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शिक्षाप्रद कथाएँ (1569)

एक राजा था| उस पर उसके दुश्मन ने हमला किया| राजा हार गया और अपने राज्य से भागकर एक गुफा में जा छिपा| अपना राज्य पाने की उसे कोई आशा न रही| गुफा में बैठा वह बीते दिनों की याद करता और बेचैन होता|

कंचनपुर के निकट घने जंगल में एक धूर्त साधु वेशधारी रहता था| कंचनपुर का जागीदार रामप्रताप उसकी खूब सेवा किया करता था| साधु वेशधारी पर उसका अटूट विश्वास था|

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर सावरकर जब अंडमान जेल में थे, तब उनके पास न कलम थी और न कागज। उनके सृजनशील मानस में कई विचार उठते किंतु उन्हें लिपिबद्ध कैसे करें? एक दिन ऐसे ही वे एकांत कोठरी में बैठे सोच में डूबे थे कि उन्हें इस समस्या का समाधान सूझ गया।

मृतात्मा की सद्गति हेतु पिण्डदानादि श्रद्धा कर्म अत्यन्त आवश्यक हैं| पुन्नामक नरक से पिता को बचाने के कारण ही आत्मज पुत्र कहा जाता है| पुत्र का मुख देखकर पिता पैतृक ऋण से छूट जाता है और पौत्र के स्पर्शमात्र से यमलोक आदि का उल्लंघन कर जाता है|

एक फकीर था| वह भीख मांगकर अपनी गुजर-बसर किया करता था| भीख मांगते-मांगते वह बूढ़ा हो गया| उसकी आंखों से कम दिखने लगा| एक दिन भीख मांगते हुए वह एक जगह पहुंचा और आवाज लगाई| किसी ने कहा – “आगे बढ़ो! यह ऐसे आदमी का घर नहीं है, जो तुम्हें कुछ दे सकें|”

रामसुख और मनसुख दो जमींदार घनिष्ठ मित्र थे| जब मनसुख की पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया तो रामसुख बोला…

एक साधु व डाकू यमलोक पहुंचे। डाकू ने यमराज से दंड मांगा और साधु ने स्वर्ग की सुख-सुविधाएं। यमराज ने डाकू को साधु की सेवा करने का दंड दिया। साधु तैयार नहीं हुआ। यम ने साधु से कहा- तुम्हारा तप अभी अधूरा है।

इस सृष्टि से पूर्वसृष्टि की बात है| जाम्बवती श्रीसोम की पुत्री थी| श्रीसोम श्री विष्णु की सेवा में लगे रहते थे| उनकी पुत्री जाम्बवती भी पिता का अनुशरण करती थी|

किसी नगर में गंगा के किनारे एक बूढ़ा आदमी रहता था| उसने अपनी छोटी-सी झोंपड़ी बना ली थी और एक कछुआ पाल रखा था| वह दोपहर को रोटी मांगने जाता तो कुछ चने भी ले आता और उन्हें भिगोकर कछुए को खिला देता|

एक बार पंडित परमसुख को दानस्वरूप एक बछड़ा मिला| उसने बछड़े का नाम ‘नंदीश्वर’ रखा और प्यार से लालन-पोषण करके उसे तंदुरुस्त बैल बना दिया| बैल भी परमसुख का काफ़ी ख्याल रखता था क्योंकि उसने उसे पिता समान प्यार दिया था|

सतपुड़ा के वन प्रांत में अनेक प्रकार के वृक्ष में दो वृक्ष सन्निकट थे। एक सरल-सीधा चंदन का वृक्ष था दूसरा टेढ़ा-मेढ़ा पलाश का वृक्ष था। पलाश पर फूल थे। उसकी शोभा से वन भी शोभित था। चंदन का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार सरल तथा पलाश का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार वक्र और कुटिल था, पर थे दोनों पड़ोसी व मित्र। यद्यपि दोनों भिन्न स्वभाव के थे। परंतु दोनों का जन्म एक ही स्थान पर साथ ही हुआ था। अत: दोनों सखा थे।

विदर्भ देश में श्वेत नामक राजा राज्य करते थे| वे सतर्क होकर राज्य का संचालन करते थे| उनके राज्य में प्रजा सुखी थी| कुछ दिनों के बाद राजा के मन में वैराग्य हो आया| तब वे अपने भाई को राज्य सौंपकर वन में तपस्या करने चले गये|

पुराने जमाने की बात है| एक आदमी चोरी के अपराध में पकड़ा गया| उसे राजा के सामने पेश किया गया| उन दिनों चोरों को फांसी की सजा दी जाती थी| अपराध सिद्ध हो जाने पर इस आदमी को भी फांसी की सजा मिली|

बसंतपुर में बढ़इयों का एक मुहल्ला था| बढ़ई रोज नावों से नदी पार करके जंगल में जाते और अपने काम के लिए लकड़ी काटकर लाते थे| उसी गाँव में दो मित्र मोहन और रामू रहा करते थे| गाँव से जंगल और जंगल से गाँव आना-जाना उनका नियम था| काम की कमी न थी|

सुकरात को जहर दिए जाने के एक दिन पहले उनके मित्र व शिष्य उनसे मिलने पहुंचे। उनके शिष्य क्रेटो ने कहा कि हम आपको यहां से भगाने आए हैं। पर सुकरात किसी कीमत पर भी भागने को तैयार नहीं हुए।

प्राचीन काल में हरिकेश नाम से विख्यात एक सौन्दर्यशाली यक्ष हुआ था, जो पूर्णभद्र का पुत्र था| हरिकेश महाप्रतापी, ब्राह्मण भक्त एवं धर्मात्मा था| जन्म से ही उसकी शंकरजी में प्रगाढ़ भक्ति थी|

दो मित्र थे, एक का नाम था अशोक और दूसरे का नाम पुनीत| एक दिन अशोक ने पुनीत को अपने घर खाना खाने बुलाया| उसने तरह-तरह की बढिया चीजें बनवाईं| पूड़ी-कचौड़ी, खीर आदि-आदि| जब दोनों खाना खा चुके तो अशोक ने पूछा – “पुनीत, खाना कैसा लगा?”

दुर्गापुर के निकट जंगल में कुछ बटेरें रहती थी| उसी जंगल में हाथियों का समूह भी चरने आया करता था| एक बुद्धिमान और न्यायप्रिय हाथी उस समूह का मुखिया था|

माहिष्मती के राजा कार्तवीर्य के सौ पुत्र थे| उनमें शूर, शूरसेन, कृष्ण, धृष्ण और जयध्वज नाम के पाँच पुत्र महारथी और मनस्वी थे| इनमें प्रथम चार रूद्र के भक्त एवं पाँचवाँ जयध्वज नारायण का भक्त था|

उन दिनों शिवाजी मुगल सेना से बचने के लिए वेश बदलकर रहते थे। इसी क्रम में एक दिन शिवाजी एक दरिद्र ब्राrाण के घर रुके। ब्राrाण का नाम विनायक देव था। वह अपनी मां के साथ रहता था। विनायक भिक्षावृत्ति कर अपना जीवन-यापन करता था। अति निर्धनता के बावजूद उसने शिवाजी का यथाशक्ति सत्कार किया।

पुराने जमाने की बात है| अरब के लोगों में हातिमताई अपनी उदारता के लिए दूर-दूर तक मशहूर था| वह सबको खुले हाथों दान देता था| सब उसकी तारीफ करते थे|

एक दिन हिमालय की तराई में गज दंपति आपस में बातें कर रहे थे…

राजा दुर्जय सभी शास्त्रों में निष्णात हो चुके थे और शत्रुओं को भी जीत लिये थे, किंतु अपनी इन्द्रियों पर विजय नहीं प्राप्त कर सके थे| जो मन से हार जाय उस पराक्रमी को पराक्रमी कैसे कहा जा सकता है?

भगवान बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के लिए घोर तप में लगे थे। उन्होंने शरीर को काफी कष्ट दिया, यात्राएं कीं, घने जंगलों में कड़ी साधना की, पर आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन निराश हो बुद्ध सोचने लगे- मैंने अभी तक कुछ भी प्राप्त नहीं किया।

खुदीराम बोस भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे| 19 वर्ष की अवस्था में ही अंग्रेजों पर हमला पहला बम फेंककर, हाथ में भगवद् गीता लेकर ‘वंदे मातरम्’ का नारा लगाते हुए फाँसी का फंदा चूम लिया था|

बिल्मा गोल्डी रूडाल्फ के बचपन की घटना है जब वह अपंग थी| एक दिन उसने कक्षा में खेल-खिलाड़ियों के विषय में प्रश्न किया तो कक्षा के बच्चे खिल-खिलाकर हँस पड़े|

दो मित्र थे| वे बड़े ही बहादुर थे| उनमें से एक ने अपने बादशाह के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई| बादशाह बड़ा ही कठोर और बेरहम था| उसको जब मालूम हुआ तो उसने उस नौजवान को फांसी के तख्ते पर लटका देने की आज्ञा दी|

बहुत समय पहले की बात है- एक राजा ने अपनी सेना सहित किसी नगर के बाहर पड़ाव डाला| वहाँ पेड़ पर बैठा एक बंदर गौर से उनकी तमाम गतिविधियाँ देख रहा था|

सुदर्शनचक्र, जो भगवान् विष्णु का अमोघ अस्त्र है और जिसने देवताओं की रक्षा तथा राक्षसों के संहार में अतुलनीय भूमिका का निर्वाह किया है और करता है, क्या है और कैसे भगवान् विष्णु को प्राप्त हुआ-इसकी कथा इस प्रकार है-

राजा वीरसेन को संत-सत्संग अतिप्रिय था। उनके दरबार में प्राय: दूर-दूर से साधु-संत आते थे और वीरसेन उन्हें यथोचित सम्मान देकर उनसे ज्ञान की बातें ग्रहण करते थे। एक दिन उनके राज्य की सीमा पर एक विख्यात संत ने डेरा डाला। राजा वीरसेन को पता चला तो वे स्वयं उसका सत्कार करने पहुंचे।