Homeभगवान शिव जी की कथाएँमहान शिव भक्त कुबेर (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

महान शिव भक्त कुबेर (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

महान शिव भक्त कुबेर (भगवान शिव जी की कथाएँ) - शिक्षाप्रद कथा

प्राचीन काल में कांपिल्य नगर में यज्ञदत नामक एक परम तपस्वी एवं सदाचारी ब्राह्मण रहते थे| वे संपूर्ण वेद-वेदांगों के ज्ञाता और सर्वदा श्रोत-स्मार्त्त कर्मों में प्रवृत्त रहते थे| उनके गुणनिधि नाम एक पुत्र हुआ, जो यज्ञोपवीत होने के अनंतर समस्त विद्याओं को पढ़कर पूर्ण विद्वान हो गया| दैववश कुसंग में पड़ने से उसे जुआ खेलने का दुर्व्यसन लग गया| निवी वह अपने पिता से छिपाकर घर के आभूषण आदि चुरा ले जाता और जुए में हार जाता| जब यज्ञदत को उसके दुर्व्यसन का पता लगा तो उन्होंने उसे अपने घर से निकाल दिया|

घर से निकलकर गुणनिधि भोजन की खोज में संध्या-समय एक शिवालय में पहुंचा| उस दिन शिवरात्रि थी| वह वहां द्वार पर बैठकर शिव कीर्तन सुनने लगा| रात को जब सब लोग सो गए तो शिव भोग चुराने के लिए मंदिर में घुसा| उस समय दीपक की ज्योति क्षीण हो गई थी| इसलिए उसने अपना कपड़ा फाड़कर बत्ती जलाई और भोग चुराकर भागने लगा| इतने में उसके पैर के लग जाने से एक आदमी जाग पड़ा| गुणनिधि भागा ही जा रहा था कि वह पकड़ा गया और उसे प्राण दंड मिला|

अपने कुकर्मों के कारण वह यमदूतों द्वारा बांधा गया| इतने में ही भगवान शिव के पार्षद वहां आ पहुंचे| उन्होंने बंधन से उसे छुड़ा लिया और कैलासपुरी में ले आए| आशुतोष भगवान शिव उसके अज्ञान में ही हो गए व्रतोपवास, रात्रि-जागरण, पूजा-दर्शन तथा प्रकाश के निमित्त जलाई गई वस्त्रवर्तिका को आर्तिक्य मानकर उस पर पूर्ण प्रसन्न हो गए और अपना शिवपद उसे प्रदान कर दिया| कालांतर में वह गुणनिधि भगवान की कृपा से कलिंगराज अरिदम का पुत्र हुआ और उसका नाम था दम| वह इस जन्म में भी निरंतर भगवान उमापती की सेवा-आराधना में लगा रहता था| बाद में वह कलिंग-देश का अधिपति हुआ| राजा दम ने बड़ी प्रसन्नता से श्रद्धापूर्वक शिव धर्मों का प्रचार किया| समस्त शिवालयों में दीपदान करने की आज्ञा उन्होंने लोगों को प्रदान की और ऐसा न करने पर दंड की भी व्यवस्था की| वे स्वयं भी इस नियम का नित्य पालन करते थे| आजीवन इस व्रत का पालन करते हुए उन्होंने बहुत-सी धर्मसंपत्ति संचित कर ली| फिर वे काल धर्म के अधीन हो गए| शैवी-भक्ति के कारण वे अलकापुरी के अधिपति बने|

पाद्मकल्प में पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा के घर में उनका जन्म हुआ| विश्रवा के पुत्र होने से वेश्रवा कुबेर तथा इडविडा के गर्भ से उत्पन्न होने से ऐडविड कहलाए| इस उत्तम कुल में जन्म पाकर वे फिर शंभु की आराधना में लग गए और शिवलिंग का संस्थापन कर कठिन तपस्या करने लगे| तप करते-करते हजारों वर्ष बीत गए और उनके शरीर में केवल अस्थिचर्मज-मात्र शेष रह गया| उस तीव्र तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव उमा सहित प्रकट हुए और कहने लगे – “हे वैश्रवण! तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूं और तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करने आया हूं| तुम अपना अभीष्ट वर मांगो|”

ऐसा मधुर वचन सुनते ही वैश्रवण ने आंखें खोलीं, परंतु शिव जी के तीव्र तेज के प्रकाश से उनकी आंखें फिर बंद हो गईं और उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की – “प्रभो! मुझे ऐसी शक्ति दीजिए जिससे मैं आपके चरणारविंदों का दर्शन कर सकूं| आपके दर्शन मात्र से मेरी अभीष्ट सिद्धि हो जाएगी|”

तब शिव ने कृपा पूर्वक हाथ से उनका स्पर्श किया| स्पर्श करते ही उनकी दिव्य दृष्टि हो गई| आंख खुलते ही उनकी दृष्टि सबसे पहले परम सुंदरी गिरिजा पर पड़ी| अतएव वे क्रूरदृष्टि से उन्हीं को घूर-घूरकर देखने लगे| इसका फल यह हुआ कि उनकी बाईं आंख दृष्टि विहीन हो गई| पार्वती जी उनका यह दुर्व्यवहार देखकर कहने लगीं कि यह तापस तो बड़ा दुष्ट मालूम होता है, मुझे क्रूर दुष्टि से देख रहा है

शिव जी ने हंसकर कहा – “देवी! यह तो तुम्हारा पुत्र है, तुम्हें किसी बुरी भावना से नहीं देख सकता| यह तुम्हारी तपस्या के फल पर आश्चर्य करके तुम्हारी ओर निहार रहा है|”

तदनंतर शिव जी वैश्रवण से बोले – “वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत संतुष्ट हूं और वर देता हूं कि तुम्हें निधियों का स्वामित्व प्रपात हो और तुम गुह्यक, यक्ष, किन्नर तथा पुण्यजनों के अधिपति हो जाओ, मेरे साथ तुम्हारी मित्रता रहेगी, तुम्हारी प्रसन्नता की अद्भिव्रिद्धि के लिए मैं तुम्हारी अलकापुरी के समीप ही निवास करूंगा| पार्वती जी ने भी अनेक वर दिए और कहा कि तुमने मेरे रूप को बुरी दृष्टि से देखा है, इसलिए तुम्हारा नाम ‘कुबेर’ होगा| तुम्हारे संस्थापित इस शिवलिंग का जो लोग विधिपूर्वक अर्चन करेंगे, वे कभी निर्धन नहीं होंगे और किसी प्रकार के पाप उन्हें नहीं लगेंगे|”

ऐसा वर देकर भगवती पार्वती के साथ भगवान शिव अंतर्हित हो गए और कुबेर अलकापुरी का ऐश्वर्य पाकर परम संतुष्ट हुए| इस प्रकार भगवान शिव की आराधना तथा उनकी कृपा से उन्होंने उत्तर दिशा का आधिपत्य, अलका नाम की दिव्यपुरी, नंदनवन के समान दिव्य उद्याननयुक्त चैत्ररथ नामक वन तथा एक दिव्य सभा प्राप्त की| साथ ही वे माता पार्वती के कृपापात्र और भगवान शिव के घनिष्ठ मित्र भी बन गए|

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