Homeपरमार्थी साखियाँप्रभु की इच्छा या इनसान की मर्ज़ी

प्रभु की इच्छा या इनसान की मर्ज़ी

जल्हण नौशहरा में एक अच्छा कमाई वाला महात्मा हुआ है| ज़िक्र है कि उसके एक लड़की थी| जब वह जवान हुई तो जल्हण की पत्नी ने कहा कि किसी पण्डित के पास जाओ और लड़की के लिए कोई अच्छा-सा वर और उसकी शादी का मुहूर्त निकलवाओ| अब जल्हण कमाईवाला महात्मा था, यह काम उसके स्वभाव के अनुकूल नहीं था क्योंकि उसके विचार बिल्कुल अलग तरह के थे| वह हमेशा मालिक की मौज में ख़ुश रहता था और हर कार्य को प्रभु प्रियतम की इच्छा पर छोड़ देता था| वह अपने लम्बे अनुभव से जानता था कि अन्त में होता वही है जो प्रभु की इच्छा हो| लेकिन जब पत्नी ने मजबूर किया तो एक जाने-माने पण्डित के घर गया| आगे उसके दरवाज़े पर एक जवान लड़की देखी| पता चला कि वह पण्डित की लड़की है और विवाह के थोड़े समय बाद ही विधवा हो गयी है| वह सोचने लगा, सभी लोग पण्डित से अपनी लड़कियों की शादी का मुहूर्त निकलवाते हैं पर यहाँ पण्डित की अपनी लड़की विधवा हो चुकी है| क्या उसने अपनी बेटी की शादी का मुहूर्त नहीं निकाला था? उसने पण्डित के पास जाने का विचार छोड़ दिया और गली में आगे चलता गया| आगे गया तो हकीम का मकान नज़र आया| क्या देखते हैं कि उसके घर रोना-पीटना हो रहा है| जल्हण ने हकीम के नौकर से पूछा कि क्या कोई भयंकर हादसा हो गया है? नौकर ने बताया कि हकीम का बेटा मर गया है| जल्हण फिर सोचने लगा कि संसार की नित्य प्रतिक्रिया कैसे चल रही है? उसने अपने आप से कहा, “यहाँ इस घर में एक सयाना हकीम है जो अपने इकलौते बेटे को बचाने का भरपूर यत्न करता है पर उत्तम इलाज के बावजूद उसका बेटा चल बसा है| यह हकीम उसे क्यों नहीं बचा सका?” लोग कहने लगे, “परमात्मा की मौज को कौन टाल सकता है|” उसने धूल भरी गली में चलते-चलते मुस्कराते हुए अपने मन में कहा :

घर वैदां दे पिटणा, घर ब्राह्मण दे रंड|
चल जल्हण घर आपणे, साहा देख न संग||

FOLLOW US ON: