नीतिवान सन्यासी
नगर के बाहर बने शिव मंदिर में ताम्रचूड़ नामक एक सन्यासी रहता था, जो उस नगर में भिक्षा माँगकर बड़े सुख से अपना जीवन व्यतीत कर रहा था| वह अपने खाने-पीने से बचे अन्न-धान्य को एक भिक्षा पात्र में रख देता और फिर उस पात्र को रात्रि में खूंटी पर लटकाकर निश्चिंतता से सो जाया करता था| प्रातकाल ताम्रचूड़ स्नान-पूजादि से निवृत होकर उस अन्न-धान्य आदि को मंदिर के बाहर बैठनेवाले भिखारियों में बाँट देता था|
एक दिन हिरण्यक नाम के चूहे को अपने किसी साथी से यह सूचना मिली कि ताम्रचूड़ प्रत्येक रात्रि खूंटी पर टंगे पात्र में स्वादिष्ट अन्न सामग्री रखता है| उसे यह भी पता चला कि खूंटी इतनी ऊँची है कि उसके साथी चूहे प्रयत्न करने पर भी वहाँ तक नही पहुँच पाते|
अपने साथी की बात सुनकर हिरण्यक उसी समय उसके साथ चल दिया| साथी द्वारा खूंटी पर लटकी हांडी को दिखाए जाने पर उसने एक छलाँग में उसे नीचे गिरा दिया और स्वयं, परिवार के लोगों तथा अन्य साथियों ने जी भरकर उस स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया|
अब यह उनका हर रात का नियम- सा बन गया|
आखिरकार सन्यासी ताम्रचूड़ हिरण्यक को डराने और उससे पीछा छुड़ाने के लिए कही से एक फटा बाँस उठा लाया| वह सोते समय बाँस को बजाता रहता और हिरण्यक चोट लगने के भय से बिना कुछ खाए ही भाग जाता| इस तरह रातभर हिरण्यक और सन्यासी में संघर्ष चलता रहता| जैसे ही उसे नींद आती हिरण्यक हंडिया पर हाथ साफ़ कर जाता|
एक दिन लंबी तीर्थयात्रा से घर को लौटता उस सन्यासी का एक मित्र वृहतस्फिक उससे मिलने आया| रात के समय जब दोनों मित्र सोने लगे तो वृहतस्फिक ताम्रचूड़ को अपनी तीर्थयात्रा का विवरण सुनाने लगा| लेकिन वृहतस्फिक ने जब ताम्रचूड़ को बार-बार फटे बाँस को धरती पर पटकते देखा तो उसने समझा कि ताम्रचूड़ उसकी उपेक्षा कर रहा है| वह क्रोधित स्वर में बोला, ‘मित्र! यदि आपको मेरी बातें सुनने में रुचि नही है तो मैं प्रातः होते ही यहाँ से चला जाऊँगा| मैं तो आपको अपना घनिष्ठ मित्र मानता था, लेकिन आपके व्यवहार से मुझे बेहद निराशा हुई है|’
‘मित्रवर! आप मुझे गलत मत समझिए| एक चूहे ने मुझे कुछ दिनों से परेशान कर रखा है| मैं भिक्षा से प्राप्त खाने-पीने की बची सामग्री को एक हांडी में रखकर उसे खूंटी से लटका देता हूँ ताकि दूसरे दिन उसे अन्य भिक्षुओं को दे सकूँ| समझ में नही आता कि कैसे एक चूहा इतनी ऊँची छलाँग लगाता है और उस हांडी की सामग्री को चट कर जाता है| मैं उसे डराने-भगाने के लिए इस फटे बाँस को धरती पर पटकता रहता हूँ|’
‘ओह! यह बात है, आपको मालूम है उस चूहे का बिल कहाँ है?’ वृहतस्फिक ने पूछा|
‘नही|’ ताम्रचूड़ ने अनभिज्ञता प्रकट की|
‘लेकिन यह ज़रूर निश्चित समझिए कि उस चूहे का बिल किसी ख़जाने पर है| धन की गर्मी के कारण ही वह इतना अधिक उछल-कूद कर सकता है| इसलिए इस चूहे के बिल का पता लगाए बिना आप आसानी से इससे पीछा नही छुडा पाएँगे|’ वृहतस्फिक ने तर्क देकर ताम्रचूड़ सन्यासी को समझाया|
‘उस चूहे का बिल कहाँ है- निश्चित रूप से तो कुछ कह नही सकता परंतु इतना अवश्य है कि जब वह आता है तो पूरे दल-बल के साथ ही आता है|’
‘तो फिर चिंता की कोई बात नही| उसके बिल तक पहुंचना कोई कठिन कार्य नही है| बस एक कुदाल लाकर रख ले ताकि उसके बिल को खोदने में असुविधा न हो|’ वृहतस्फिक ने अपनी योजना बताते हुए कहा|
ताम्रचूड़ मंदिर के भीतर से एक कुदाल ले आया| कुदाल को एक ओर रखने का संकेत करते हुए वृहतस्फिक ने कहा, ‘अब निश्चिंत होकर सो जाइए, सुबह मेरा चमत्कार देखना|’
प्रातकाल होते ही वह दोनों चूहों के पदचिन्हों का पीछा करते हुए हिरण्यक के बिल तक जा पहुँचे| हिरण्यक तथा अन्य चूहे अवसर पाते ही निकल भागे| उनके भागते ही सन्यासियों ने बिल को खोदकर उसके भीतर छिपे धन को निकाल लिया| उसके बाद वृहतस्फिक ने ताम्रचूड़ से कहा, ‘मित्र! अब आप निश्चिंत होकर सोना| यह चूहा अब आपका कुछ नही बिगाड़ पाएगा|’
उसका विचार ठीक था| अपने धन को लुटा देखकर हिरण्यक टूट गया था| उसका उत्साह ठंडा पड़ गया था| फिर भी वह अपने परिवार के साथ पहले की ही तरह मंदिर में गया तो उसने ताम्रचूड़ को फटा बाँस धरती पर पटकते देखा और वृहतस्फिक को उसे रोकते तथा यह कहते सुना, ‘अब बाँस को धरती पर पटकने की आवश्यकता नही, वह चूहा अब आपका कोई नुकसान नही पहुँचा पाएगा|’
उसके यह वचन सुनकर हिरण्यक को क्रोध आ गया| वह अपनी पूरी शक्ति के साथ खूंटे पर कूदा, परंतु वहाँ तक नही पहुँच पाया| उसने कई बार प्रयत्न किया लेकिन उसकी हर कोशिश व्यर्थ गई| उसके इस असफल प्रयास को देखकर वृहतस्फिक ने ताम्रचूड़ से कहा, ‘देखो मित्र! इस चूहे की उछल-कूद| अब यह चाहे जितना भी बल क्यों न लगा ले, खूंटी तक कभी नही पहुँच पाएगा|’
हिरण्यक ने एक बार सन्यासी से धन को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया परंतु कामयाब नही हो सका| क्योंकि ताम्रचूड़ धन की पोटली को हमेशा अपने तकिए के नीचे रखकर सोता था और जागते समय भी उस पर कड़ी निगरानी रखता था| इसलिए हिरण्यक को यह लगभग निश्चित हो गया था कि उसके लिए उस धन को पुनः प्राप्त करना किसी भी प्रकार संभव नही| जल्दी ही हिरण्यक के परिजन उससे कन्नी काटने लगे|
अपने परिजनों के इस व्यवहार ने उसे इतना अधिक व्यथित कर दिया कि उसने अपने लूटे धन को पाने के लिए एक बार फिर प्रयास करने का निश्चय किया|
इस बात में कोई शक नही था कि इसमें प्राणों का खतरा था लेकिन फिर भी उसने दरिद्रता और अपमान का जीवन जीने से मरना अच्छा समझा|
अपने मन में तरह-तरह की योजनाएँ बनाता हुआ हिरण्यक सन्यासी के तकिए के नीचे रखी धन की पोटली को हथियाने चल पड़ा|
किसी तरह हिरण्यक अथक प्रयासों के बाद मिले अपने धन को पाने में सफल हो गया| जैसे ही हिरण्यक उस गठरी को उठाकर चलने लगा कि सन्यासी जाग उठा और उसने हाथ में पकड़े फटे बाँस से उसके सर पर तेज़ प्रहार किया| यह तो हिरण्यक की किस्मत थी जो किसी तरह बच गया| तब उसने निश्चय किया कि अब वह उस धन को प्राप्त करने का और प्रयास नही करेगा|
अब वह एक नया बिल बनाकर रहने लगा|
शिक्षा: यह धन ही है, जो समस्त सुखों का वाहक है| धन नही तो आत्मसम्मान भी नही| लेकिन धन इतना महत्वपूर्ण भी नही कि उसके लिए प्राण दाँव पर लगा दिए जाएँ| जीवन शेष रहेगा, तो धन पुनः आ जाएगा| हिरण्यक चूहे ने यही किया और गए धन का लोभ छोड़ नए सिरे से जीवन शुरू किया|