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आँखों वाला अंधा

चित्रनगर में वीरवर नामक एक रथकार रहता था| वह सीधा-सादा और व्यवहार-कुशल था| वह जितना भोला था, उसकी पत्नी कामदमनी उतनी ही दुष्ट और चरित्रहीन थी| उसकी दुष्टता के चर्चे हर किसी की जुबान पर थे| वीरवर पत्नी के दुराचरण से बहुत दुखी था|

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वीरवर की पत्नी कामदमनी कभी भी रंगे हाथों पकड़ी नही गई थी| इसलिए वह स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने में सफल हो जाती थी| आखिरकार वीरवर ने काफ़ी सोच-विचार करने के बाद उसे रंगे हाथों पकड़ने की योजना बनाई| उस योजना के अनुसार एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा- ‘प्रिये! मुझे पास के ही गाँव में एक सप्ताह के लिए काम मिला है| अतः मेरे खाने के लिए कुछ मीठा-नमकीन तैयार कर दो|’

‘स्वामी! तुम्हारे बिना मैं अकेली कैसे रह पाऊँगी?’ अपने अंतर्मन की खुशी को छिपाते हुए कामदमनी ने पति से अलगाव का दुख दर्शाने का अभिनय किया और लम्बे समय तक खराब न होनेवाली खाने की चीजें तैयार करने में जुट गई|

अगले दिन प्रातःकाल वीरवर के प्रस्थान करते ही उसने अपने प्रेमी देवदत को ख़बर भिजवा दी कि वह शाम होते ही घर पर आ जाए| उधर रथकार वीरवर ने सारा दिन वन में इधर-उधर भटकते हुए गुजार दिया और शाम होते ही पिछले द्वार से घर में घुस गया और पलंग के नीचे छिपकर बैठ गया|

देवदत के आते ही कामदमनी का चेहरा खिल उठा| उसे पलंग पर बैठाया और स्वयं दरवाजा अंदर से बंद करने चली गई| सांकल बंद करके जैसे ही वह पलंग पर अपने प्रेमी के पास बैठने लगी कि उसका पाँव नीचे छिपकर बैठे वीरवर से जा टकराया| धूर्त कामदमनी को भनक लग गई और वह एकदम संभल गई| उसका प्रेमी जैसे ही उसे छूने के लिए आगे बढ़ा, धूर्त कामदमनी ने चिल्लाते हुए कहा- ‘मुझ पतिव्रता स्त्री के शरीर को छूने का दुस्साहस न करना, अन्यथा अपने पतिव्रत धर्म की शक्ति से मैं अभी तुझको भस्म कर दूँगी|’

‘दुष्ट! यदि तू सती सावित्री है तो मुझे क्यों बुलाया था?’ देवदत बिगड़कर बोला|

‘यह सच है कि मैंने तुम्हें बुलाया था, इसकी वजह भी बताती हूँ| आज प्रातःकाल जब मैं देवी दर्शन के लिए मंदिर में गई तो लौटते वक्त मैंने देवी की यह वाणी सुनी- पुत्री! तुम मेरी भक्त और पतिव्रता स्त्री हो| इसलिए मैं तुम्हें वक्त से पहले ही बता रही हूँ कि तुम्हारे पति की आयु मात्र छह माह शेष रह गई है, उसके बाद तुम्हारे भाग्य में विधवा हो जाने का योग है| यह सुनते ही मैं विलाप करने लगी| देवी ने मुझे सांत्वना दी, लेकिन मेरा विलाप नही थमा| मैंने रोते-रोते देवी माँ से पूछा- माँ! क्या मेरे पति के प्राण बचाने का कोई उपाय नही है| देवी माँ मेरा रुदन देख द्रवित होकर बोली- पुत्री! उपाय तो है, परंतु तुम करोगी नही क्योंकि तुम सती-साध्वी हो| अतः मैं तुमसे परपुरुष का आलिंगन करने की बात कैसे कह सकती हूँ? यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम्हारे पति पर आया संकट उस पुरुष पर चला जाएगा| पति को दुख न पहुँचे इसलिए उन्हें कुछ भी नही बताया| स्वयं अंदर-ही-अंदर घुलती रही| मैं यह सोचकर परेशान थी कि परपुरुष का आलिंगन कैसे करूँ? अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा कैसे करूँ? परंतु मेरे लिए अपने पति का जीवन सर्वाधिक मूल्यवान है| अतः उनकी आयु बढ़ाने के लिए मैं तुम्हारा केवल एक बार आलिंगन करने को सहमत हुई हूँ|’ यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने का अभिनय करने लगी|

पलंग के नीचे छिपकर बैठा मुर्ख रथकार वीरवर अपनी दुष्ट पत्नी के कथन पर विश्वास करके पलंग के नीचे से बाहर निकल आया, और उससे बार-बार क्षमा याचना करने लगा| उसने कृतज्ञतावश अपनी पत्नी को उठाकर अपने एक कंधे पर बैठा लिया और उसके प्रेमी देवदत को भी अपना जीवनदाता मानकर उसे अपने दूसरे कंधे पर बैठा लिया| मुर्ख रथकार उन दोनों को कंधों पर उठाए इधर-उधर घूमता और नाचता रहा|


कथा-सार

पाप को प्रत्यक्ष रूप में देखकर भी उसे झूठे समाधान से, पुण्य समझने के भ्रम को पालना कभी उचित नही ठहराया जा सकता| ऐसा भ्रम तो मुर्ख और अज्ञानी व्यक्ति ही पालते है| वीरवर भी कुछ इसी प्रकार धोखा खा गया और कुटिल पत्नी को परपुरुष के संग देखकर भी उसे सती-साध्वी समझता रहा|