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भगवद्गान में विघ्न न डालें

भगवद्गान में विघ्न न डालें

प्राचीन काल में भुवनेश नाम का एक धार्मिक राजा हुआ था| उसने हजार अश्वमेघ और दस सहस्त्र वाजपेय यज्ञ किये थे तथा लाखों गायों का दान किया था|

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उसके सोने के दान की भी कोई सीमा न थी| इस तरह राजा के धर्मकार्य महान् थे, किन्तु मोहवश राजा से एक बहुत बड़ा अधर्म हो गया| उसने नियम बना दिया था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य केवल वेदों से ही ईश्वर जी आराधना करें|

ये तीनों संगीत से ईश्वर की आराधना कभी न करें| यदि इनमें से कोई गान के द्वारा भगवान् की अर्चना करता हुआ पाया जायगा तो वह दण्डनीय होगा| संगीत से भगवान् की सेवा का अधिकार केवल शुद्र और महिलाओं को है|

संगीत की महिमा न जानने के कारण ही राजा के द्वारा ऐसे नियम बनाये गये थे| इस अज्ञान से राजा के किये-कराये यागादि सब-के-सब व्यर्थ हो गये| उसी के राज्य में हरिमित्र नामक एक ब्राह्मण रहते थे|वे भगवान् के प्रेमी भक्त थे| प्रेम में छके रहने के कारण उनके कण्ठ से कोई-न-कोई गीत निकलता रहता था| नदी के तटपर भगवान् की एक सुन्दर प्रतिमा थी| हरिमित्र उस प्रतिमा को देखकर बावले हो जाते और गा-गाकर उस मूर्ति की षोडशोपचार पूजा करते थे| उनके प्रेमसिक्त गीत से वहाँ का कण-कण आन्दोलित होता रहता था|

यह दृश्य राजा के कर्मचारियों ने देखा| उन्होंने राजा को यह समाचार सुनाया| अपने नियम का उल्लंघन होते देखकर राजा क्रोध से जल उठा| उसने उनकी पूजा को तहस-नहस करवा दिया और उनका सारा धन अपहृत कर लिया| साथ ही उन्हें देश से निष्कासित भी कर दिया|

मरने के बाद राजा ऊपर के लोकों में पहुँचा, तब उसे सम्मान तो मिला, किंतु भूख से उसकी अँतड़ी जलने लगी| उसे कुछ अच्छा नहीं लगता था| उसने यमराज से पूछा-‘महाराज! स्वर्ग में भी मुझे भूख-प्यास क्यों सता रही है, मैंने तो कोई पाप नहीं किया है, पुण्य-ही-पुण्य किये है?’ यमराज ने कहा-‘मोहवश तुम से एक बहुत बड़ा पाप हो गया है| तुमने एक भगवत्प्रेमी संत का तिरस्कार किया था| उसकी संगीत-साधना को भ्रष्ट किया था था, इससे तुम्हारे किये दान-यज्ञादि सब नष्ट हो गये| अब तुम्हारे सभी लोक भी नष्ट हो गये हैं| अब तो तुम्हें उल्लू बनकर पर्वत की कन्दरा में जाना होगा| वहाँ अपने मरे हुए शरीर को नोच-नोचकर खाना पड़ेगा| मन्वन्तरपर्यन्त तुम्हें घोर नरक में भी रहना पड़ेगा| उसके बाद तुम्हारा कुत्ते की योनि में जन्म होगा|’ ऐसा कहकर यमराज अन्तर्हित हो गये|

यमराज के अन्तर्धान होने के बाद राजा उल्लू बनकर पर्वत की कन्दरा में जा गिरा| वह भूख से अंधा हो रहा था| उसी अवसर पर उसका मृतक शरीर उसके पास उपस्थित हो गया| ज्यों ही वह उसे खाने के लिये आगे बढ़ा, त्यों ही संयोग से हरिमित्र का चमकता हुआ विमान उधर से निकला| अप्सराएँ उनकी स्तुति कर रहीं थीं और विष्णु के दूत सम्मान के साथ उन्हें उस विमान से वैकुण्ठ ले जा रहे थे| सन्त हरिमित्र की दृष्टि राजा भुवनेश के शव पर पड़ी| पास में ही वह उल्लू भी दीख पड़ा| संत सबपर दया करते हैं| अपने मारनेवाले पर भी वे दया ही करते हैं| राजा के उस शरीर को बुरी दशा में देखकर उन्हें दया आयी| उन्होंने उल्लू से पूछा-‘पक्षी! यह राजा भुवनेश का शरीर है, इसे तू कैसे खा रहा है?’

उल्लू ने रो-रोकर अपनी सारी घटना सुना दी| उपसंहार में उसने कहा कि ‘मैंने तुम्हारी और संगीत की जो दुर्गति की है, उसी के फलस्वरूप मैं उल्लू बना हूँ और भूख से पीड़ित होकर अपना ही शरीर खाने के लिये विवश हूँ| मेरे सारे धर्म के कार्य नष्ट हो गये हैं|

दयालु सन्त ने कहा-‘राजन! मैंने तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर दिये| अब तुम्हें कुत्ते आदि की योनियाँ नहीं मिलेंगी| यह मुर्दा भी अब तुम्हें नहीं खाना पड़ेगा, प्रत्युत योग्य भोजन मिलेगा| मेरे प्रसाद से तुम्हें गानयोग की प्राप्ति होगी| उससे विष्णु की स्तुति कर तुम कृतार्थ होगे| अन्तः में तुम गाना के आचार्य भी होगे|’

संत हरिमित्र का कथन समाप्त होते ही सब नारकीय कष्ट लुप्त हो गये| उल्लू गानबन्धु बनकर ब्रम्हास्वाद में रत होकर रसविशेष को उल्लसित करने लगा|

और दो जल