विकट समस्या

एक गाँव में चार पक्के मित्र रहते थे| उनमें से एक दर्जी था, एक सुनार, एक ब्राह्मण और एक बढ़ई था|

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एक बार चारों ने निर्णय लिया कि विदेश में जाकर कुछ धन कमाया जाएँ| वे चारों ही साथ-साथ रवाना हो गए| चलते-चलते जब दिन ढल गया तो वे एक गाँव के पास किसी मंदिर में ठहर गए|

रात को खा-पीकर वे सोने लगे तो उनके मन में विचार आया कि उनके पास कुछ धन भी है| अतः सबको बारी-बारी से पहरा देना चाहिए| सबसे पहले पहरा देने की बारी बढ़ई की आई|

जब तीनों मित्र सो गए, तब बढ़ई ने रात काटने के लिए कुछ काम करने की सोची| पास में ही एक लकड़ी पड़ी थी| औज़ार भी उसके पास थे| बढ़ई ने एक सुंदर काष्ठ प्रतिमा बनाई| प्रतिमा इतने सुंदर थी कि लगता था कोई युवती हो|

बढ़ई के बाद दर्जी पहरा दिया| उसने देखा कि बढ़ई ने काष्ठ प्रतिमा बनाई है, तो उसे भी कुछ करना चाहिए| इस तरह समय भी कट जाएगा और प्रतिमा की सुंदरता भी बढ़ जाएगी| उसने सुंदर कपड़े सिलकर काष्ठ प्रतिमा को पहना दिए|

अब पहरा देने की बारी सुनार की थी| सुनार ने सजी-धजी उस काष्ठ प्रतिमा को स्वर्णाभूषण गढ़कर पहना दिए|

अंत में पहार देने की बारी ब्राह्मण की थी| उसने संजीवन पाठ किया और उस प्रतिमा में प्राण फूँक दिए| सवेरा होने पर वह प्रतिमा एक सुंदर स्त्री बन चुकी थी|

अब चारों मित्र उस युवती पर अपना-अपना अधिकार जताने लगे| चारों में विवाद छिड़ गया| तभी मंदिर का पुजारी वहाँ आ पहुँचा|

चारों ने पुजारी से प्रार्थना करने के बाद उसे पूरी बात बटा दी और फैसला करने को कहा| पुजारी ने निर्णय दिया, ‘बढ़ई ने प्रतिमा बनाई और ब्राह्मण ने इसे जीवन दिया| इसलिए ये दोनों ही इसके पिता है| दर्जी ने इसे कपड़े पहनाए, इसलिए यह युवती का मामा हुआ| लड़की के लिए गहने वर पक्ष की ओर से आते है| चूँकि यह काम सुनार ने किया है, अतः इस युवती को प्राप्त करने का सच्चा अधिकारी सुनार ही है|’

चारों मित्र पुजारी के निर्णय से संतुष्ट हो गए| उनमें पूर्ववत मित्रता हो गई|


कथा-सार

कभी-कभी परिस्थतियाँ ऐसी बन जाती है कि किसी एक के पक्ष में निर्णय कर पाना कठिन हो जाता है| चारों मित्रों ने काष्ठ से युवती बनने तक की प्रक्रिया में अपना-अपना सहयोग दिया| लेकिन उसका अधिकारी तय करते समय पुजारी ने अपने अनुभव के आधार पर समुचित निर्णय कर दिया|