्रॉफिट का एक बड़ा हिस्सा हर महीने उसके बैंक एकाउंट में आ जाता था।  

रविपाल को कोई ऐब नहीं था। ना सिगरेट, ना शराब, ना फिल्मों का। स्वभाव का घुमक्कड़ था और दिल का बहुत कोमल। अपनों के ही नहीं, परायों के दुखों से भी अक्सर बहुत दुखी हो जाता था। कभी किसी को किसी मदद की जरूरत हो और वह रविपाल के पास आ गया तो कभी खाली हाथ वापस नहीं गया। ऐसा सोने का दिल था रविपाल का। 

रविपाल और जयंतीलाल चाय पी ही रहे थे कि तभी रविपाल के यहाँ काम करनेवाली बाई सिमरन ड्राइंग हॉल में दाखिल हुई। 

“आज बड़ी देर कर दी सिमरन।” रविपाल उसे देखते ही बोला। 

“भैया जी, कल रात बिट्टी को देखने लड़के वाले आये थे। पास की ही कॉलोनी से आये थे। रिश्ता पक्का हो गया तो उनका खाना-वाना किये। फिर उन्हें विदा किये और सोते-सोते रात के बारह बज़ गये। बहुत ज्यादा थके हुए थे तो सुबह आँख भी देर से खुली। इसलिये देर हो गयी।” अधेड़ उम्र की सिमरन धाराप्रवाह बोलती चली गयी। बिट्टी सिमरन की बड़ी लड़की का प्यार का नाम था।

“लड़की कितने साल की है तेरी ?” रविपाल ने पूछा। 

“अठारह की हो गयी भैया जी।”

“कितना पढ़ाया है उसे ?”

“दसवीं तक पढ़ी है भैयाजी।”

“तो और पढ़ाना चाहिये न।”

“पढ़ने में कमज़ोर रही है भैयाजी, इसलिये सोचा,  शादी कर देते हैं। ब्याह के बाद अपना घर सम्भालेगी। दूसरी लड़की पढ़ने में बहुत तेज़ है। वो आठवीं में है। हमेशा फर्स्ट आती है। उसे जितना चाहेगी, पढ़ाऊँगी।” सिमरन ने कहा। 

“ठीक है। दिव्या किचेन में है। वहीं जाकर उससे काम पूछ ले।” रविपाल ने कहा। 

“जी ….।” सिमरन धीरे से बोली,  मगर वहीं खड़ी रही। 

“क्या हुआ ? अब खड़ी क्यों है ?” रविपाल ने पूछा। 

“एक काम था भैया जी।” कहते हुए सिमरन ने जयंतीलाल की ओर देखा। 

“बोल–बोल…।” रविपाल ने सिमरन की झिझक को समझ, जयंतीलाल की ओर सिर घुमाया -“यह अपना ही भाई है, इसकी शरम मत कर।”

“वो क्या है भैयाजी, बिट्टी के पापा कह रहे हैं – शादी अगले महीने ही करनी है तो कुछ पैसा मिल जाता  तो ……….।  मैं थोड़ा-थोड़ा करके सब उतार दूँगी।” सिमरन ने कहा। 

” ठीक है।” रविपाल सहज सरलता से सेन्टर टेबल पड़े नोटों की ओर संकेत करके बोला -“ये पन्द्रह हज़ार रख ले। और जरूरत हो तो दिव्या दे देगी।”

“भगवान आपका धन, दिन दूना, रात चौगुना बढ़ाये भैयाजी।” नोटों की गड्डी उठाते हुए सिमरन बोली। उसकी आँखों से आँसू आ गये थे। जयंतीलाल को रविपाल का एक मामूली काम वाली बाई को, उसके दिये पन्द्रह हज़ार पकड़ा देना अच्छा तो नहीं लगा,  लेकिन इससे पहले वह दबे स्वर में कुछ कहता, रविपाल सोफाचेयर से उठते हुए बोला -“जय, तू बैठ। मैं नहाकर आता हूँ।” 

“नहीं यार, अभी मैं भी चलूँगा। अगले रविवार को आऊँगा। तब ज़रा जमके बैठेंगे और पुरानी यादें ताज़ा करेंगे।  दो चार शतरंज की बाज़ी भी लड़ायेंगे।” जयंतीलाल भी चाय का कप खाली कर, सेन्टर टेबल पर रख उठ खड़ा हुआ। 

और वायदे के अनुसार अगले रविवार जयन्तीलाल रविपाल के घर पहुँचा।  इस बार वह कुछ देर से ही पहुँचा था।  जानता था – रविवार रविपाल का वार है और  आज के दिन वह देर से उठता है। देर से नहाता है। देर से नाश्ता करता है। मतलब यह कि हर काम देर से करता है। 

तो अगले रविवार जब जयंतीलाल देर से रविपाल के घर आया,  रविपाल हर नित्यकर्म से निपट चुका था, लेकिन उसके पहुँचने से पहले ही तीन लोग वहीं सोफे पर बैठे थे और रविपाल के सामने चमड़े का एक बैग रखा था तथा रविपाल उनमें से पाँच सौ की एक गड्डी निकाल रहा था। गड्डी निकालकर, रविपाल ने उनमें से गिनकर, कुछ नोटों की एक पतली गड्डी अलग की।  फिर नोटों की पतली गड्डी एक शख्स की ओर बढ़ाते हुए बोला -“पच्चीस हज़ार से तुम्हारा काम चल जायेगा महेश ?” 

“जी…..। नर्सिंग होम का बिल बीस-इक्कीस हज़ार से ज्यादा नहीं है।” महेश ने नोटों की गड्डी थामते हुए कहा। 

“ठीक है। तुम चलो।” 

महेश उम्र में रविपाल से बड़ा था।  नोट जेब में रख दोनों हाथ जोड़े-जोड़े पलट गया। 

तब तक जयंतीलाल भी निकट पहुँच रविपाल के निकटस्थ सोफे पर बैठ गया था।  रविपाल ने जयंतीलाल से हाथ मिलाया। फिर विनम्र भाव में बोला -“ज़रा इनकी समस्या का भी समाधान कर दूँ।”

“जरूर-जरूर।” जयंतीलाल ने कहा, लेकिन आज का माहौल उसे बड़ा अटपटा-सा लग रहा था।

रविपाल अब सामने बैठे कॉलेज के लड़के जैसे शख्स से बोला -“देखो अमित, ढंग का कोई भी नया लैपटॉप चालीस हज़ार से कम का नहीं होगा। तुम्हें मैं पचास हज़ार दे रहा हूँ। उम्मीद है हमेशा की तरह पढ़ाई में अव्वल रहोगे।” 

“जी भैया।” अमित ने तुरन्त आगे बढ़, रविपाल के पैर छू लिये। रविपाल हँसा -“भाई, पैर छू रहे हो तो ठीक से छुओ। तुम तो बहुत छोटे हो मुझसे। छू सकते हो।’ 

अमित ने एक बार फिर अच्छी तरह झुककर रविपाल के पैर छू लिये। रविपाल ने जोर से धप्प-धप्प कर, उसकी पीठ थपथपाई और आशीर्वाद दिया -“भगवान तुम्हें इतना समर्थ बनाये कि घर के आगे हमेशा मदद माँगने वालों की लाइन लगी रहे।” 

अमित को हँसी आ गयी। साथ बैठा अधेड़ उम्र का तीसरा व्यक्ति भी हँस दिया, किन्तु जयंतीलाल को ज़रा भी हँसी नहीं आई। उसे लग रहा था कि ये सब लोग रविपाल को लूट रहे हैं। उसे बेवकूफ बना रहे हैं और चूँकि वह रविपाल का पक्का और सच्चा दोस्त था। दोस्त के लुटने का उसे सख्त अफ़सोस भी हो रहा था और गुस्सा भी आ रहा था।

रविपाल ने सामने रखे चमड़े के बैग से दो हज़ार के नोटों की एक गड्डी निकाली और उसमें से पच्चीस नोट गिनकर अलग किये और अमित के हवाले करते हुए कहा- “पूरे पच्चीस नोट हैं। यानी पचास हज़ार ! गिन ले। पैसे हमेशा गिनकर लेने चाहिये और गिनकर ही देने चाहिये।”

“थैंक यू भैया।” गिनकर नोट जेब में रखते हुए अमित ने कहा -“नौकरी लगते ही सबसे पहले मैं आपका यह कर्ज़ा चुकाऊँगा।”

“पहले ठीक से पढ़ाई तो पूरी कर ले बेटा।” रविपाल ने फिर एक हाथ अमित के कन्धे पर ठोका और बोला -“और यह कर्ज़ा नहीं है मेरे भाई।  भाई पर भाई का उपकार है। पैसा तो तू नौकरी लगते ही चुका देगा, लेकिन उपकार चुकाना हो तो जीवन में हमेशा जरूरतमन्दों की मदद अवश्य करना। ” “जी भैया।” अमित ने कहा और एक बार फिर रविपाल के पैर छूकर पलट गया। 

अब रविपाल तीसरे और अधेड़ शख्स की और घूमा-“चाचा जी, आपकी छत की मरम्मत के लिये तीस हज़ार काफी रहेंगे?” 

“हाँ बेटा। और कम रहे तो तेरे से फिर माँग लूँगा।” कहते हुए चाचाजी हँस दिये। रविपाल भी हँस दिया, लेकिन जयंतीलाल का खून खौलने लगा था। वह पूछ ही बैठा -“छत की मरम्मत की ऐसी क्या जरूरत आ पडी चाचा जी को..?” 

“परसों की तेज़ मूसलाधार बारिश में छत से धाड़-धाड़ पानी घर में आ गया। सब बिस्तर-गद्दे-तकिये-कपडे भीग गये। चाचाजी के दोनों लड़के कनाडा में हैं। उनके आने का या उनकी तरफ से पैसा आने का इन्तज़ार नहीं किया जा सकता। छत की मरम्मत तो चाचाजी को ही करानी पड़ेगी।” रविपाल ने दो-दो हज़ार के पन्द्रह नोट निकालकर कथित ‘चाचाजी’ की ओर बढ़ा दिये।  

सब लोगों के जाते ही जयंतीलाल रविपाल पर भड़क उठा-“तू पागल तो नहीं हो गया। हर किसी टुच्चे-मुच्चे पर यूँ ही पैसे लुटा रहा है। इनकी हालत देख रहा है। पैसे वापस भी कर सकेंगे यह। और किसी से भी तूने एक कागज़ पर साइन भी नहीं करवाये।”

“साइन तो मैंने तुझसे भी नहीं करवाये थे जय। और तुझे तो पूरे नब्बे हज़ार दिये थे।” रविपाल ने सहज मुस्कान के साथ जयंतीलाल के चेहरे पर नज़र गड़ा दी।

“मेरी बात और है। मैं तेरा बचपन का दोस्त हूँ। स्कूल कॉलेज में साथ-साथ पढ़े हैं। फिर मैं अच्छी नौकरी कर रहा हूँ। महीने में चालीस हज़ार की पगार पाता हूँ। थोड़े-थोड़े करके किसी से लिये लाख-दो लाख भी चुकाना मेरे लिये मामूली बात है। लेकिन इनमें से कोई ऐसी हैसियत रखता हो। मुझे नहीं लगता। बल्कि पिछली बार मैं जब आया था, तब तूने अपनी कामवाली बाई को एक झटके से पन्द्रह हज़ार दे दिये। ऊपर से कह रहा था और और जरूरत हो तो दिव्या दे देगी। मुझे ताज़्ज़ुब है – भाभी भी तेरे जैसी ही पागल है क्या ? रोकती नहीं तुझे ?”

रविपाल हँसा। बड़े जोर से हँसा।  फिर बोला -“तेरी भाभी मुझसे भी बड़ी पागल है। एक मल्टीनेशनल कम्पनी में टॉप के ओहदे पर है। लगभग एक करोड़ सालाना का पैकेज है, जबकि मेरी सैलरी लगभग डेढ़ लाख महीना बैठती है। हमारी जरूरतें बहुत बड़ी-बड़ी नहीं हैं। दो वक्त की रोटी, खाने-पीने- घूमने और सभी तरह की जरूरतें पूरी करने के बाद भी बहुत कुछ बच जाता है। ऐसे में पिताजी जो धन-दौलत छोड़ गये हैं। उससे अगर मैं कुछ लोगों की मुश्किलें आसान कर देता हूँ। किसी की मदद कर देता हूँ तो मैं नहीं समझता, कुछ गलत करता हूँ।”     

“गलत तो नहीं करता, लेकिन मेरे दोस्त, यह दुनिया उतनी अच्छी नहीं है, जितना तू खुद है।  सच बता – यह जो तू हर किसी की खुले दिल से मदद कर पडता है, क्या उन सभी से तुझे हमेशा दिया गया पैसा वापस मिला है। क्या किसी ने कभी तेरा पैसा नहीं मारा ?”

“मैंने ऐसा कोई हिसाब नहीं रखा। हाँ, मैं इतना जानता हूँ कि मैंने जब भी जिसकी मदद की, उसीकी की, जिसे वाकई मदद की जरूरत थी। उसकी नहीं जो चरस या गांजा पीने के लिये मुझे ठगने आया था। हाँ, जिनकी मैंने मदद की, उनमें से किसी ने अगर मेरा पैसा जानबूझकर नीयत खराब होने के कारण वापस नहीं किया तो यह भी गारन्टी है कि वह दोबारा पैसा माँगना तो दूर मेरे सामने भी नहीं पड़ा। जय, हम इस दुनिया में कुछ साथ लेकर नहीं आये और जाते हुए कुछ साथ लेकर भी नहीं जायेंगे। सब कुछ यहीं का यहीं धरा रह जायेगा तो जो कुछ भी हमारे पास है, उसे किसी  भले काम में, किसी की भलाई में लगाने में क्या हर्ज़ है ?”

“तू पागल है। निरा पागल है। पैसे का महत्त्व नहीं समझता। तुझसे माथापच्ची करना बेकार है।” जयंतीलाल ने कहा। 

“आप सही कहते हैं भाईसाहब।” तभी दिव्या चाय और समोसे व मिठाई की ट्रे लिये वहां आई -“आपके दोस्त जैसे भी हैं। दिल के हीरा हैं। पैसे से तो इन्हें ज़रा भी मोह नहीं है। जब से मेरी इनसे शादी हुई है। हज़ारों बार दूसरों की मुश्किल आसान करते देखा है। कई बार तो सड़क पर कोई अनजान बूढ़ा ज्यादा वज़न लिये चल रहा हो तो ये उसे अपनी कार में बैठा, उसे उसके घर तक छोड़ आते हैं। ये नहीं बदल सकते, इसलिए जैसे हैं, वैसा ही रहने दीजिये।” 

जयंतीलाल गहरी सांस लेकर रह गया। फिर उसने कोई  बात नहीं की।

वक्त पंख लगाकर उड़ता रहा। समय बीतता रहा। छह महीने बीत गये। एक दिन जयंतीलाल अपने ऑफिस से छुट्टी होने पर निकलने वाला ही था कि पत्नी सुहासिनी का फ़ोन आया -“सुनते हो, दिव्या का फोन आया था। बहुत रो रही थी। रविपाल भाई साहब का एक्सीडेंट हो गया। उनके ऑफिस के किसी कुलीग ने दिव्या के ऑफिस फ़ोन करके उसे बताया – खून बहुत बह गया है। खून की जरूरत पड़ेगी। गुरुग्राम के प्रतीक्षा हॉस्पिटल में है। तुम फ़ौरन वहां पहुँचो।”    

जयंतीलाल ने अपनी बाइक आंधी तूफ़ान की तरह गुरुग्राम की ओर दौड़ा दी। इतने कीमती दोस्त को वह किसी भी कीमत पर नहीं खो सकता। उसके लिये तो वह अपना सारा खून भी दे देगा।  

अस्पताल पहुँचते ही बाहर बेशुमार भीड़ नज़र आई। उस भीड़ में बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे थे। भीड़ में ही उसे परवेज़ अहमद और सरदार सुरेन्द्र सिंह सोढ़ी मिल गये। 

“तुम लोग यहाँ ?” वह चौंका। दोनों बचपन और जवानी के साथी थे। 

“हाँ, बचपन में साथ स्कूल में पढ़े। फिर कॉलेज में और अब रविपाल के साथ एक ही ऑफिस में काम करते हैं।” परवेज़ अहमद बोला। 

“रवि कहाँ है ? क्या हुआ उसे ?” जयंतीलाल दोस्त का हाल जानने के लिये पागल और बदहवास हो रहा था। 

“आईसीयू में है। पर अब खतरे से बाहर है।” सरदार सुरेन्द्र सिंह सोढ़ी ने कहा। 

“उसके लिये तो शायद खून की जरूरत थी।” जयंतीलाल ने कहा।

“ये इतनी सारी भीड़ देख रहा है। सब उसी के लिये है। जिसे भी हमने खबर की। खुद तो भागता हुआ आया ही, साथ में और भी कई लोगों को लेकर आया कि खून कम नहीं पड़ना चाहिये। कितने ही लोग खून दे चुके हैं और कितने रो रहे हैं कि हमारा खून भी ले लो ? भीड़ में जाकर देख, रोनेवालों को, और उन्हें भी जो आँखें मूँद, भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं – सबकी मुसीबतों में काम आने वाला, सबकी मुश्किलों का साथी मरना नहीं चाहिये। ऐसा आदमी दुनिया में बार-बार नहीं आता। दिव्या भाभी और सुरीली भी आ चुकी हैं। बहुत से रिश्तेदार भी आ रहे हैं।” परवेज़ अहमद ने कहा। कहते-कहते उसकी आँखें भी भीग गयी थीं।

“बाबू जी…..बाबूजी।” तभी जयंतीलाल को एक महीन आवाज़ अपने निकट सुनाई दी। चौंककर देखा – सिमरन थी। वह गरीब अपने पति, बेटी और दामाद सभी के साथ आई थी और उससे पूछ रही थी -“भैयाजी के लिये हम सब अपना खून देने आये हैं। खून देने कहाँ पर जाना होगा ?”

सिमरन और उसके परिवार को  वहाँ देख जयंतीलाल के दिल और दिमाग को झटका  सा लगा। आज वह समझ गया था कि उसके दोस्त ने बहुत सारा रुपया ही नहीं, बेशुमार इन्सान भी कमाये हैं, जो कि सिर्फ सुख दुःख की चिन्ता करने वाले दोस्त ही नहीं हैं, रविपाल के लिये जान देने का ज़ज़्बा और सब कुछ कुर्बान कर देने का हौसला रखने वाले,  साधारण, किन्तु हिम्मती लोग भी हैं!