हनुमान अश्वमेध अश्व के साथ (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
हनुमान अगस्त्य जी की प्रेरणा से भगवान श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प किया| महर्षि वशिष्ठ ने अत्यंत पुष्ट, अरुण मुख, पीताभ पुच्छ, अत्यंत शुभ श्यामकर्ण, परम सुंदर एवं समस्त लक्षणों से लक्षित अश्व का सविधि पूजन करवाया| तदुपरांत उन्होंने अश्व के उज्जवल ललाट पर चंदन चर्चित, कुंकुम आदि गंधों से युक्त अत्यंत चमकता हुआ स्वर्ण पत्र बांध दिया| उस पर राजाधिराज भगवान श्रीराम के यशोगान के साथ अश्व को छोड़ने का उद्देश्य अंकित था| उस पत्र में इसका भी स्पष्ट उल्लेख कर दिया गया था कि जिन नरेशों के मन में हमसे अधिक शक्ति का अभिमान हो, वे इस रत्नालंकारों से विभूषित अश्व को पकड़ने का साहस करें| हम उनके हाथ से इस अश्व को बलात छुड़ा लेंगे|
भगवान श्रीराम ने अश्व की रक्षा का दायित्व अपने भाई शत्रुघ्न को सौंपकर अपने प्राणप्रिय, शंभुतेज अनिलात्मजय से कहा – “महावीर हनुमान! मैंने तुम्हारे ही प्रसाद से यह अकंटक राज्य प्राप्त किया है| हम लोगों ने मनुष्य होकर भी जो महान जलधि को पार किया तथा मेरी प्राणप्रिया वैदेही के साथ मेरा जो मिलाप हुआ, यह सबकुछ मैं तुम्हारे ही बल का प्रभाव समझता हूं| मेरी आज्ञा से तुम भी सेना के रक्षक होकर जाओ| मेरे भाई शत्रुघ्न की तुम्हें मेरी ही भांति रक्षा करनी चाहिए| महामते! जहां-जहां भाई शत्रुघ्न की बुद्धि विचलित हो, वहां-वहां तुम इन्हें समझा-बुझाकर कर्तव्य का ज्ञान कराना|”
अपने परम प्रभु श्रीराम की आज्ञा पाते ही हनुमान जी पुलकित हो गए| उन्होंने यात्रा के लिए उद्यत होकर भगवन श्रीराम के चरणों में अत्यंत श्रद्धा और भक्तिपूर्वक प्रणाम किया| भगवान श्रीराम के आदेशानुसार कालजित नामक सेनापति के साथ भरत कुमार पुष्कल और जांबवान के साथ अंगद, गवय मैन्द, दधिमुख वानरराज सुग्रीव, शतबलि, अक्षित, नल-नील, मनोवेग तथा अधिमंता आदि वीरागर्वी वानर भी अश्व के पीछे चलने के प्रस्तुत हो गए| फिर श्रीराम के श्रेष्ठ मंत्री सुमंत के परामर्श के अनुसार शस्त्रार्थ में निपुण, महान विद्वान, धनुर्धर तथा परम पराक्रमी वीरवर प्रतापाग्रय, नीलरत्न, लक्ष्मीनिधि, रितुपाल, उग्राश्व और शस्त्रविद कवच एवं शिरस्त्राण से सुसज्जित अपने-अपने आयुध धारण कर चतुरंगिणी सेना के साथ महायज्ञ संबंधी घोड़े को आगे करके उल्लासपूर्वक चले| उस समय अश्व की रक्षा में चलने वाले प्रत्येक योद्धा के मन और प्राण उत्साह से भरे थे| वे सभी हर्षमग्न थे| ऐसे रथी, हयारूढ़ एवं गजरोही शूरवीरों से संपन्न उस विशाल वाहिनी का सौंदर्य अत्यंत अद्भुत था|
भगवान श्रीराम अजेय सेना का सर्वत्र सादर अभिनंदन होता था| श्रीरामनुज शत्रुघ्न, पुष्काल तथा हनुमान जी के दर्शन कर राजे-महाराजे अपना जीवन सफल समझते थे| इस प्रकार श्रीराम के अश्वमेध के अनुपम सुंदर अश्व के साथ दशरथ नंदन शत्रुघ्न की विशाल वाहिनी पयोष्णी नदी के तट पर पहुंचकर द्रुतगति से आगे चलने लगी| कपिश्रेष्ठ हनुमान जी के साथ शत्रुघ्न तथा पुष्कल अपने समस्त वीरों के साथ भांति-भांति के आश्रम देखते तथा वहां जगत्पावन श्रीराम के गुणगान सुनते हुए यात्रा कर रहे थे| उस समय उन्हें चारों दिशाओं से मुनियों की यह कल्याणकारीणी वाणी सुनाई पड़ती थी – यह यज्ञ का अश्व चल रहा है, जो श्रीहरि के अंशावतार श्री शत्रुघ्न जी के द्वारा सब ओर से सुरक्षित है| भगवान का अनुसरण करने वाले वानर तथा भगवदभक्त भी उसकी रक्षा कर रहे थे|
निरंतर भक्ति से प्रभावित रहने वाली चित्तवृत्तियों वाले महर्षियों के इन वचनों से प्रसन्न होते हुए सुमित्रानंदन शत्रुघ्न मनुपुत्र शर्याति के महान यज्ञ में इंद्र का मान भंग कर अश्विनी कुमारों को यज्ञ का भोग देने वाले, तपस्या और योगबल से सपन्न भृगुपुत्र महर्षि च्यवन के पावनतम आश्रम में पहुंचे| वैर शून्य जंतुओं से भरा हुआ वह आश्रम सिद्ध तपस्वियों से सुशोभित था|
शत्रुघ्न ने तपस्या के मूर्तिमान स्वरूप महर्षि च्यवन के सम्मुख अत्यंत विनयपूर्वक अपना परिचय देते हुए उनके चरणों में प्रणाम किया| महर्षि च्यवन ने शत्रुघ्न को यशस्वी होने का आशीर्वाद प्रदान करते हुए पास बैठे मुनियों से कहा – “ब्रह्मर्षियो! यह आश्चर्य की बात देखो, जिनके नाम का स्मरण और कीर्तन आदि मनुष्य के समस्त पापों का नाश कर देते हैं| महान पातकी और परस्त्री-लंपट पुरुष भी जिनका नाम स्मरण करके आनंदपूर्वक परमगति को प्राप्त होते हैं, वे भगवान श्रीराम भी यज्ञ करने वाले हैं| आज मुझे अपनी तपस्या का फल प्राप्त हुआ है| क्योंकि अब मैं उन निखिल सृष्टिपति प्रभु के अनूप रूप का दर्शन प्राप्त करूंगा|”
यह कहकर कल्याणमूर्ति श्रीराम के स्मरण से महर्षि च्यवन प्रेम से निमग्न हो गए| ‘स्व’ और ‘पर’ के ज्ञान से शून्य ध्यानमग्न महर्षि से शत्रुघ्न ने अत्यंत विनीत वाणी में निवेदन किया – “मुनिराज! निश्चय ही सर्वपूज्य श्रीराम परम भाग्यशाली हैं, जो आप जैसे तपस्वियों के हृदय में निवास करते हैं| ऋषिवर! आप अपने चरण कमलों की पवित्र धूलि से हमारे यज्ञ को पवित्र करने की कृपा करे|”
शत्रुघ्न की बात सुनकर महर्षि च्यवन सपरिवार अयोध्या के लिए प्रस्थित हुए| उन्हें पैदल यात्रा करते देखकर हनुमान जी ने शत्रुघ्न से विनीत भाव से कहा – “स्वामी! यदि आप आज्ञा प्रदान करें तो इन श्रीराम भक्त महर्षि को मैं अपनी पुरी पहुंचा आऊं|”
हनुमान जी की बात सुनकर शत्रुघ्न ने कहा – “हां, अप इन्हें पहुंचा आइए|”
बस, फिर क्या था| परम पराक्रमी हनुमान जी ने परिवार सहित महर्षि च्यवन को अपनी पीठ पर बैठाकर तुरंत अयोध्या पहुंचा दिया| महर्षि की प्रसन्नता की सीमा न रही| समर्थ महर्षि का सहज आशीर्वाद हनुमान जी ने प्राप्त कर लिया|
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