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जब युवा संन्यासी ने वृद्ध संन्यासी को जाना

जीवन दर्शनः एक युवा संन्यासी एक वृद्ध संन्यासी के सान्निध्य में रहकर ज्ञान प्राप्ति के लिए उनके आश्रम में आया।

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वह लगातार वृद्ध संन्यासी के निकट बना रहता, किंतु दो-चार दिन के प्रवास में ही उसे ऐसा महसूस हुआ कि यह वृद्ध संन्यासी विशेष ज्ञानी नहीं है। उसने सोचा कि इस आश्रम को छोड़ देना चाहिए और अन्यत्र चलकर किसी ज्ञानी गुरु की खोज करनी चाहिए किंतु उसी दिन एक और संन्यासी का उस आश्रम में आना हुआ। युवा संन्यासी एक रात और रुक गया।

रात को आश्रम में सभी संन्यासी एकत्रित हुए और उनके मध्य परस्पर बातचीत हुई। नए संन्यासी ने इतनी ज्ञानपूर्ण चर्चा की कि छोड़कर जाने की इच्छा रखने वाले युवा संन्यासी को लगा कि गुरु हो तो ऐसा हो। दो घंटे के वार्तालाप में ही वह उससे प्रभावित हो गया। जब चर्चा समाप्त हुई तो नए संन्यासी ने वृद्ध संन्यासी गुरु से पूछा- आपको मेरी बातें कैसी लगीं? गुरु बोले- तुम्हारी बातें? बातें तो तुम कर रहे थे किंतु वे तुम्हारी नहीं थीं। तुम कुछ बोल ही नहीं रहे थे।

जो तुमने इकट्ठा कर लिया है, उसी को बाहर निकालते रहे। बाहर से जो भीतर ले जाया जाए और फिर बाहर निकाल दिया जाए, उसमें तो वमन की दरुगध ही आती है। तुम्हारे भीतर की किताबें बोल रही थीं, शास्त्र बोल रहे थे किंतु तुम जरा भी नहीं बोल पाए। युवा संन्यासी जो आश्रम छोड़ने का विचार कर रहा था, रुक गया। गुरु की बातों ने उसे आत्मज्ञान करा दिया।

वस्तुत: जानने-जानने में बहुत फर्क है। असली जानना वह है जिसका जन्म भीतर से होता है। बाहर से जो एकत्रित किया जाता है, वह तो बंधन हो जाता है, उससे जीवन में परिवर्तन संभव नहीं।