मिट्टी से वफ़ादारी
ईरान में आक्रमणकारियों के आक्रमण से प्राण-रक्षा के लिए पारसी अग्निपूजक सातवीं शताब्दी में भारत के गुजरात प्रदेश में पहुँचे| गुजरात में उन दिनों राजा जाधव राणा का शासन था|
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पारसी शरणार्थियों के ईरान से देश में आने का समाचार सुनकर जाधव राणा ने उन्हें अपने दरबार में आमंत्रित किया| एक शोभा-यात्रा में पारसी शरणार्थी दरबार पहुँचे| एक वृद्ध पुरोहित उनकी अगुआनी करते हुए हाथ में पवित्र अग्निपात्र लिए हुए था| उन समस्त शरणार्थियों से राजा ने पूछा- “हे दूर देश के आगुंतक सज्जनों, आप इस देश में क्या चाहते हैं?”
पारसी पुरोहित का उत्तर था, “महाराज! हम पूजा-अर्चना की स्वाधीनता चाहते हैं|” राजा जाधव ने उत्तर दिया- “आप की बात स्वीकार है| आपको और क्या चाहिए?” पारसी पुरोहित ने उत्तर दिया, “यदि आप स्वीकार करते हैं तो हम अपने बच्चों को अपनी परम्परा और रीति-नीति के अनुरुप शिक्षा-दीक्षा देना चाहते हैं|” राजा ने कहा- “हमें आपका यह अनुरोध भी स्वीकार है| आप और क्या चाहते हैं?” पुरोहित ने उत्तर दिया- “महाराज, हम थोड़ा-सा भूमि का टुकड़ा चाहते हैं, जिस पर हम खेती कर गुजर-बसर कर सके और हम किसी पर बोझ न बने|”
राजा ने उत्तर दिया, “हमें यह बात भी स्वीकार है, पर एक बात बताएँगे कि आप उस देश के लिए क्या करेंगे जिसमें आप शरण ले रहे हैं?” वृद्ध पुरोहित ने एक पीतल के कटोरे में दूध मँगवाया और उसमें एक चम्मच शक्कर डालकर कर उसे दूध में मिलाकर कहा, “क्या आपको इस दूध की चीनी दिखलाई दे रही है?” सबने इन्कार में सिर हिला दिया| वृद्ध पुजारी ने कहा, “जिस तरह दूध में चीनी घुल गई है, उसी तरह हम इस देश में घुल-मिलकर रह जाएँगे|” यह कहकर सभी पारसी शरणार्थियों ने भारतभूमि की मिट्टी को उठाकर अपनी पलकों और मस्तक से लगा लिया|
आज भी वे अग्निपूजक-पारसी भारतीय भूमि के सच्चे वफ़ादार हैं|
प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृभूमि के प्रति इतना ही वफ़ादार होना चाहिए|