लगाव

लगाव

एक सूफी नवाब थे| एक रोज एक भिखारी आया| इस फकीर ने देखा कि वह सूफी नवाब एक भव्य सुंदर तम्बू में मखमल की गद्दी पर बैठे हैं|

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उस तम्बू की कीलें भी सोने की थी| उस सूफी संत के समीप जाकर फकीर ने कहा- “जनाब, मैंने तो आपकी तारीफ में बहुत कुछ सुना था| आप तो बड़े त्यागी, सादगी पसंद सूफी संत माने गये हैं| आपका यह शाही ठाठ, राजसी शान देखकर मुझे अत्यंत दुःख हुआ| मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी|”

अपनी सुनहरी रेशमी गद्दी छोड़कर वैसी ही वह सूफी संत उठ गए| बोले- “उनमें से किसी भी वस्तु से मुझे लगाव नहीं है| ये सब वस्तुएँ त्यागकर मैं अभी तुम्हारे साथ चलता हूँ|” वह सूफी नवाब अपनी गद्दी, ठाठ-बाट, धन-दौलत, कपड़े, जूते सब उसी तरह छोड़कर खड़े हो गए और उस फकीर के साथ चलने लगे| कुछ दूर आगे चले थे कि वह फकीर परेशान हो उठा| वह बोल उठा- “जरा रुकिए, मेरा भीख मांगने वाला कटोरा तो आपके तम्बू में ही रह गया|” उस सूफी ने इस पर कुछ मुस्कुराकर कहा- “बाबा, आपके एल्यूमिनियम के कटोरे ने अभी तक आपका पीछा नहीं छोड़ा| मेरी सुनहरी रेशमी गद्दी और मेरे कीमती तम्बू के सोने की कीलें मेरे दिल से नहीं चिपकी थी| वे तो इस जमीन पर टिकी थी; मुझे उन्हें छोड़ने से कोई परेशानी, झंझट नहीं हुई| परंतु आपका अपना दिल अभी तक उसी भीख के कटोरे में अटका हुआ है|”