सेवकों का गर्व दमन (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि अपने कहलाने वाले भक्तों एवं सेवकों में जो अभिमान और दुर्गुण प्रवेश कर दिए गए हैं उन्हें अवश्य दूर करना चाहिए| अतः प्रिय भक्त हनुमान जी को अपनी लीला के माध्यम से अपने पास बुलाने का निश्चय किया| भगवान श्रीकृष्ण के निश्चय करने मात्र से ही प्रियभक्त हनुमान जी द्वारका के निकट ही एक उपवन में विराजमान हो गए और भगवन्नाम का संकीर्तन करते हुए वृक्षों की डालियां तोड़ने, पेड़ हिलाने और फलों को खाने लगे|
भगवान श्रीकृष्ण ने सत्यभामा के लिए पारिजात हरण किया था, अतः सत्यभामा के मन में यह गर्व रहता था कि भगवान का सर्वाधिक स्नेह केवल मुझ पर ही है| क्योंकि मैं सर्वश्रेष्ठ सुंदरी हूं| अपने सौन्दर्य के गर्व में उन्होंने एक बार भगवान से कह दिया कि क्या जानकी मुझसे अधिक सुंदर थीं, जो उनके लिए आप घने जंगलों में भटकते फिरे और विलाप करते रहे| यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मौन रहे|
सत्यभामा की तरह सुदर्शन चक्र भी यह गर्व किया करते थे कि मैंने ही देवराज इंद्र के वज्र को पराजित किया था और गरुड़ भी इसी प्रकार मन में यह सोचा करते थे कि मेरे ही सहयोग से भगवान श्रीकृष्ण इंद्र पर विजय प्राप्त कर सके थे| श्रीकृष्ण ने विचार किया कि ये सब अपने होकर गर्व करें, यह मुझे सहय नहीं है| इन सेवकों के गर्व का दमन किया जाना नितांत अपेक्षित है|
भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड़ को आदेश दिया – “गरुड़! द्वारका के उपवन में एक बंदर है, उसे पकड़कर मेरे पास शीघ्र ले आओ| उस बंदर को पकड़कर लाने का साहस यदि तुममें हो तो अकेले ही जाओ, नहीं तो अपने साथ सैनिकों को भी लेते जाओ|”
गरुड़ अपने मन में सोचने लगे, ‘भगवान मुझे एक साधारण बंदर पकड़कर लाने के लिए भेज रहे हैं, दूसरी ओर यह भी कह रहे हैं कि यदि उस बंदर को अकेले न पकड़ सको तो साथ में सैनिकों को लेते आओ| यह मेरे लिए बड़ी ही लज्जा की बात है|’
यह सोचकर गरुड़ अकेले ही उपवन में गए| वहां उन्होंने देखा कि हनुमान जी उनकी ओर पीठ करके फल खाते जा रहे हैं और राम नाम का कीर्तन भी करते जा रहे हैं| पहले तो गरुड़ जी ने हनुमान जी को डरा-धमकाकर ले जाने का प्रयास किया| परंतु जब हनुमान जी पर इसका लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा, तब गरुड़ ने उन पर आक्रमण कर दिया| पहले तो छोटे-मोटे पक्षियों की तरह उनके साथ खेलते और मुस्कुराते रहे, परंतु गरुड़ जब न माने तब हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेटकर जरा-सा कस दिया| गरुड़ छटपटाने लगे, फिर उन्होंने अपने आने का कारण बताते हुए कहा – “मैं भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से यहां आपको बुलाने आया हूं|”
यह सुनकर हनुमान जी ने गरुड़ को छोड़ दिया और कहा – “राम एवं कृष्ण में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं| फिर भी मैं तो सीतानाथ भगवान श्रीराम का पक्षधर होने के कारण श्रीकृष्ण के पास जाना उचित नहीं समझता हूं|”
अभी गरुड़ का गर्व समाप्त नहीं हुआ था| वे सोचने लगे, ‘यदि मैं पकड़ न लिया गया होता तो हनुमान जी को बलपूर्वक ले जा सकता था|’ यह सोचकर गरुड़ ने दूसरी बार हनुमान जी पर आक्रमण किया| भगवान श्रीकृष्ण का दूत जानकार हनुमान जी ने उन पर जोर से प्रहार नहीं किया, बल्कि हल्के हाथ से पकड़कर उनको समुद्र की ओर फेंक दिया| समुद्र में गिरने पर गरुड़ बहुत देर तक कष्ट से बिलखते-छटपटाते रहे| कोई और उपाय न देखकर अब वे भगवान श्रीकृष्ण का हृदय में ध्यान करने लगे| कुछ ही देर में उन्हें द्वारका का प्रकाश दीख पड़ा, तब वे भगवान श्रीकृष्ण के पास गए| श्रीकृष्ण ने उनकी सभी बातें सुनीं और मुस्कुराए| अभी तक गरुड़ के मन में तीव्र गति से उड़ने का गर्व शेष था| गरुड़ जी सदैव यह सोचा करते थे कि बल में हनुमान जी भले ही मुझसे अधिक हैं, परंतु उड़ने में मेरी तुलना पवन भी नहीं कर सकता|
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – “गरुड़! इस बार फिर जाकर तुम हनुमान जी से कहना कि भगवान श्रीराम ने तुम्हें बुलाया है| अतिशीघ्र चलो| हनुमान जी को अपने साथ ही ले आना| वे तुम्हारा आदर करेंगे और तुम्हें कुछ भी नहीं कहेंगे|”
यद्यपि गरुड़ जाने में मन-ही-मन भयभीत हो रहे थे, फिर भी अपनी तीव्रगति से उड़ने की शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए वे चले गए|
भगवान कृष्ण ने सत्यभामा से कहा – “सत्यभामा! तुम सीता का रूप धारण करके आओ, हनुमान जी आ रहे हैं|”
फिर सुदर्शन चक्र से कहा – “तुम सावधानीपूर्वक पहरा दो, कोई भी द्वारका में प्रवेश न करने पाए|”
सत्यभामा जी पूर्ण श्रृंगार के साथ अपने सौंदर्य के गर्व में मत होकर भगवान कृष्ण के वाम भाग में आकर बैठ गई तथा सुदर्शन चक्र पूर्ण सतर्कता के साथ द्वारका के फाटक पर पहरा देने लगे| अब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं धनुष बाणधारी रामभद्र बनकर बैठ गए|
गरुड़ की हनुमान जी के पास जाने की हिम्मत नहीं पड़ी| उन्होंने साहस बटोरकर दूर से ही कहा – “भगवान श्रीराम आपको बहुत ही जल्द बुला रहे हैं| आप मेरे साथ चल सकें तो चलें, अन्यथा मेरे कंधे पर बैठ जाएं, मैं लेता चलूं, क्योंकि आपको चलने में देर हो सकती है|”
हनुमान जी ने अत्यंत प्रसन्नता से कहा – “मेरा परम सौभाग्य है, जो भगवान श्री राम ने मुझे बुलाया है| तुम चलो, मैं आता हूं|” गरुड़ ने सोचा कि ये क्या कह रहे हैं| मुझसे पीछे चलकर ये देर में ही तो पहुंचेंगे| परंतु गरुड़ भयभीत थे, हनुमान जी से फिर कुछ भी कहने का उन्हें साहस नहीं हुआ| अतः वे चुप्पी साधे वहां से चल पड़े| जाते हुए मार्ग में सोच रहे थे कि भगवान के पास चलकर अपनी तीव्र गति से उड़ने का प्रदर्शन अवश्य करूंगा|
हनुमान जी गरुड़ से पहले ही द्वारका पहुंच चुके थे| हनुमान जी की दृष्टि में वह द्वारका नहीं थीं, बल्कि अयोध्या थी| फाटक पर सुदर्शन चक्र ने जोरदार शब्दों में हनुमान जी से कहा – “मैं तुम्हें अंदर प्रवेश नहीं करने दूंगा|”
हनुमान जी ने कहा – “तुम भगवान के दर्शन में अवरोध पैदा कर रहे हो|” इतना कहकर हनुमान जी ने सुदर्शन चक्र को पकड़कर अपने मुंह में रख लिया| भगवान के महल में जाकर हनुमान जी ने देखा कि सिंहासन पर भगवान श्रीराम विराजमान हैं, परंतु उन्हें माता सीता के दर्शन नहीं हो सके| हनुमान जी ने भगवान के श्रीचरणों में प्रणाम करके कहा – “महाराज! आज माता सीता कहां हैं? उनके स्थान पर यह कौन बैठी है? अपने किस दासी को इतना सम्मान दे दिया है?”
हनुमान जी की बात सुनकर सत्यभामा लज्जित-सी हो गई| उनके सौन्दर्य का गर्व नष्ट हो गया| भगवान ने कहा – “हनुमान! तुम्हें किसी ने यहां आने से रोका नहीं? तुम यहां कैसे आ पहुंचे?”
हनुमान जी ने अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर भगवान के समक्ष रख दिया| चक्र लज्जित हो गया और अब उसका गर्व नष्ट हो चुका था| इसके बाद जब वेगपूर्वक दौड़ते हुए गरुड़ आए, तब उन्होंने देखा कि पवनकुमार तो पहले से ही यहां उपस्थित हैं| अब गरुड़ का एकमात्र अवशिष्ट तीव्रगति से उड़ने का गर्व भी समाप्त हो गया| इस प्रकार हनुमान जी के माध्यम से भगवान ने अपने तीनों सेवकों के गर्व को नष्ट कर दिया|
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