पाँच महातीर्थ
(1) पितृतीर्थ-नरोत्तम नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था| वह माता-पिता की सेवा छोड़कर तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ा| तीर्थ-सेवन की महिमा से उसके गीले कपड़े आकाश में सूखते थे|
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इस चमत्कार से उसके मन में अभिमान उत्पन्न हो गया| वह आकाश की ओर देखकर कहने लगा-‘मेरे समान दूसरा तपस्वी कौन है, जिसके वस्त्र आकाश में सूखते हैं?’-इस वाक्य के पूरा होते-होते उसके मुँह पर बगुले ने बीट कर दी| ब्राह्मण क्रोध से आग-बबूला हो गया| उसने बगुले को शाप दे दिया, जिससे वह जलकर भस्म हो गया|
इस शाप से ब्राह्मण की तपस्या नष्ट हो गयी, जिससे उसके वस्त्रों का आकाश में सुखना बंद हो गया| इस घटना से ब्राह्मण को मर्मान्तक वेदना हुई| तब आकाशवाणी हुई-‘ब्राह्मण! तुम मूक चाण्डाल अपने पिता-माता की सेवा में तन्मय था| इस सेवा से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु उसके घर में निवास करते थे| माता-पिता सेवा की महिमा से उसका घर बिना खम्भों के आकाश में टिका था| यह देखकर ब्राह्मण को महान् आश्चर्य हुआ| उसने मूक चाण्डाल से आकाशवाणी की बात सुनायी और प्रार्थना की कि आप मुझे ज्ञान का उपदेश दें| मूक ने नम्रता के साथ कहा-‘देवता! आप थोड़ी देर प्रतीक्षा कीजिये| मेरी सेवा से माता-पिता को संतोष हो जायगा, तब मैं आपकी सेवा करूँगा|’ इतना सुनते ही ब्राह्मण क्रुद्ध होकर उसकी भर्त्सना करने लगा| अंत में मूक को पहना कि ‘मैं बगुला नहीं हूँ कि आपके जलाये जल जाऊँगा| आपको जल्दी हो तो पतिव्रता के पास जाइये| उससे आपका कम सिद्ध हो जायगा|’ ब्राह्मण जब पतिव्रता के घर की ओर बढ़ा तब विष्णु भगवान् जो ब्राह्मण के रूप में मूक के घर में बैठे थे, उसके साथ हो लिये|
(2) पतितीर्थ -नरोत्तम ने ब्राह्मण से पूछा-‘तुम ब्राह्मण होते हुए भी चाण्डाल के घर में क्यों रहते हो?’ भगवान् ने कहा-‘अभी तुम्हारा अन्तःकरण पवित्र नहीं हैं| पीछे तुम पहचान जाओगे|’ भगवान् ने पतिव्रता के सम्बन्ध में नरोत्तम को बतलाते हुए उसकी असीम शक्तियों की प्रशंसा की| जब पतिव्रता का घर पास आया तब भगवान् अदृश्य हो गये| नरोत्तम ने पतिव्रता से प्रार्थना की कि तुम मुझे धर्म का उपदेश करो| पतिव्रता ने निवेदन किया कि ‘मेरी पति-सेवा अधूरी है| उसे पूरी कर आपकी सेवा करूँगी, तबतक आप जलपान कर विश्राम कर लें|’ सुनते ही नरोत्तम क्रुद्ध हो गया और शाप तक देने को तैयार हो गया| तब पतिव्रता ने कहा-‘महाराज! पुत्र के लिये जिस तरह माता-पिता की सेवा से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं हैं, उसी तरह पत्नी के लिये पति की सेवा से बढ़कर अतिथि आदि की सेवा नहीं है| इसलिये पति को अपनी सेवा से संतुष्ट कर लूँगी, तभी आपकी सेवा कर पाऊँगी| यदि आपको जल्दी है तो तुलाधार वैश्य के पास जाइये|’ नरोत्तम तुलाधार वैश्य के घर की ओर बढ़ा|
(3) समतातीर्थ-ब्राह्मणरूप धारी भगवान् नरोत्तम के पास फिर आये और बोले-‘ब्राह्मन! चलिये,मैं आपको तुलाधार के पास ले चलता हूँ|’ जब वे दोनों तुलाधार के पास पहुँचे तो वहाँ बहुत बड़ी भीड़ एकत्र थी| बहुत से पुरुष और स्त्रियाँ उसे चारों ओर से घेरकर खड़े थे| ब्राह्मण को आया देखकर तुलाधार ने मीठी वाणी में पूछा-‘द्विजश्रेष्ठ! आपका यहाँ कैसे पधारने हुआ है?’ ब्राह्मण ने कहा-‘आप मुझे धर्म का उपदेश दीजिये|’ तुलाधार ने कहा-‘महाराज! मैं वैश्य हूँ, व्यापार मेरा मुख्य धर्म है| व्यापार-सम्बन्धी बातों में पहर भर रात बीत जायगी| आपका आतिथ्य करना मेरा धर्म है, किन्तु व्यापार मेरा परम धर्म है| उस परम धर्म के पूरा होने पर ही मैं आपकी सेवा कर सकूँगा| अतः आप धर्माकरकेपास जायँ| मैं व्यापरियों की गुत्थियाँ सुलझा रहा हूँ| इस तरह व्यापारियों में समरूप से व्याप्त परमेश्वर की ही सेवा कर रहा हूँ|’
नरोत्तम वहाँ से आगे बढ़ा और भगवान् उसके साथ हो लिये| नरोत्तम ने ब्राह्मणरूप धारी भगवान् से पूछा-‘तुलाधार में क्या विशेषता है?’ भगवान् ने बताया कि वह तुलाधार अपने वैश्य-धर्म में स्थित रहकर सब प्राणियों में भगवान् को देखता हुआ वैश्य-धर्म का व्यवहारिक उपदेश देता रहता है| इस तरह प्रातःसे रात तक सबका भला करता रहता है|
(4) अद्रोहतीर्थ-नरोत्तम ने ब्राह्मण से धर्माकरका परिचय पूछा| भगवान् ने बतलाया-‘एक बार एक राजकुमार को कहीं बाहर जाना था| उसे अपनी पत्नी की सुरक्षा की चिंता थी| धर्मकरके पास अपनी स्त्री को रखने में उसे संतोष था| वह अपनी नवयुवती स्त्री को धर्मकरके पास ले गया और उससे प्रार्थना की कि ‘आप छः महीने तक मेरी पत्नी की रक्षा का भार वहन करें|’धर्मकर ने कहा-‘राजन! मैं आपका सगा-सम्बन्धी नहीं हूँ तो फिर अपनी पत्नी को मेरे पास छोड़कर आप निश्चिन्त कैसे रह सकेंगे?’ राजकुमार ने दृढ़ता के साथ कहा-‘मैं आपके चरित्र से अवगत हूँ और निश्चिन्त होकर ही आया हूँ| आप मेरी बात न ठुकरायें|’ धर्माकर को राजकुमार की बात माननी पड़ी| धर्माकर ने बहुत ही सावधानी के साथ राजकुमारी पत्नी की देख भाल की| छः महीने तक उसने अखण्ड ब्रम्हचर्य का पालन किया| उसकी साध्वी पत्नी भी पति के कार्य में प्रसन्नतापूर्वक हाथ बँटा रही थी|
छः महीने बाद जब राजकुमार परदेश से लौटा, तब सीधे धर्माकर के पास आया| रास्ते में लोग कई तरह की बातें कर रहे थे| किसी ने राजकुमार से कहा-‘भाई! तुमने अपनी स्त्री धर्माकर को सौंप दी है| वह अपने-आपको कैसे सँभाल सकता है? यही बात बहुत-से लोग दोहरा रहे थे| धर्माकर तो सब कुछ जान ही लेता था| राजकुमार से कही जाने वाली बातें भी उसे ज्ञात हो गयीं| उसने लोकापवाद हटाने के लिये एक योजना बनायी| अपने दरवाजे पर लकड़ियों का ढेर लगवाया और उसमें आग लगा दी| ठीक इसी समय राजकुमार उसके पास पहुँचा राजकुमार ने धर्माकर और अपनी पत्नी को देखा| दोनों बैठे हुए थे| पत्नी तो पति को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो रही थी, किंतु धर्माकर चिन्तित था| राजकुमार ने धर्माकर से पूछा-‘मित्र! मैं बहुत दिनों के बाद आपके पास लौटा हूँ, आप मुझसे बात क्यों नहीं करते? चिन्तित क्यों हैं?’
धर्माकर ने कहा-‘मित्र! लोकनिन्दा के कारण मेरा किया-कराया सब चौपट हो गया, अतः मैं अग्नि में प्रवेश करूँगा| देवता और मनुष्य मेरे इस कार्य को देखें|’ इतना कहकर धर्माकर धधकती हुई आग में प्रवेश कर गया, किंतु धर्माकर का बाल भी बाँका नहीं हुआ| आकाश से देवता लोग साधुवाद देते हुए फूलों की वृष्टि करने लगे| जिन लोगों ने धर्माकर के सम्बन्ध में झूठी किंवदन्तियाँ उड़ायी थीं, उनके मुख पर कोढ़ हो गया| देवताओं ने प्रकट होकर धर्माकर को आग से निकाला और मालाएँ पहनायीं| तब से धर्माकर का नाम सज्जनाद्रोहक हो गया; क्योंकि धर्माकर किसी से द्रोह नहीं करते थे| शत्रु से भी प्रेम का व्यवहार रखते थे|
देवताओं ने राजकुमार से कहा-‘तुम अपनी इस पत्नी को स्वीकार करो| इस समय इस सज्जनाद्रोहक के समान पृथ्वी पर कोई अन्य पुरुष नहीं है, जिसने काम और लोभ पर इस तरह विजय पाई हो|’ देवताओं ने सबके सामने सज्जनद्रोहक की भूरि-भूरि प्रशंसा की और वे अपने-अपने विमानों में बैठकर देवलोक पधार गये| राजकुमार ने अद्रोहक से अपनी कृतज्ञता प्रकट की और वह पत्नी के साथ राजमहल में लौट आया|
भगवान् ने जब यह कथा समाप्त की, तब अद्रोहक के पास भेजकर स्वयं अन्तर्हित हो गये| नरोत्तम ने अद्रोहक के सामने अपनी धर्मसम्बन्धी जिज्ञासा रखी| अद्रोहक नरोत्तम का आतिथ्य किया और समझाया कि आप वैष्णव सज्जन के पास जाइये| उनसे आपकी सब कामनाएँ पूरी हो जायँगी|
(5) भक्तितीर्थ-नरोत्तम वैष्णव के घर की ओर जब बढ़ा तब ब्राह्मण रूपधारी भगवान् पुनः मिल गये| नरोत्तम ने भगवान् से पूछा कि जिस वैष्णव सज्जन के पास हम चल रहे हैं, उनकी क्या विशेषता है? भगवान् ने समझाया कि वैष्णव भगवान् में अनन्य प्रेम करता है| इसलिये भगवान् उसके मन्दिर में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं| जब वैष्णव सज्जन का घर समीप आया, तब भगवान् पुनः अन्तर्हित हो गये| नरोत्तम ने वैष्णव सज्जन के सामने अपनी जिज्ञासाएँ रखीं| वैष्णव ने कहा-‘विप्रवर! तुम्हें देखकर मेरा हृदय उल्लसित हो रहा है| तुम पर भगवान् विष्णु प्रसन्न हैं| अतः आज तुम्हारी सभी कामनाएँ पूरी हो जायँगी| मेरे घर के मन्दिर में भगवान् विष्णु साक्षात् विराजमान हैं| आप जाकर उनके दर्शन कीजिये|’
जब ब्राह्मण मन्दिर में गया तो देखता है कि जो ब्राह्मण उसके साथ लगे थे, वही ब्राह्मण कमल के आसनपर विराजमान है| नरोत्तम ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और कहा-‘यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो अपने स्वरूप का दर्शन दें|’ भगवान् ने नरोत्तम की प्रार्थना स्वीकार की| नरोत्तम उनके दिव्यरूप को देखकर तृप्त हो गये| भगवान् बोले-‘भक्तों पर मेरा प्रेम सदा बना रहता है| प्रेम के कारण ही तुम्हें पुण्यात्मा पुरुषों के दर्शन कराये हैं| तुम से एक भूल हो गयी है| तुम्हारे माता-पिता तुम से आदर नहीं पा रहे हैं, अतः तुम जाकर उनकी पूजा करो| उनके दुःख और क्रोध से तुम्हारी तपस्या नष्ट होती जाती है| जिस पुत्र पर माता-पिता का कोप होता है, वह सीधे नरक में जाता है| त्रिदेव भी उसे नरक में जाने से बचा नहीं सकते| इसलिये तुम घर लौट जाओ और माता-पिता को मेरी मूर्ति समझकर पूजा करो| उनकी कृपा से तुम मुझे प्राप्त करोगे|’
नरोत्तम को अपनी भूल मालूम पड़ी| वह माता-पिता को भगवान् समझकर बहुत सम्मान करने लगा और मूक चाण्डाल की तरह उनकी सेवा में संलग्न रहने लगा| अन्त में वह परमगति को प्राप्त हुआ|