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गरीब का पुण्य

गरीब का पुण्य

गुजरात की राजमाता मीणलदेवी सदा दान-परोपकार में लगी रहती थी| वह एक बार सोमनाथ जी का दर्शन करने गई| अपने साथ वह सवा करोड़ सोने की मोहरें ले गई थी| उन्होंने वहाँ जाकर अपने भार का स्वर्ण तुला दान करवाया|

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अपनी माता की यात्रा के पुनीत अवसर पर उनके बेटे राजा सिद्धार्थ ने प्रजा के लाखों रुपयों का लगान माफ कर दिया| इस सबसे राजमाता मीणल को अंहकार हो गया कि उनके समान दान करने वाली कौन होगी? रात को भगवान् ने उन्हें सपने में आकर प्रेरणा दी कि सोमनाथ मंदिर में एक बहुत ही गरीब स्त्री यात्रा करने आई है, यदि हो सके तो उसका पुण्य माँग लो|

अगले दिन सुबह राजमाता मीणलदेवी ने सोचा| इसमें कौन-सी बड़ी बात है| मैं उस गरीब औरत को ढेर सारे रुपये देकर उसका पुण्य ले लूँगी| राजमाता ने उस सर्वाधिक गरीब स्त्री की खोज में अपने सरकारी कर्मचारी भेजे| वे यात्रा में आई एक बहुत ही गरीब ब्राहमणी को ले आए| राजमाता ने कहा- “बहन, तुम अपना पुण्य मुझे दे दो, उसके बदले जितने रुपये-धन चाहो, माँग लो, मैं दे दूँगी|” उस गरीब ब्राहमणी ने हाथ जोड़कर मना कर दिया| इस पर राजमाता ने कहा- “तूने ऐसा क्या किया है? तेरा कौन-सा पुण्य है, मुझे बता तो सही|”

गरीब ब्राह्मणी बोली- “मैं तो गरीब ब्राह्मणी हूँ| घर से यहाँ तक रास्ते में सैकड़ों गाँव पड़े, सब जगह भीख माँगती आई| कल तीर्थ का उपवास था, किसी पुण्यात्मा ने मुझे बिना नमक का सतू दिया था, उसके आधे भाग से मैंने भगवान् सोमेश्वर की पूजा की थी, उसके शेष आधे में से आधा एक अतिथि को दिया, शेष बचे सतू से मैंने पारण किया| राजमाता, मेरा पुण्य ही क्या है| हाँ, आप बहुत अधिक पुण्यवती है| आपकी यात्रा की खुशी में आपके योग्य बेटे ने प्रजा का लगान छुड़वा दिया, आपने अपने भार के स्वर्ण तुलाएँ भिखारियों को दान में दी, फिर सवा करोड़ स्वर्ण मुद्राओं से शंकर भगवान् की पूजा की| इतना बड़ा पुण्य करने वाली आप मेरा छोटा-सा पुण्य क्यों चाह रही हैं? हाँ, यदि आप मुझ पर क्रोध न करें तो कुछ निवेदन करूँ|”

राजमाता ने भरोसा दिलाया कि वह क्रोध नहीं करेंगी| इस पर गरीब ब्राह्मणी ने कहा- “मुझे अपने संस्कारों तथा संतों के उपदेश से लगता है कि आपके करोड़ों रुपयों के पुण्य से मुझ दरिद्र ब्राह्मणी का पुण्य अधिक भारी है| अपने इन्हीं संस्कारों के कारण मैंने आपके रुपयों के बदले अपना स्वल्प, छोटा-सा पुण्य छोड़ना स्वीकार नहीं किया| मैंने सीखा था सम्पति ज्यादा हो या कम, उसकी अपेक्षा धर्म की मर्यादा एवं नियमों की महता अधिक है| मैंने सदा उनका पालन किया; दूसरे शक्ति का सामर्थ्य होने पर भी निरन्तर क्षमा-सहनशक्ति रखना; तीसरे, उम्र कम होने पर भी संग्रह न करना और पूजा, दान करना| ये चारों बातें छोटी थी, परंतु मैंने इनका दृढ़ता से पालन किया| इसी कारण मैं अपने छोटे से भी सच्चे स्वार्थहीन पुण्य को बड़ी-से-बड़ी सम्पदा के बदले भी छोड़ने को तैयार नहीं हूँ|”

गरीब ब्राह्मणी की इस दो टूक उक्ति से राजमाता का अहंकार चूर-चूर हो गया| बोली- “बहन, आप ठीक ही कहती हो|” इस प्रकार किसी भी मनुष्य को अंहकार नहीं करना चाहिए|