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अनुपम बलिदान

एक बार की बात है| गढ़वाल में वृक्षों की सहायता के लिए पर्वत पुत्रियों एवं हिमालय के पुत्रों ने वृक्षों से चिपककर उनकी रक्षा का व्यापक आंदोलन किया था|

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वेदों में संदेश दिया गया था कि हरे पत्तों- केशों वाले प्राणियों के रक्षक वृक्ष नमस्कार के योग्य हैं| (वृक्षेभ्य! हरिकेशभ्यः नमः) वृक्षों एवं वनस्पतियों को सदा से प्राणियों एवं मानव का सहायक समझा जाता रहा है| मरुभूमि से व्याप्त राजस्थान में 70-80 गाँवों की विश्नोई बस्तियाँ आज भी वहाँ शादूस्थल या नखलिस्तान का रुप है| वहाँ खूब पेड़ हैं, चहचहाते पक्षी, कलख करते जलचर और मस्ती में झूमते वन प्राणी हैं, जो मानव के, विशेषतः इस पृथ्वी की संतानों के अदम्य उत्साह और उत्सर्ग का संदेश दे रहे हैं|

एक बार गाँव में राजा के कारिन्दे आए| उन्होंने ऐलान किया- राजा का महल बन रहा है| इमारत के लिए अच्छा पुख्ता मसाला चाहिए, मसाले के लिए चूना फूँकना है, उसके लिए लकड़ी चाहिए| राजमहल के लिए लकड़ी चाहिए, गाँव के पेड़ काटने के लिए राजा ने आदेश दिया है| पेड़ बचाने हैं तो डाड या दंड दो| गाँव की नारी अमृता देवी सामने खड़ी थी| उसने दृढ़ता से कहा- “पेड़ नहीं कटेंगे| यह धर्म के विरुद्ध है| मैं दंड भी नहीं दूँगी, यह देने से धर्म का अपमान होगा, धर्म के लिए अपनी बलि दे दूँगी|” अमृता देवी पेड़ से चिपक गई| राजा के कारिन्दों ने पेड़ के साथ उसके टुकड़े भी कर दिए| उसके बाद पेड़ की रक्षा के लिए उसकी तीन बेटियाँ भी शहीद हो गई| इन चार नारियों के बलिदान से गाँव के सारे विश्नोई पुरुष और नरियाँ पेड़ों की रक्षा के लिए आगे आ गए| पेड़ों को बचाते हुए 353 नारियाँ और पुरुष बलि चढ़ गए| यह समाचार सुनकर 8 सितंबर, 1730 के दिन राजा स्वयं ही वहाँ पहुँचा| उसने स्वयं क्षमा माँगी, अपने कारिन्दों को क्षमा माँगने का आदेश दिया| उसने यह आदेश दिया कि मेरे जोधपुर राज्य में विश्नोइयों के गाँवों में एक भी पेड़ न काटा जाए| आज भी सारे मरुस्थल में विश्नोइयों के गाँवों में हरे-भरे पेड़ और वनस्पतियाँ सुरक्षित हैं| इस कहानी में यही बताया गया है कि किसी भी प्राणी का बलिदान खाली नहीं जाता है|