गले की हड्डी
एक भेड़िया था, वह बड़ा ही धूर्त था| एक दिन जंगल में घूमते-घूमते उसे एक मोटा-ताजा मर हुआ बैल पड़ा दिखा| जंगली जीवों ने जगह-जगह से उसे नोंच रखा था| बैल का माँस देखकर भेड़िए के मुहँ में पानी भर आया|
“गले की हड्डी” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio
वह उसके पास गया और जल्दी-जल्दी माँस खाने लगा| उसने सोचा, कहीं ऐसा न हो कि कोई परिचित आ जाए और उसे भी हिस्सा देना पड़े| इसी हडबडी में उसके गले में एक हड्डी फँस गई| भेड़िए ने हड्डी बाहर निकालने का प्रयास तो बहुत किया, मगर सफल न हो सका|
बाहर निकालने के प्रयास में हड्डी उसके गले में और अंदर चली गई| फलतः साँस लेना भी उसको दूभर हो गया|
उसने सोचा कि यदि जल्दी ही हड्डी बाहर नही निकाली तो उसे प्राणों से हाथ धोने पडेंगे| उसी समय उसे नदी तट पर रहने वाले सारस की याद आ गई|
भेड़िया भागा-भागा उसके पास पहुँचा और विनय करने लगा, ‘सारस भाई! मेरे गले में एक हड्डी फँस गई है| तुम्हारी चोंच बहुत लम्बी है और हड्डी तक पहुँच भी जाएगी| गले में फँसी हड्डी निकाल दो, मैं तुम्हें अच्छा-सा उपहार दूँगा|’
सारस ने कुछ देर सोचा, फिर उसे उस पर दया आ गई| वह बोला, ‘अच्छा, मैं तुम्हारे गले की हड्डी निकाल देता हूँ|’
भेड़िए ने अपना बड़ा-सा मुहँ खोला और सारस ने अपनी चोंच से भेड़िए के गले में फँसी हड्डी को निकाल दिया|
हड्डी निकालते ही भेड़िए ने चैन की साँस ली|
‘लाओ, अब मेरा उपहार दो|’ सारस बोला|
‘उपहार…कैसा उपहार?’ भेड़िया बोला, ‘उपहार को तो अब भूल जाओ| भगवान का शुक्रिया अदा करो कि मैंने तुम्हारी गर्दन नही चबाई| इससे बड़ा उपहार और क्या होगा तुम्हारे लिए, जो जान बच गई|’
इससे पहले कि सारस कुछ और बोल पाता, उससे पहले ही भेड़िया वहाँ से रफूचक्कर हो गया| उसकी नीयत अभी भी बैल का माँस खाने की थी|
कथा-सार
किसी के स्वभाव को बदल पाना सरल नही होता| भेड़िया स्वभाव से ही मक्कार था| सारस ने उसके गले की हड्डी निकालकर उसकी प्राण रक्षा की, लेकिन आभार व्यक्त करने के बजाय वह उसी को धमकाने लगा| अतः कृतघ्न व धूर्तों का संग कदापि नही करना चाहिए|