कैसा अन्न खाएँ?
बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद जब पांडवों को उनका जुएँ में धोखे से छीना गया राज्य वापस न मिला, धृतराष्ट्र ने तब संजय को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजा|
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संजय ने युधिष्ठर को बार-बार वैराग्य धर्म का उपदेश दिया कि तुम्हारी यदि जय भी हो जाए तो इससे क्या लाभ होगा, कुल का नाश हो जाएगा| श्री कृष्ण ने कहा- “पांडव अपना अधिकार क्यों छोड़े? यह वैराग्य धर्म का उपदेश उस समय कहाँ गया था, जब छल से शकुनि ने युधिस्टर का राज्य छीना था, उस समय वैराग्य कहाँ गया था जब द्रौपदी का भरी सभा में अपमान हुआ था|”
श्री कृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर पहुँचे| दुर्योधन ने वहाँ उनका शाही स्वागत करने का प्रयत्न किया| उन्हें उसने भोजन के लिए आमंत्रित किया, परंतु श्री कृष्ण ने वह निमंत्रण स्वीकार नहीं किया| दुर्योधन बोला- “जनार्दन, आपके लिए अन्न, फल, वस्त्र तथा शैय्या आदि जो वस्तुएँ प्राप्त की गई, आपने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया? आपने हमारी प्रेमपूर्वक समर्पित पूजा ग्रहण क्यों नहीं की?”
श्री कृष्ण ने उस समय जवाब दिया- “भोजन खिलाने में दो भाव काम करते हैं| एक दया और दूसरी प्रीति- समप्रीति भोज्यानयन्नामि आपद्रभोज्यानि वा पुनः? दया दीन को दिखाई जाती है, सो हम दिन तो नहीं| जिस काम के लिए हम आए हैं पहले वह सिद्ध हो जाए तो हम भोजन भी कर लेंगे| आप अपने ही भाइयों से द्वेश क्यों करते हैं? आप हमें क्या खिलाइएगा? उनका धार्मिक पक्ष है, आपका आधार्मिक, सो जो उनसे द्वेष करता है वह हमसे भी द्वेष करता है| एक बात हमेशा याद रखो- जो द्वेष करता है, उसका अन्न कभी ना खाओ और द्वेष रखने वाले को खिलाना भी नहीं चाहिए- द्विषन्नं नैव भौक्तव्यं द्विषन्तं नैव भोजयेत्|”
श्रीकृष्ण ने इसी कारण दुर्योधन का राजसी आतिथ्य भी स्वीकार नहीं किया, जबकि सरल विदुर का सादा रुखा-सुखा अन्न स्वीकार किया| इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि दयाहीन लोगों का भोजन खाने से अच्छा है कि हम किसी निर्धन के यहाँ भोजन कर ले|