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सुदर्शनचक्र-प्राप्ति की कथा

सुदर्शनचक्र, जो भगवान् विष्णु का अमोघ अस्त्र है और जिसने देवताओं की रक्षा तथा राक्षसों के संहार में अतुलनीय भूमिका का निर्वाह किया है और करता है, क्या है और कैसे भगवान् विष्णु को प्राप्त हुआ-इसकी कथा इस प्रकार है-

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प्राचीन काल में वेद-वेदांग में पारंगत एक गृहस्थ ब्राह्मण थे, जिनका नाम था ‘वितमन्यु’| उनकी पतिव्रता एवं धर्मशीला के नाम से प्रसिद्ध थीं| उन दम्पत्ति के पुत्र का नाम था उपमन्यु| यह ब्राह्मण-परिवार दरिद्रता से इस प्रकार जर्जरित था कि धर्मशीला अपने पुत्र को दूध भी न्हिंदे सकतीं थीं| वह बालक दूध के स्वाद से पूर्णतया अनभिज्ञ था| धर्मशीला उसे चावल का धोवन ही दूध कहकर पिलाया करती थी| एक दिन ऋषि वीतमन्यु अपने पुत्र के साथ कहीं प्रीतिभोज में गये| वहाँ उस तपस्वी बालक उपमन्यु ने दूध से बनी हुई खीर का भोजन किया, तब उसे दूध के स्वाद का पता लग गया| घर आकर उसने चावल के धोवन को पीने से इनकार कर दिया| दूध पाने के लिए हठ पर अड़े बालक से उसकी माँ धर्मशीला ने आँसुओं से भरी आँखों से उसे देखते हुए कहा-‘पुत्र! यदि तुम दूध को क्या, उससे भी अधिक पुष्टिकारक तथा स्वादयुक्त पेय पीना चाहते हो तो विरूपाक्ष महादेव की सेवा करो| उनकी कृपा से दूध को कौन कहे, अमृत भी प्राप्त हो सकता है|’ उपमन्यु ने अपनी माँ से पूछा-‘माता! आप जिन विरूपाक्ष भगवान् की सेवा-पूजा करने को कह रही हैं, वे कौन हैं?’ धर्मशीला ने विरूपाक्ष भगवान् की कथा कहते हुए अपने पुत्र को बताया कि ‘प्राचीन काल में श्रीदाम नाम से विख्यात एक महान् असुरराज था| उसने सारे संसार की अपने अधीन करके लक्ष्मी को भी अपने वश में कर लिए| उसके यश और प्रताप से तीनों लोक श्रीहीन हो गये| उसका मन इतना बढ़ गया कि भगवान्  विष्णु के श्रीवत्स को छीन लेने की योजना बनाने लगा| उस महाबलशाली असुर की इस दूषित मनोभावना को जानकर उसे मारने की इच्छा से भगवान् विष्णु महेश्वर के पास गये| उस समय योगमूर्ति महेश्वर हिमालय की ऊँची चोटी पर योगमग्न थे| तब भगवान् विष्णु जगन्नाथ के पास जाकर एक हजार वर्ष तक पैर के अँगूठे पर खड़े रहकर परमब्रम्ह की उपासना करते रहे|

भगवान् विष्णु की इस कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उन्हें सुदर्शनचक्र प्रदान किया| उन्होंने सुदर्शनचक्र को देते हुए भगवान् विष्णु से कहा-‘देवेश! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह अरों, छः नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश करने वाला है| सज्जनों की रक्षा करने के लिये इसके अरों में देवता, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, हनुमान, धन्वन्तरि, तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के बारह महीने प्रतिष्ठित हैं| विभो! आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें|’

शिवजी की यह बात सुनकर भगवान् विष्णु ने कहा-‘शम्भो! मुझे यह कैसे मालूम होगा कि यह अस्त्र अमोघ है? विभो! यदि यह अस्त्र आपको प्रभावित के सके तो मैं इसे अमोघ और निरन्तर गतिशील मानूँगा| यदि आप आज्ञा दें तो इसकी परीक्षा करने के लिये मैं इसका प्रयोग आप पर ही करूँ|’

शिवजी ने कहा-‘यदि आप ऐसा सोचते हैं तो आप निश्चिन्त होकर इसे मेरे ऊपर चलाइये और इसकी परीक्षा कर लीजिये|’

भगवान्विष्णु ने जब सुदर्शनचक्र का प्रयोग शिव जी पर किया तो अजर-अमर शिवजी भी भी तीन खण्डों में कट गये| इन तीन खण्डों के नाम पड़े-विश्ववेश, यज्ञेश तथा यज्ञयाजक| शिवजी को तीन खण्डों में कटा देखकर भगवान् विष्णु लज्जित हो गये और वे बार-बार सदाशिव को प्रणाम करने लगे| भगवान् विष्णु की यह दशा देखकर सदाशिव बोले-‘महाबाहो!’ चक्र की नेमिद्वारा मेरा यह प्राकृत विकार ही कटा गया है| मैं और मेरा स्वभाव तो क्षत नहीं हुआ| यह तो सर्वथा अच्छेद्य तथा अदाह्वा है ही|केशव! आज से मेरा एक अंश हिरण्याक्ष, दूसरा सुवर्णाक्ष और तीसरा विरूपाक्ष के नाम से जाना जायगा| ये मेरे तीनों अंश आराधना से महान् पुण्य प्रदान करने वाले होंगे| विभो! आप उठे और उस असुर का वध कर डालें|’ तब भगवान् विष्णु ने उस सुदर्शन चक्र से असुर श्रीदामा को युद्ध में परास्त करके मार डाला|’

यह सुनकर वीतमन्यु के बलवान् और तेजस्वी पुत्र उपमन्यु ने भी भगवान् शिव के एक रूप विरूपाक्ष की उपासना करके अपना अभीष्ट प्राप्त किया|

कालातीत सत्ता से उत्पन्न और प्राप्त सुदर्शन महाकाल का एक प्रसाद-एक प्रतीक है, जो अत्यन्त गतिशील और अमोघ है| देवता, दानव और मनुष्य, चर और अचर सभी से अधिक शक्तिमान् वह चक्र आपातदृष्टि से देखने पर सुन्दर है और वही भगवान् हरिका परम आयुध है|

संत के उ