दान का स्वरूप
एक दिन भक्तसिरोमणि देवर्षि नारद विणापर हरि का यशोगान करते हुए एक ऐसे स्थान पहुँचे जहाँ कुछ ब्राह्मण अत्यन्त खिन्न और उदास-अवस्था में बैठे थे|
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उन्हें दुःखी देखकर नारद जी ने पूछा-‘पूज्य ब्राह्मण देवो! आप सब इस प्रकार क्यों उदास हो रहे हैं? कृपया मुझे अपने दुःख का कारण बताइये, सम्भवतः मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ|’
ब्राह्मणों ने उत्तर दिया-‘मुनिवर! एक दिन सौराष्ट्र के राजा धर्मवर्मा ने आकाशवाणी सुनी’-
द्विहेतुः षडधिष्ठानं षडगङं च द्विपाक्युक्|
चतुष्प्रकारं त्रिविधं त्रिनाशं दानमुच्यते||
-राजा को दानविषयक इस श्लोक का अर्थ कुछ भी समझ में नहीं आया| उन्होंने दैवी वाणी से इसका अर्थ समझाने की प्रार्थना की, किंतु उसने कृपा नहीं की| तब राजा ने अपने राज्य में घोषणा करायी कि ‘जो विद्वान मुझे इस श्लोक का यथार्थ अभिप्राय समझा देगा, उसे मैं सात लाख गौएँ, इतनी ही स्वर्ण-मुद्राएँ तथा सात गाँव पुरस्कार रूप में दूँगा|’
देवर्ष! इस श्लोक के अत्यन्त गूढ़ होने के कारण कोई भी विद्वान राजा को इसका अर्थ नहीं समझा पाता| हम भी इसकी व्याख्या करने के लिये राजप्रसाद में गये थे, किंतु राजा का समाधान न कर पाने के कारण अपना-सा मुँह लेकर वापस आ गये हमारी खिन्नताका कारण यही है|’
यह सुनकर देवर्षि नारद वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर राजा धर्मवर्मा के यहाँ गये और प्रणाम करके बोले-‘राजन! मैं आपके श्लोक की व्याख्या करने के लिये आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूँ|’ धर्मवर्मा बोले-‘ब्राह्मणदेव! ऐसा आश्वासन तो मुझे अनेक विद्वानों ने दिया, किंतु कोई भी मुझे संतुष्ट नहीं कर सका| यदि आप मेरा पूर्ण समाधान कर सकें तो मैं आपका अत्यन्त आभार मानूँगा|’
नारदजी ने निवेदन किया-‘राजन! इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि दान के दो हेतु या प्रेरक भाव होते हैं, श्रद्धा और शक्ति| दान की श्रेष्ठता उसकी अधिकता पर निर्भर नहीं करती, अपितु यदि न्याय से उपार्जित धन श्रद्धापूर्वक यथाशक्ति दान के रूप में दिया जाय तो वह थोड़ा होने पर भी भगवान् की पूर्ण प्रसन्नता और अनुग्रह का कारण होता है| दान के छः अधिष्ठान होते हैं, जिनके आधार पर वह स्थित रहता है| वे हैं-धर्म, अर्थ, काम लज्जा, हर्ष और भय| दान के छः अंग होते हैं-दाता, प्रतिग्रहीता (दान लेने या स्वीकार करने वाला), शुद्धि, धर्मयुक्त देय वस्तु, देश और काल| दान के दो फल होते हैं-यह लोक और परलोक, इस लोक में अभ्युदय या उन्नति और परलोक में सुख और कल्याण| दान के चार प्रकार होते हैं-ध्रुव, त्रिक, काम्य और नैमित्तिक| प्याऊ, बाग-बगीचे, तालाब-बावड़ी, विद्यालय, चिकित्सालय, पुस्तकालय, अनाथालय के निर्माण आदि सार्वजनिक कार्यों के लिये किया गया दान चिरस्थायी या नित्य होने के कारण ध्रुव कहलाता है तथा वह दाता की सब कामनाओं की पूर्ति करने वाला होता है| जो दान संतान, विजय (सफलता) और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये प्रतिदिन दिया जाय उसे त्रिक कहते हैं| यह पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा-इन तीन एषणाओं की पूर्ति के लिये किये जाने के कारण त्रिक कहलाता है| जो दान काम्य कहते हैं| जो दान विशेष अवसर के उपलक्ष्य में विशेष कर्म और गुणों को देखते हुए अग्निहोत्र के बिना किया जाय वह नैमित्तिक कहलाता है| दान के तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ| उत्तम कोटि के पदार्थों का दान कनिष्ठ कहलाता है| दान देकर पछताना, कुपात्र को दान देना और श्रद्धा के बिना दान देना-ये तीन कार्य दान के नाशक हैं; क्योंकि इनके कारण किया-कराया दान भी निष्फल होता है|’
धर्मवर्मा इस अदभुत व्याख्या को सुनकर गद्गद हो उठे| वे बोले-‘मुनिवर! मुझे लगता हैं कि आप साधारण मनुष्य नहीं हैं| मैं आपके चरणों में मस्तक नवाकर प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे अपना यथार्थ परिचय दीजिये|’
नारद जी ने कहा-‘राजन! मैं देवर्षि नारद हूँ| इस श्लोक की व्याख्या के पुरस्कार के रूप में आप के पास ही धरोहर के रूप में रख देता हूँ| आवश्यकता पड़ने पर मैं आपसे ले लूँगा|’ यह कहकर वे वहाँ से चल दिये और रैवतक पर्वत पर आकर विचार करने लगे-‘यदि कोई योग्य ब्राह्मण मिल जाय मैं यह भूमि आदि सम्पत्ति उसे दे दूँ|’ तब उन्होंने बारह प्रश्न तैयार किये और उन्हें गाते हुए पृथ्वी पर विचरण करने लगे| उनके प्रश्न ये थे-
1-मातृकाएँ क्या हैं और कितनी हैं? 2-पचीस तत्त्वों से बना विचित्र घर कौन-सा है? 3-अनेक रूपों वाली स्त्री को एक रूपवाली बनाने की कला कौन जानता है? 4-संसार में विचित्र कथाओं की रचना कौन जानता है? 5-समुद्र में सबसे बड़ा ग्राह कौन-सा है? 6-आठ प्रकार के ब्राह्मण कौन-से हैं? 7-चारों युगों के आरम्भ के दिन कौन-से हैं? 8-चौदह मन्वन्तरों का प्रारम्भ किस दिन हुआ था? 9-सूर्यदेवता रथ में पहले-पहल किस दिन बैठे थे? 10-प्राणियों को कृष्ण सर्प की तरह पीड़ित करने वाला कौन है? 11-इस महान् विश्व में सबसे अधिक बुद्धिमान् कौन है? 12-दो मार्ग कौन-से हैं?
उपर्युक्त प्रश्नों को पूछते हुए देवर्षि नारद ने सर्वत्र भ्रमण किया, किंतु कहीं भी उन्हें इनका उचित समाधान नहीं प्राप्त हुआ| अंत में वे ‘कलाप’ नामक गाँव में पहुँचे, जहाँ चौरासी हजार ब्राह्मण नित्यप्रति विद्याधन, अग्निहोत्र और तपस्या आदि में रत रहते थे| वहाँ भी उन्होंने अपने प्रश्नों को दुहराया| देवर्षि के प्रश्न सुनकर ब्राह्मणों ने कहा-‘मुने! आपके प्रश्न तो बालकोचित हैं, हममें से जिसे आप छोटा और मुर्ख समझते हों उसी से ये पूछ लीजिये| वह अवश्य इनके उत्तर दे देगा|’ यह सुनकर देवर्षि नारद ने एक बालक की ओर संकेत किया| उसका नाम था सुतनु! उसने उठकर देवर्षि के चरणों में प्रणाम करके कहा-‘महर्षे! इन प्रश्नों का उत्तर देना मैं अपने लिये विशेष गौरव का विषय नहीं समझता, किंतु आपको मेरे गुरुजनों के प्रति संशय न हो जाय इस दृष्टि से इनका उत्तर देना आवश्यक ही है|’ अच्छा सुनिये-
1-ॐ और अ, आ आदि 52 अक्षर ही मातृकाएँ हैं|
2-पचीस तत्त्वों (पाँच महाभूत, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच विषय, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति तथा पुरुष)-से बना घर यह शरीर ही है|
3-बुद्धि ही अनेकरूपा स्त्री है, किंतु जब इसका सम्बन्ध धर्म से जुड़ जाता है तब यह एकरूपा हो जाती है|
4-पण्डित ही विचित्र कथाओं के रचयिता हैं|
5-इस संसार-समुद्र में लोभ ही महाग्राह है|
6-आठ प्रकार के ब्राह्मण ये हैं-मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनूचान, भ्रूण, ऋषिकल्प,ऋषि और मुनि| इनके लक्षण इस प्रकार हैं-
जो ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुआ हो, किंतु उनके गुणों से युक्त न हो, अचार और क्रिया से रहित हो, वह ‘मात्र’ कहलाता है| जो वेदों में पारंगत हो, आचारवान, सरल-स्वभाव, शान्तप्रकृति, एकान्तसेवी, सत्यभाषी और दयालु हो, वह ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है| जो वेदों की एक शाखा का छः अंगों और श्रौत विधियों के सहित अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन, दान और प्रतिग्रह-इन छः कर्मों में रत रहता हो, उस धर्मविद ब्राह्मण को ‘श्रोत्रिय’ कहते हैं| जो ब्राह्मण वेदों और वेदांगों के तत्त्व को जानने वाला,शुद्धात्मा, पापरहित, श्रोत्रिय के गुणों से सम्पन्न, श्रेष्ठ और प्राज्ञ हो, उसे ‘अनूचान’ कहा गया है| जो अनूचान के गुणों से युक्त हो, नियमित रूप से यज्ञ और स्वाध्याय करनेवाला, यज्ञशेष का ही भोग करने वाला और जितेन्द्रिय हो, उसे शिष्टजनों ने ‘भ्रूण’ की संज्ञा दी है| जो समस्त वैदिक और लौकिक ज्ञान प्राप्त करके आश्रमव्यवस्था का पालन करे, नित्य आत्मवशी रहे, उसे ज्ञानियों ने ‘ऋषिकल्प’ नाम से स्मरण किया है| जो ब्राह्मण उर्ध्वरेता, अग्रासन का अधिकारी, नियत आहार करने वाला, संशयरहित, शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ और सत्यप्रतिज्ञ हो, उसे ‘ऋषि’ की पदवी दी गयी है| जो कर्मों से निवृत, सम्पूर्ण तत्त्व का ज्ञाता, काम-क्रोध रहित, ध्यानस्थ, निष्क्रिय और दन्त हो, मिट्टी और सोने में समभाव रखता हो, उसे ‘मुनि’ के सामने सम्मानित किया गया है|
7-सत्ययुग का प्रारम्भ कार्तिकशुक्ल-नवमी को, त्रेतायुग का वैशाखशुक्ल-तृतीयाको, द्वापर का माघकृष्ण-अमावस्या को और कलियुग का प्रारम्भ भाद्रकृष्ण-त्रयोदशी को हुआ था| अतः ये तिथियाँ ही युगों की आदि तिथियाँ हैं|
8-स्वायम्भूव आदि चौदह मन्वन्तरों की आदि तिथियाँ क्रम से अश्विनशुक्ल-नवमी, कार्तिकशुक्ल-द्वादशी, चैत्रशुक्ल-तृतीय, भाद्रपदशुक्ल-तृतीय, फाल्गुनकृष्ण-अमावस्या, पौषशुक्ल-एकादशी, आषाढ़शुक्ल-दशमी, माघशुक्ल-सप्तमी, श्रावणकृष्ण-अष्टमी, आषाढ़ी पूर्णिमा, कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा, चैत्री पूर्णिमा तथा ज्येष्ठी पूर्णिमा हैं|
9-भगवान् सूर्य पहले-पहल माघशुक्ल-सप्तमी को रथपर आरुढ़ हुए|
10-जो सदा माँगता रहता है वही प्राणियों का उद्वेजक है|
11-सबसे अधिक बुद्धिमान् और दक्ष मनुष्य वही है जो मनुष्ययोनि का मूल्य समझकर उसके द्वारा पूर्ण मोक्ष को सिद्ध कर ले|
12-दो मार्ग हैं-अर्चिमान और धूममार्ग-देवयान और पितृयान|
विद्वान बालक सतुनु के इन उत्तरों से पूर्णतया संतुष्ट होकर देवर्षि नारद धर्मवर्मा से प्राप्त भूमि और सम्पत्ति बालक को भेंट करके सानन्द ब्रम्हालोक को चले गये|