दिव्य कामना
भारतभूमि में एक शासक थे राजा रन्तिदेव| जन-कल्याण एवं आत्म-शुद्धि के लिए उन्होंने 48 दिन का व्रत किया|
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वह इस लंबे व्रत को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के बाद व्रत की समाप्ति के निमित अन्न-पूर्ति या पारण करना चाहते थे कि एक भिक्षुक वहाँ आ पहुँचा- मैं भूखा हूँ, यह आवाज कानों में पड़ते ही रन्तिदेव ने वह भोज्य पदार्थ उस भिखारी को दे दिया|
उसे देने के बाद भी पात्र में कुछ खाधान्न बच गया था| वह उसे धोकर जब अपना व्रत पूर्ण करने के लिए तैयार हुए तब चार कुत्ते लेकर एक चाण्डाल वहाँ आ गया| उसने पुकार की- “मुझे और मेरे कुत्तों के लिए कुछ खाने के लिए है?” वह शेष अन्न भी उन्होंने उसे दे डाला| इस पर वह चाण्डाल अपने असली दिव्य देश में प्रकट हुआ| उसने कहा- “महाराज! आपका दान अपूर्व है, आपका त्याग अनुपम है, भगवान् आपको मोक्ष और सब सिद्धियाँ प्रदान करें|”
रन्तिदेव ने हाथ जोड़कर कहा-
“न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्ग न पुनर्भवम्|
कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामार्तिनाशनम्||”
“भगवान्, न तो मैं राज्य चाहता हूँ, न मुझे कोई स्वर्ग चाहिए, न मुझे मुक्ति-लोक में निवास करना है; मेरी तो एकमात्र इच्छा यही है कि मैं दुःखों, कष्टों से दुःखी आति मानवता के उद्धार के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहूँ| समस्त प्राणियों के दुःख के निवारण के लिए मैं सदा यत्नवान् रहूँ|” इस कहानी से हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि हमारे मन में भी दूसरों के दुःख दर्द को दूर करने की ऐसी ही भावना उत्पन्न हो|