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मुट्ठी भर पीली सरसों के दाने

एक समय की बात है|

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महात्मा बुद्ध संसार में व्याप्त प्राणियों की पीड़ा और क्षणभंगुर संसार पर, बिहार के एक नगर श्रावस्ती की एक सभा में भाषण दे रहे थे| उसी समय सभा के एक कोने से रोने की आवाज आई, एक विधवा ब्राह्मणी अपनी गोद में एक बच्चे को उठाए आई| बालक को महात्मा बुद्ध के चरणों में रखकर बोली- “महात्मा जी, मौत की वेदना क्या होती है, यह मुझसे पूछो| मुझे मेरा एकमात्र लाल छोड़कर चला गया|”

बुद्ध उस मृत बालक को गोद में लेकर बोले- “बालक बहुत सुंदर है और उससे भी सुंदर उसकी माँ है| मैं यदि तुम्हारे बालक को जीवित कर दूँ तो…?”

विधवा ब्राह्मणी बोली- “महाराज, मेरा बेटा मुझे वापस मिल जाए तो मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकती हूँ|”

महात्मा बुद्ध ने उत्तर दिया- “ठीक है, तुम मुट्ठी भर पीली सरसों के दाने ऐसे लाकर दे दो|” वह विधवा माँ दाने लाने के लिए तेजी से बढ़ी तो महात्मा बुद्ध बोले- “माँ! ये पीली सरसों के दाने ऐसे घर से लाना जहाँ कभी कोई मृत्यु न हुई हो|”

महात्मा जी की बात सुनकर विधवा माँ तेजी से दौड़ी| एक दरवाजे पर गई, भीख के लिए पुकार लगाई| गृहपति ने दरवाजे पर आकर पूछा- “क्या चाहिए?”- “केवल मुट्ठी भर पीली सरसों के दाने|”

गृहपति सरसों के दाने लेने के लिए घर में घुसने लगा तो उन्हें रोककर विधवा बोली- “श्रीमान! दाने लाने से पहले यह बताइये कि कभी आपके परिवार में किसी की मृत्यु तो नहीं हुई?” गृहपति ने जवाब दिया- “माँ, क्या कहती हो! इस समय तो घर में पिता, दादा सब मौजूद हैं, पर उनके पिता कहाँ हैं? ऐसा कौन-सा घर है जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो?”

ब्राह्मणी की आँख खुल गई| वह महात्मा बुद्ध के पास गयी और बोली- “मुझे ऐसा कोई घर नहीं मिला, जहाँ कभी कोई मृत्यु न हुई हो| सब प्राणी अपने कर्मों के फल भोगते हैं| मेरी आँखें खुल गई हैं|” इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि मनुष्य इस संसार में आता है उसे जाना भी पड़ता है फिर उसके लिए इतना मोह क्यों?