सब समान है

सब समान है

एक बार की बात है| काशी निवास करते हुए शंकराचार्य अपने विधार्थियों के साथ धार्मिक कार्यों को विधिपूर्वक पूरा करते हुए गंगा की ओर जा रहे थे कि रास्ते के सामने एक चाण्डाल चार कुत्तों के साथ आ गया|

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शंकर चाण्डाल को देखकर चिल्ला उठे- “दूर हटो|” शंकर के ये वचन सुनकर चाण्डाल बोला- “हे शंकर! वेदान्त में ब्रह्मा को अद्वितीय कहा गया है, उसमें अपने भेद की कल्पना कैसे कर ली? हाथ में आभूषण के रुप में कमंडल लेकर, पीला वस्त्र धारण कर आप गृहस्थियों को ठगते फिरते हैं| आप केवल बातों में ही चतुर हैं| मुझे आप यहाँ से हटने के लिए कह रहे हैं, पर मेरा प्रश्न है कि क्या आप इस देह को हटने के लिए कह रहे हैं, अथवा देह के अन्दर रहने वाली देह को? इसी के साथ यह भी एक गंभीर प्रश्न है कि मेरा और आप दोनों का शरीर अनाज से बना हैं, इसमें आपने भेद की कल्पना कैसे की? आप ब्राहमण और चाण्डाल में कैसे भेद करते हैं? सूर्य का प्रतिबिंब सुर-नदी गंगा सुरा में समान रुप से पड़ता है| इसी प्रकार चाण्डाल और ब्राह्मण की आत्मा में अंतर नहीं है|” चाण्डाल ने कहा- “भगवान्! सब शरीरों में व्याप्त हैं| फिर मैं पवित्र ब्राह्मण हूँ और तुम चाण्डाल हो- यह मिथ्या धारणा आपके अन्दर कैसे आ गई?”

बौद्धों को शास्त्रार्थ में हराने वाले, प्रचलित धर्म के आचार्य शंकर चाण्डाल के वचन सुनकर लज्जाविभूत हो गए| उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहा-

“स पिजोअस्तु भवतु श्वपचो वा, वन्दनीय इति में दृढ़ निष्ठा|”

-ये मेरी दृढ़ धारणा बन गई है कि यह सम्पूर्ण विश्व सदा एक आत्मा के रुप में है, वह चाहे द्विज हो या चाण्डाल, मेरे लिए वंदनीय है|

शताब्दियों पहले चाण्डाल को नीचे समझकर रास्ते से हटने के लिए कहने की बात शंकराचार्य को अपनी भूल मालूम पड़ रही थी|

इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक मनुष्य को सभी को एक समान समझना चाहिए|

जन-सेवा! यह या वह?

पुराने गुरुकुल कांगड़ी की बात है| एक विधार्थी रोग से पीड़ित था| गुरुकुल की पुरानी परम्परा के अनुसार उस रोगी साथी की परिचर्चा एवं सुश्रुषा के लिए बारी-बारी से साथी विधार्थी ड्यूटी दे रहे थे| आधी रात का समय था| सब रोगी और परिचायक सो गए थे| अचानक वह रोगी विधार्थी पीड़ा से तड़प उठा| वह उठा और उसे तीव्र उल्टी आई| उसी समय कुलभूमि का भ्रमण करते हुए महात्मा मुंशीराम जी वहाँ आ गए| उन्होंने अपने हाथों से उस रोगी विधार्थी की उल्टी का मल संभाला| उसे बाहर शौचालय तक पहुँचाकर, हाथ साफ कर, लोटे में पानी लेकर रोगी को चिलमची में कुल्ला कराया| उसी समय रोगी के साथी ड्यूटी पर आ गये| साथी विधार्थियों की भी आँख खुल गई| महात्मा जी को देखकर विधार्थी शर्मिंदा हो गए और बोले- “थकावट से अचानक झपकी आ गई थी| आपने व्यर्थ में कष्ट किया| मुझे आवाज़ दे देते|”

इसमें कष्ट कैसा? रोगी की आर्त पुकार या उसकी मदद के लिए व्यक्ति को स्वयं ही जिम्मेदारी निभानी होती है| इस कार्य के लिए दूसरे को पुकारना कुछ मतलब नहीं रखता|”

इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि दूसरों के काम आना ही मनुष्यता की पहचान होती है|