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रुद्रावतार नंदीश्वर

शिलाद नाम के एक महामनस्वी ब्राह्मण थे| उन्होंने सत्पुत्र की प्राप्ति के लिए इंद्र की उपासना की| उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर इंद्र ने शिलाद से वर माँगने को कहा|

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शिलाद ने वरदान में माँगा- ‘देव! मैं ऐसा पुत्र चाहता हूँ, जो अयोनिज (गर्भ से न पैदा हुआ) हो और मृत्यु से रहित हो|’ इंद्र ने कहा- ‘मैं ऐसा पुत्र दे सकता हूँ जो योनिज हो और मृत्यु से युक्त हो; क्योंकि मृत्यु से हीन कोई नही है| स्वयं ब्रह्मा भी मृत्यु से रहित नही है|’ जब शिलाद ने अपनी उसी इच्छा को दोहराया, तब इंद्र ने कहा- ‘यदि परमात्मस्वरूप शंकर प्रसन्न हो जाएँ तो तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो सकती है| वे ही तुम्हें अयोनिज और मृत्युहीन पुत्र दे सकते है| मुझमें या अन्य देवों में भी यह सामर्थ्य नही है|’

इंद्र से उपदेश पाकर शिलाद शंकर की तपस्या में लग गए| हज़ार दिव्य वर्ष व्यतीत हो गए, किंतु अध्यवसायी शिलाद मुनि के लिए यह क्षण-सा प्रतीत हुआ| इस बीच में शिलाद के शरीर में हड्डी मात्र ही शेष रह गई थी| अंत में भगवान् शंकर पार्वती के साथ प्रकट हो गए| भगवान् के स्पर्श से उनका शरीर भला-चंगा हो गया| उन्होंने शिलाद की इच्छा के अनुरूप इन्हें अयोनिज और मृत्युरहित पुत्र होने का वरदान दिया|

शिलाद वरदान पाकर अपने आश्रम में आ गए| जब वे यज्ञ मंडप में पहुँचे तो उन्होंने एक दिव्य शिशु को प्रकट होते देखा| उस अवसर पर सारी दिशाएँ प्रसन्न हो गई और आकाश से फूलों की वृष्टि होने लगी, गंधर्व गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगी, ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि और मुनि वेदों का पाठ करने लगे| शिलाद मुनि पुत्र रुप में परमात्मा को पाकर गद्गद् होकर बोले- ‘पुत्र! तुमने मुझे आनंदमग्न कर दिया है, इसलिए तुम्हारा नाम ‘नन्दी’ होगा| तुम्हें पा लेने से मेरे पितरों का उद्धार हो गया|

पुत्र को लेकर शिलाद अपनी कुटिया में आ गए| वहाँ पहुँचकर नन्दी अपने दैवी स्वरुप को छिपाकर मनुष्य रूप में आ गए| शिलाद मुनि ने नन्दी के जात कर्म आदि संस्कार किये|

एक दिन शिलाद मुनि के आश्रम पर तप एवं योग बल से समन्वित मित्र और वरुण नाम के दो देवता आए| उन्होंने बच्चे को देखकर शिलाद मुनि से कहा- ‘मुने! यह बच्चा तो सब शास्त्रों का जानकार होगा, किन्तु इसकी आयु केवल एक वर्ष और शेष है|’ यह सुनकर शिलाद मुनि के शोक का कोई आर-पार न रहा| वे बच्चे को गले से लगा कर जोर-जोर से रोने लगे| रोना-पीटना सुनकर शिलाद के पिता शालंकायन भी वहाँ आ गए| वे भी रोने लगे| इस तरह अपने पिता और पितामह को दुःखी देखकर बालक में उन्हें सांत्वना दी की ‘मैं मृत्यु को जीतने के लिए भगवान् शंकर की आराधना करने जा रहा हूँ| आप लोग निश्चिंत हो जाएँ|’ इतना कहकर नन्दी एकांत स्थान पर जाकर भगवान् शंकर की आराधना करने लगा|

आशुतोष भगवान् शंकर शीघ्र ही प्रकट हो गए और बोले- ‘वत्स! तुम्हारा देह देखने के लिए मनुष्य का है, वस्तुतः यह तो सत्, चित्, आनंदरूप है| मृत्यु तुम्हारे पास कैसे आएगी?’ ऐसा कहकर भगवान् शंकर ने नन्दी का स्पर्श किया| उस स्पर्श से नन्दी आनंद के समुंद्र में मग्न हो गई| भगवान् शंकर ने आगे से कहा- ‘तुम मेरे अत्यंत प्रिय, मेरे पास रहनेवाले और मेरे ही तुल्य पराक्रमी होगे|’ इतना कहकर भगवान् ने नन्दी को कमल की माला पहनाई| वरदान रूप में भगवान् शंकर ने अपनी जटा से जल निकालकर उसे नदी का रुप दे दिया, जो जटोदका नाम से विख्यात हुई| इसके बाद भगवान् शंकर ने नन्दी को शिलाद की गोद में डाल दिया| फिर प्रेम से विभोर भगवान् ने तीन धाराओं से नन्दी का अभिषेक किया| वे तीन धाराएँ तीन नदियों में बदल गई| यह देखकर भगवान् के वृषभ ने निनाद किया| उस नाद से एक दूसरी नदी प्रकट हुई, जिसका नाम ‘वृषभध्वनि’ हुआ| इसके बाद भगवान् शंकर ने नन्दी के सिर पर मुकुट और कानों में कुंडल पहनाए| नन्दी को पूजित देखकर मेघों ने भी अभिषेक किया| इससे भी एक नदी प्रकट हो गई जिसे जाम्बुन नदी कहते हैं| ये पाँचों पवित्र नदियाँ जप्येश्वर महादेव के पास है| इसके बाद भगवान् शंकर ने नन्दी को सब गणों के आधिपत्य पद पर अभिषिक्त किया| उस अवसर पर सभी देवताओं ने वहाँ उपस्थित होकर नन्दी को भिन्न-भिन्न उपहार दिए|

कौरव और