Homeपरमार्थी साखियाँलफ़्ज़ों का फेर

लफ़्ज़ों का फेर

चार अलग-अलग मुल्कों के आदमी इकट्ठे हुए| उन्होंने मिलकर सलाह की कि कोई काम करें| उन्होंने कुछ ज़मीन ख़रीद ली| उनमें से एक मध्य भारत का था| उसने कहा कि मैं तो गेहूँ बोऊँगा| दूसरा जो पंजाबी था वह बोला कि मैं तेरी बात मानने को तैयार नहीं, मैं तो कनक बोऊँगा| तीसरा जिसकी ज़बान फ़ारसी थी कहने लगा कि मैं गन्दुम बोऊँगा| चौथा अंग्रेज़ था| उसने कहा कि नहीं जी, हम तो व्हीट (wheat) बोयेंगे| वे चारों आपस में झगड़ने लगे| कोई समझदार आदमी उधर से निकला, उसने देखा कि ये बेकार में लफ़्ज़ों पर झगड़ रहे हैं| उसने कहा कि आप सब अपना-अपना बीज ले आओ| जब बीज लाये तो सब का एक जैसा ही था| सारा झगड़ा ख़त्म हो गया|

इसी तरह अगर हम अपनी रूह को अन्दर नाम के साथ लगा दें तो मज़हबों और मुल्कों का कोई झगड़ा न रहे, सारे झगड़े लफ़्ज़ों के हैं|

गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने ‘जाप साहिब’ में मालिक के
हज़ार से अधिक नाम बताये हैं| पर वे केवल नामों के तात्पर्य
को ग्रहण करने का आदेश देते हैं और कहते हैं कि तुम नामों से
चलकर उस नामी को पकड़ो जो सबका इष्ट है|
(महाराज सावन सिंह)

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