बुद्धिमान महामंत्री – शिक्षाप्रद कथा
राजा त्रिगुणसेन के राजमहल में बहुत से नौकर थे, उन में से दो नौकर उसे बहुत प्रिय थे – शीतलराम और झगड़ूराम। राजा के अपने व्यक्तिगत कक्ष की देख-रेख वही दोनों नौकर किया करते थे। झगड़ूराम का काम प्रतिदिन राजा के विशाल कक्ष के फर्श और दीवारों की सफाई का था, जबकि कक्ष में मौजूद पलंग, स्टूल, कुर्सियों और सजावट के सभी खूबसूरत सामानों की सफाई और उन्हें चमकाने का काम शीतल का था।
दोनों नौकर रोज़ दिल लगाकर काम करते थे। राजा का कक्ष रोज़ सफाई से चमकता और जगमगाता रहता था।
राजा उन्हें शीतल और झगड़ू कहकर ही पुकारता था। नाम के अनुरूप – शीतल बहुत ठण्डे स्वभाव का था, जबकि झगड़ू नामानुसार गुस्सैल और झगड़ालू था और न जाने क्यों राजा जब भी किसी काम के लिए शीतल की प्रशंसा करते तो वह बहुत ज्यादा चिढ जाता और शीतल को नीचा दिखाने की कोई न कोई तिकड़म सोचता रहता था, जबकि शीतल झगड़ू की अधिक उम्र के कारण उसे हमेशा ‘बड़े भाई’ कहकर सम्बोधित किया करता था।
शीतल और झगड़ू जब राजमहल में राजकक्ष की सफाई से निवृत्त होते तो वे दोनों ही राजदरबार में पहुँचकर राजसिंहासन के दोनों ओर खड़े होकर चँवर डुलाते थे, जोकि भाले के आकार का लकड़ी या लोहे का बना होता था, किन्तु उसके ऊपरी सिरे पर बहुत सारे सफ़ेद बालों का गुच्छा होता था, जिसे सफ़ेद भेड़ों के शरीर से मिले ऊन से बनाया जाता था। सेवकों द्वारा चँवर डुलाते रहने से राजा को मक्खी -मच्छर कभी परेशान नहीं करते थे।
राजा त्रिगुणसेन के महामंत्री विद्यासागर संस्कृत के प्रकांड पंडित और समस्त वेद-पुराणों के ज्ञाता थे। वह राज्य की न्याय व्यवस्था भी देखते थे और कभी किसी के साथ अन्याय नहीं होने देते थे। राजा त्रिगुणसेन महामंत्री का बड़ा आदर करते थे और कभी भी उनकी कोई बात नहीं टालते थे।
राजा के दोनों प्रिय सेवकों में से शीतल प्रतिदिन शाम के समय राजदरबार भंग होते ही महामंत्री विद्यासागर के घर के बाहर स्थित उद्यान में पहुँच जाता, जहाँ प्रतिदिन संध्या के समय महामंत्री अपने बहुत से शिष्यों को शिक्षा दिया करते थे। महामंत्री को राज्य में सभी लोग गुरुदेव कहा करते थे। महामंत्री जब तक अपने शिष्यों को पढ़ाते, शीतल वहीं उपस्थित रहता और उनकी सेवा में तत्पर रहता, इसलिए महामंत्री शीतल के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे।
एक दिन राजा के राजदरबार में एक युवा शिल्पी आया। वह विनम्र स्वर में राजा से बोला-“महाराज, मेरा नाम केशव है और मैं हिमालय की तराई में स्थित एक बहुत छोटे से गाँव में अपने बूढ़े माता-पिता के साथ रहता हूँ। मेरा परिवार बहुत गरीबी में दिन काट रहा है। मेरे पड़ोस में एक बहुत गुणी गायक-संगीतकार आत्माराम जी रहते हैं। कई वर्ष पहले एक बार वह आपके राजदरबार में आये थे, तब आपने उन्हें बहुत सारा धन दिया था। उन्होंने मुझसे कहा कि आप बड़े दयालू हैं। इसलिये अपनी गरीबी दूर करने के ध्येय से मैं बड़ी आशाओं के साथ आपके पास आया हूँ।”
राजा त्रिगुणसेन ने कहा -“केशव, मैं एक छोटे से प्रदेश का राजा हूँ। सारे विश्व की गरीबी मैं दूर नहीं कर सकता। इसलिये हर गरीब की गरीबी भी मैं दूर नहीं कर सकता। तुम जिन आत्माराम जी का जिक्र कर रहे हो। उन्होंने अपने मधुर गायन और अद्भुत संगीत द्वारा हमारी आत्मा प्रसन्न कर दी थी, इसलिये हमने प्रसन्न होकर उन्हें पुरूस्कार स्वरूप धन दिया था, यदि तुम में भी कोई ऐसा गुण है, जिससे तुम हमें प्रसन्न कर सको तो हम भी तुम्हें निराश नहीं करेंगे।”
“महाराज, मैं एक शिल्पी हूँ। मूर्तियाँ बनाता हूँ। मैं आपकी बड़ी खूबसूरत मूर्ति बना सकता हूँ। आप जैसी कहेंगे, वैसी मूर्ति बना सकता हूँ।” केशव ने कहा।
“तुम अपने साथ अपनी बनाई कुछ मूर्तियाँ तो लाये होंगे -हमें दिखाने के लिये ?” राजा त्रिगुणसेन ने प्रश्न किया।
“क्षमा चाहता हूँ महाराज। अपने घर से चलते समय मैं मिट्टी की पाँच मूर्तियाँ लेकर तो चला था, लेकिन ………….।” कहते-कहते केशव फफककर रोने लगा।
महामंत्री विद्यासागर भी उस समय राजदरबार में उपस्थित थे। उन्होंने तत्काल ही केशव से कहा -“रोवो मत केशव। तुम्हारे साथ जो भी हुआ, निस्संकोच और बिना भयभीत हुए, बताओ।”
केशव रोते हुए ही बोला -“महाराज, मैं बहुत दूर से पैदल ही आ रहा हूँ। मेरा घर यहाँ से लगभग चार सौ कोस दूर है। मेरे पास एक जोड़ी चप्पल भी नहीं थी, इसलिये मुझे पैदल ही चलना पड़ा। थोड़ी-थोड़ी देर सुस्ताते हुए, दिन रात पैदल चलते हुए मेरे पैरों में छाले पड़ गए, लेकिन मैंने चलना नहीं छोड़ा, लेकिन पेट की आग के आगे मैं हार गया महाराज। खुद को ज़िन्दा रखने के लिये मुझे एक-एक करके सारी मूर्तियाँ रास्ते में ही बेचनी पड़ीं, फिर भी आख़िरी पाँच दिनों से मैं बिलकुल भूखा हूँ। रास्ते में सिर्फ पानी पी-पीकर चलता रहा हूँ।”
शीतल और झगड़ू भी उस समय राजदरबार में मौजूद थे और राजसिंहासन के पीछे खड़े चंवर डुला रहे थे। राजा त्रिगुणसेन ने तत्काल ही झगड़ू से कहा -“झगड़ू ! तुम राजरसोई में जाकर केशव के लिये भोजन की व्यवस्था करो और शीतल, तुम केशव को अपने साथ हमारे अतिथिगृह में ठहराने का उचित प्रबन्ध करो।” फिर वह केशव से बोले -“केशव, आज तुम हमारे अतिथिगृह में भोजन और विश्राम करो। कल से तुम हमें अपनी शिल्पकला का कौशल दिखाना ? यदि तुम्हारी कला ने हमें प्रसन्न किया तो हम भी तुम्हें अति प्रसन्न करके ही यहाँ से वापस भेजेंगे।”
अगले दिन प्रातः काल स्नानादि नित्य कार्यों से निवृत हो, सुबह का कलेवा अर्थात नाश्ता करने के बाद, राजा त्रिगुणसेन के बुलाने पर केशव नंगे पाँव ही राजदरबार में पहुँचा।”
“शिल्पकार केशव !” राजा त्रिगुणसेन ने केशव से कहा -“आज तुम्हें अपनी निपुणता का जौहर दिखाना होगा। हम चाहते हैं – तुम हमारे राजकक्ष की सजावट के लिये घुड़सवारी करते हुए हमारी तीन छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाओ। एक में हम दोनों हाथों से घोड़े की लगाम थामे हों। दूसरी मूर्ति में हमने एक हाथ से लगाम थाम रखी हो और हमारे एक हाथ में तलवार हो, तीसरी मूर्ति में हम एक हाथ से लगाम थामे हों और हमारे एक हाथ में भाला हो। तीनों मूर्तियों में तीन अलग-अलग घोड़े हों। एक में घोड़े का रंग सफ़ेद हो, दूसरी में घोड़ा भूरे रंग का हो और तीसरी मूर्ति में घोड़े का रंग काला होना चाहिये। मूर्ति बनाने के लिये तुम्हें जैसी मिट्टी और रंग चाहिये, तुम महामंत्री विद्यासागर को बता दो। वे तुम्हारी माँगी, हर वस्तु का आज ही प्रबन्ध करवा देंगे। कल से तुम्हें मूर्ति बनाने का कार्य आरम्भ करना होगा और अगले तीन दिन में तीनों मूर्तियाँ तैयार करनी होंगी। कर सकोगे ?” “
“अवश्य कर सकूँगा!” केशव पूर्ण विश्वास से बोला!
“तो ठीक है…! जब मूर्तियाँ तैयार हो जायें, तभी आप राजदरबार में आइयेगा!” राजा त्रिगुणसेन ने गम्भीर स्वर में कहा – “हाँ, आप हमें जितनी देर चाहें देख सकते हैं! आप हमारी मूर्ति बनायें, इसके लिये हम बहुत ज्यादा देर तक आपके सामने नहीं बैठेंगे!”
केशव ने कुछ क्षण तक बड़े गौर से राजा त्रिगुणसेन को देखा, फिर बहुत इत्मीनान से बोला-“मैंने आपको भली-भाँति देख लिया है और इसके बाद मैं आपको बिना देखे ही आपकी मूर्ति बना सकता हूँ!”
उस रोज उसी समय राजदरबार भंग कर दिया गया!
और फिर वह दिन भी आ गया, जब तीनों मूर्तियाँ लेकर केशव को राजदरबार में उपस्थित होना था!
निश्चित समय पर केशव लकड़ी के रंग-बिरंगे तख्ते पर तीनों मूर्तियाँ सजाकर लेकर आया!
राजा त्रिगुणसेन ने ही नहीं, राजदरबार में उपस्थित सभी मंत्रीगणों, सभासदों, उपस्थित विशिष्ट महानुभावों और सभी सेवकों ने आश्चर्यचकित होकर वे तीनों मूर्तियाँ देखीं!
मूर्तियाँ सचमुच बेहद खूबसूरत थीं! कोई भी मूर्ति आकार में एक फुट से बड़ी नहीं थी, तीनों मूर्तियों में घोड़े और राजा की आकृति एकदम वास्तविक सी लग रही थी!
हर दरबारी, मंत्री और समस्त विद्वानों और सेवकों ने भी मूर्तियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की!
राजा त्रिगुणसेन अपने सिंहासन से उठे और उन्होंने बीच दरबार में केशव के निकट पहुँच उसे सीने से लगा लिया और गदगद स्वर में बोले-“अनोखे शिल्पकार, तुमने हमारा मन सचमुच प्रसन्न कर दिया, अब हमारी बारी है! कहो, तुम्हें प्रसन्न करने के लिये हम क्या कर सकते हैं?”
केशव सिर झुका, अत्यन्त दीन स्वर में बोला- “महाराज, बस, इतनी दया हो जाये कि गरीबी के जिस जंजाल में मैं अपने बूढ़े माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने में भी असमर्थ हो रहा हूँ! अभी भी अपने माता- पिता की देखभाल का जिम्मा कुछ सहृदय पड़ोसियों को सौंप कर आया हूँ! पर मन हर पल वहीं है! सोचता हूँ – रोज उन्हें खाना पानी ठीक से मिल रहा होगा या नहीं! महाराज, जो सन्तान अपने माता -पिता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह न कर सके, उसका जीवन एक मृत व्यक्ति के समान है और मैं अपने माता- पिता का श्रेष्ठ पुत्र कहलाना चाहता हूँ! उन्हें समस्त तीर्थों का भ्रमण करवाना चाहता हूँ और अपनी इसी आस को पूर्ण करने के लिये हिमालय की तराई के एक छोटे से गाँव से कोसों दूर आपके यहाँ आया हूँ! आप इस गरीब को जो भी देंगे! वही मुझ पर आपका उपकार होगा!”
अपने माता पिता के प्रति केशव के उद्गारों ने राजा त्रिगुणसेन का ह्रदय जीत लिया! उन्होंने चार शक्तिशाली घोड़ों से जुता एक सुन्दर रथ और ढेर सारा धन और राजसी वस्त्र आदि केशव को प्रदान किये और बहुत सम्मान के साथ उसे यह कहते हुए अपने राज्य से विदा किया कि “इस रथ पर तुम अपने माता पिता को समस्त तीर्थस्थलों और चारों धाम की यात्रा करवा सकते हो!”
शिल्पकार केशव जो नंगे पाँव हिमालय की तराई से राजा त्रिगुणसेन के राज्य में आया था, बड़ी शान के साथ वहाँ से विदा हुआ!
उसके जाने के बाद राजा त्रिगुणसेन ने उन तीनों मूर्तियों को अपने प्रिय सेवक शीतलराम के हवाले किया और उससे बोले- “शीतल, ये तीनों मूर्तियाँ, समझ लो, हमें प्राणों से भी प्यारी हैं! सुदूर पर्वतीय क्षेत्र से आने वाले अद्भुत शिल्पकार कलाकार केशव ने इनमें प्राण फूंक रखे हैं! इन तीनों मूर्तियाँ को हमारे विश्रामकक्ष में इस तरह प्रतिष्ठित करो कि सोते-जागते हर पल यह हमारी तथा हमारी महारानी की दृष्टि के सामने रहें! और प्रतिदिन इनकी देख रेख की सम्पूर्ण जिम्मेदारी तुम्हारी है ! हमें किसी भी दिन इस पर जरा सी भी धूल मिट्टी नहीं दिखाई देनी चाहिये!”
शीतल ने वैसा ही किया, जैसा राजा त्रिगुणसेन चाहते थे और वह प्रतिदिन उन तीनों मूर्तियों की देखभाल पूरे मनोयोग से करने लगा!
दिन पर दिन बीतते गये!
राजा त्रिगुणसेन प्रत्येक दिन उन तीनों मूर्तियों को कुछ देर तक उनके सामने खड़ा होकर अवश्य देखता था! मूर्ति उसे रोज़ नयी जैसी ही दिखाई देती थीं, इससे उसकी खुशी और अधिक बढ़ जाती थी!
मूर्तियों की अच्छी देख रेख से प्रसन्न होकर, एक दिन राजा त्रिगुणसेन ने सोने की एक मुद्रा पुरुस्कार स्वरूप दे दी!
झगड़ू ने जब यह देखा तो उसके तन-बदन में आग लग गई!
उसके मन में आया कि कुछ ऐसा किया जाये, जिससे शीतलराम राजा की नजरों से गिर जाये!
कुछ दिन बाद ही झगड़ू को इसका अवसर मिल भी गया! राजा त्रिगुणसेन हर माह के आखिरी रविवार को आखेट के लिये जंगल की ओर अवश्य जाते थे! उस दिन राजा त्रिगुणसेन शीतल को सुबह दो घण्टे के बाद ही छुट्टी दे दिया करते थे, लेकिन झगड़ू को नहीं देते थे, क्योंकि अपने साथ वह हमेशा झगड़ू को ही ले जाते थे, इसका कारण यह था कि झगड़ू शरीर से भी बहुत तगड़ा था और बहुत ही अचूक निशानेबाज भी था!
शीतल से जले-भुने झगड़ू ने शीतल के जाने के बाद, शिल्पकार केशव द्वारा बनाई गई तीनों मूर्तियों में से एक मूर्ति तोड़ कर वहीं राजकक्ष में नीचे फर्श पर डाल दी। फिर वह सीधा राजा त्रिगुणसेन के निकट पहुँचा और बोला -“महाराज, शिल्पकार केशव की बनाई तीनों मूर्तियों में से एक सम्भवतः शीतलराम से टूट गयी है। टूटी मूर्ति फर्श पर पडी है। आपकी आज्ञा हो तो फर्श साफ़ कर दूँ ?”
राजा त्रिगुणसेन आखेट पर जाने के लिये तैयार हो चुके थे, पास के जंगल में उन दिनों एक आदमखोर शेर ने बड़ा उत्पात मचा रखा था और राजा त्रिगुणसेन जंगल के समीप की बस्तियों के निवासियों को वचन दे चुके थे कि आज वह शेर के आतंक से बस्तीवासियों को मुक्ति दिलाकर रहेंगे। ऐसे ओजस्वी मूड में अचानक अपनी प्रिय मूर्तियों में से एक के टूटने के समाचार से राजा त्रिगुणसेन आगबबूला हो उठे और वह शीघ्रतापूर्वक अपने कक्ष में पहुँचे।
मूर्ति बहुत सारे छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त हो चुकी थी। उसकी दुर्दशा देखकर राजा त्रिगुणसेन ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि वे तत्काल शीतलराम को गिरफ्तार करके कारागार में बंद कर दें। संध्याकाल में जब वह आखेट से लौटेंगे, तब शीतलराम को उसके अपराध का दण्ड देंगे।
इसके बाद राजा त्रिगुणसेन झगड़ू के साथ घोड़ों पर सवार होकर आखेट पर निकल गये।
लेकिन कुटिल बुध्दि झगड़ू तो यह चाहता था कि महाराज शीतल को मृत्युदण्ड दे दें, जिससे भविष्य में केवल वही महाराज का प्रिय सेवक रह जायेगा। और शीतल के विरुद्ध महाराज को भड़काने के लिये उसने पहले से योजना तैयार कर रखी थी। जंगल के रास्ते में वह बोला -“मूर्ति टूटने के अपशगुन से मेरा दिल बहुत घबरा रहा है महाराज। कहीं शीतल आपके किन्हीं शत्रुओं से न मिल गया हो और उसने टोना-टोटका करवाकर मूर्ति तोड़ी हो। मुझे आपके लिये बहुत डर लग रहा है महाराज। कहीं आज आपके साथ कोई दुर्घटना न हो जाये।”
झगड़ू की बात से घबराकर राजा त्रिगुणसेन ने तत्काल अपना घोड़ा रोक दिया और सोच-विचार में डूब गये। कुछ देर सोचने के बाद वह गम्भीर स्वर में बोले -“नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। शीतल वर्षों से हमारा सेवक है। वह हमारे शत्रुओं से कदापि नहीं मिल सकता।” और यह कहकर राजा त्रिगुणसेन ने जैसे ही घोड़ा कुछ आगे बढ़ाया, झगड़ू ने पहले से अपने एक हाथ में छिपाई एक मोटी सूई घोड़े के पिछवाड़े में चुभा दी।
राजा त्रिगुणसेन का घोड़ा बिदककर बड़ी जोर से उछला।
राजा त्रिगुणसेन के हाथ से लगाम छूट गयी और वह उछलकर घोड़े से नीचे से जा गिरे। गिरते-गिरते घोड़े की एक लात भी उनकी कमर पर पडी और जंगल के रास्ते की पथरीली ज़मीन से उनका सिर टकराया, जिससे वह बेहोश हो गये।
झगड़ू तो चाहता यही था। वह तत्काल अपने घोड़े से नीचे उतरा और उसने राजा त्रिगुणसेन के घोड़े की लगाम थामकर, घोड़े पर काबू पाया और
फिर राजा त्रिगुणसेन को उनके घोड़े पर लादा और स्वयं अपने घोड़े पर सवार हो दोनों घोड़ों की लगाम थामे वापस राजमहल पहुँच गया।
राजा त्रिगुणसेन को मूर्च्छित अवस्था में देख, राजमहल में हंगामा मच गया। राजा के परिवार के सभी लोग तथा सभी सेवक-सेविकाएँ एकत्रित हो गये। आनन-फानन में राजवैद्य को बुलवाया गया।
राजवैद्य आये और उन्होंने राजा त्रिगुणसेन की चोटों पर मरहम लगाया तथा एक विशेष प्रकार का इत्र सुंघाकर होश में लाये। होश में आने पर सभी लोगों ने राजा त्रिगुणसेन को बताया कि चोट लगने के कारण बेहोश हो जाने पर, उन्हें उनका विश्वासपात्र सेवक झगड़ू ही जंगली जानवरों से बचाकर राजमहल लाया है तो राजा त्रिगुणसेन ने झगड़ू से कहा -“कल राजदरबार में तुम्हारे इनाम और शीतल की सज़ा का फैसला सुनाया जायेगा।”
उधर कारागार में बन्द शीतल समझ ही नहीं पा रहा था कि उसे क्यों गिरफ्तार किया गया है। उसने तो कोई अपराध किया ही नहीं है।
बुद्धिमान महामंत्री विद्यासागर को राजाज्ञा से शीतल को गिरफ्तार किये जाने का समाचार शाम को मिला तो वह शीतल से मिलने कारागार पहुँचे। सैनिकों से उन्हें शीतल को गिरफ्तार किये जाने की वजह मालूम हुई तो उन्होंने शीतल से पूछा -“तुमने शिल्पकार केशव की बनाई बहुमूल्य मूर्ति क्यों तोड़ी?”
“गुरुदेव, मैंने मूर्ति नहीं तोड़ी, मैं निरपराध हूँ।” राजदण्ड के भय से शीतल रोते हुए बोला। महामंत्री बहुत अनुभवी और विद्वान थे। उन्होंने शीतल की आँखों में झाँका। उसकी आँखों में उन्हें सच्चाई नज़र आई तो उन्होंने पूछा -“क्या तुम साबित कर सकते हो कि तुम निरपराध हो…?”
“नहीं गुरुदेव।” शीतल ने धीरे से कहा।
“ठीक है। कल महाराज निश्चय ही तुम्हें मृत्युदण्ड देंगे। तब तुम्हें क्या करना है, यह मैं तुम्हें बताता हूँ।” और महामंत्री विद्यासागर ने शीतल के कानों में खुसर-फुसर कर उसे कुछ समझाया।
अगले दिन राजदरबार लगा तो राजसैनिक हथकड़ी और बेड़ियों में बन्धे शीतल को वहाँ लाये। शीतल को देखते ही राजा त्रिगुणसेन को याद आ गया कि शीतल ने उनकी मूर्ति तोड़ी है तो वह कठोर स्वर में बोले -“दुष्ट सेवक, हमने तुझ पर सदैव दया-ममता लुटाई और तूने हमारे शत्रुओं से मिल, हमें मारने के लिये टोना-टोटका कर हमारी मूर्ति तोड़ दी। तू हमारे प्राण लेना चाहता था, शायद तू अपने उद्देश्य में सफल भी हो जाता, किन्तु हमारे स्वामीभक्त सेवक झगड़ू ने हमारे प्राणों की रक्षा की। तुझ जैसे नराधम को इस संसार में रहने का कोई अधिकार नहीं है। हम तुझे मृत्युदण्ड देते हैं। हमारे यहाँ की रीत है। मृत्युदण्ड पाये अपराधी की अन्तिम इच्छा अवश्य पूरी की जाती है। तेरी कोई अन्तिम इच्छा हो तो बता। हम तेरी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे।”
“मेरी इच्छा बहुत छोटी सी है महाराज। मैं मरने से पहले उन शिल्पकार केशव की बनाई अन्य दोनों मूर्तियों को एक बार हाथ में लेकर देखना चाहता हूँ।” शीतल ने कहा।
“तेरी यह इच्छा है तो अजीब, किन्तु हम तेरी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे।” इतना कहकर राजा त्रिगुणसेन ने झगड़ू को राजकक्ष से साबुत बची बाकी दोनों मूर्ति लेकर आने को कहा। झगड़ू ने दोनों मूर्तियाँ जैसे ही लाकर शीतल को दीं तो उसने हाथ में लेते ही दोनों मूर्तियाँ नीचे गिरा दीं। गिरते ही एक मूर्ति दो टुकड़ों में और एक मूर्ति तीन टुकड़ों में विभक्त हो गयी।
“यह तूने क्या किया मूर्ख ?” राजा त्रिगुणसेन जोर से चिल्लाया!
“कुछ नहीं महाराज, आप मुझ निरपराध को दण्ड दे रहे थे, जिसके कारण आपको जो पाप लगना था, मैंने उस पाप से आपको बचाने के लिए बाकी दोनों मूर्तियाँ भी तोड़ दीं! इन मूर्तियों को तोड़ कर मैंने भविष्य में मरने वाले दो व्यक्तियों के प्राणों की रक्षा की है!” शीतलराम ठण्डे स्वर में बोला-“आपने शिल्पकार केशव से सोने- चांदी की मूर्तियाँ नहीं बनवायीं, मिट्टी की मूर्तियाँ बनवाईं, जो कि भविष्य में किसी न किसी के हाथों अवश्य टूटतीं तो आप उन्हें अवश्य ही मृत्युदण्ड देते और मृत्युदण्ड देते हुए इस बात पर भी विचार नहीं करते कि जिसे आप मृत्युदण्ड दे रहे हैं, उसने जीवन भर आपकी कितनी सेवा की है!”
“तुम्हारा मतलब है – राज कक्ष में जो मूर्ति टूटी थी, वो तुमने नहीं तोड़ी थी? और तुम निरपराध भी हो?” राजा त्रिगुणसेन ने शीतल से पूछा!
“जी महाराज…!”
“लेकिन मूर्ति तो टूटी थी और राज कक्ष में उसके बहुत सारे टुकड़े हमने अपनी आँखों से देखे थे!” राजा त्रिगुणसेन ने कहा -“और राज कक्ष में केवल तुम और झगड़ू ही जाते हो तो… ” कहते कहते राजा त्रिगुणसेन की निगाहें संकुचित हो उठीं! उन्होंने झगड़ू की ओर देखा। तभी महामंत्री विद्यासागर गम्भीर स्वर में झगड़ू से बोले-“झगड़ू अभी अभी शीतल ने गिराकर जो मूर्तियाँ तोड़ी हैं! उनके सिर्फ दो और तीन टुकड़े हुए हैं, जबकि राज कक्ष में जो मूर्ति तोड़ी गई थी, उसके बहुत सारे टुकड़े थे, जैसे उसे पटक कर तोड़ा गया हो और ऐसा काम तुम्हारे अलावा और कोई नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने अन्य सेवकों से पूछताछ करके जाना है कि जब राजकक्ष से मूर्ति टूटने की आवाज़ बाहर के गलियारों तक पहुँची थी, तब तक शीतल राजमहल से दूर मेरे यहाँ आ चुका था।”
झगड़ू का चेहरा फक्क पड़ गया। अचानक वह राजा त्रिगुणसेन के पैरों पर गिरकर फुट-फूटकर रोने लगा -“मुझे क्षमा कर दीजिये महाराज। मैं शीतल से ईर्ष्या करने लगा था।”
“नहीं।” राजा त्रिगुणसेन कठोर स्वर में बोले -“तुम न केवल राजद्रोही हो, बल्कि मित्रद्रोही भी हो। तुम्हें दण्ड अवश्य मिलेगा।” इसी के साथ राजा त्रिगुणसेन ने सैनिकों को आदेश दिया -“झगड़ू को गिरफ्तार करके कारागार में डाल दो और शीतल को छोड़ दो।”
शीतल को बंधनमुक्त कर दिया गया तो राजा त्रिगुणसेन ने कहा -“शीतल, हमारी बाकी दोनों मूर्तियाँ भी तोड़ देने का सुझाव तुम्हें किसने दिया था ? तुम स्वयं हरगिज़ भी इतने बुद्धिमान नहीं हो सकते।”
शीतल की निगाहें महामंत्री विद्यासागर की तरफ घूमी तो राजा त्रिगुणसेन मुस्कुरा दिये और बोले -“आप धन्य हैं महामंत्री। आप जैसे बुद्धिमान महामंत्री के होते हुए हम कभी किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकते ।”