अंबा

“बेटा देवव्रत, तुमने तो मेरे विवाह के समय ही जीवन भर अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा कर ली थी| इसलिए तुम्हारे विवाह करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता जबकि बड़ा भाई होने के नाते पहले तुम्हारा विवाह होना चाहिए था|” राजमाता सत्यवती ने अपने ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत से कहा जिन्हें संसार उनकी आजीवन अविवाहित तथा अखंड ब्रह्मचारी रहने की भीष्म प्रतिज्ञा के कारण ‘भीष्म’ कह कर पुकारने लगा था|

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“आप ठीक कहती हैं माताश्री” भीष्म ने कहा “लेकिन आज मेरे विवाह के विषय में चिंतित क्यों हो उठी हैं?”

“तुम्हारे पिता का स्वर्गवास हुए कई वर्ष व्यतीत हो चुके हैं| तुमने विवाह न करने की प्रतिज्ञा कर ली है| और तुम्हारे दोनों छोटे भाई विचित्र वीर्य और चित्रांगद अभी तक कुंवारे हैं| हस्तिनापुर के इस विशाल राज्य के लिए उत्तराधिकारी की आवश्यकता है पुत्र, क्या कुरु वंश तुम तीनों भाइयों के बाद समाप्त हो जाएगा?”

“नहीं मां, भीष्म के जीते जी ऐसा कभी नहीं होगा|” भीष्म ने कहा, “इतने विशाल और विस्तृत राज्य का स्वामी होते हुए भी विचित्रवीर्य और चित्रांगद में एक कमी है| न जाने उनके शरीर इतने दुबले-पतले क्यों हैं| और यही कारण है कि वे जिस स्वयंवर में भी गए हैं राजकन्याओं ने उन्हें अनदेखा कर दिया है|”

“मैंने सुना है कि काशी राज एक साथ ही अपनी तीन कन्याओं का स्वयंवर आयोजित करने जा रहे हैं| स्वयंवर का निमंत्रण आ चुका है| मैं चाहती हूं कि इस बार अपने भाइयों के साथ तुम भी स्वयंवर में जाओ|”

“मैं स्वयंवर में जाऊं? – आप यह क्या कह रही हैं माताश्री?” भीष्म ने आश्चर्य से कहा, “आपने अभी-अभी तो मुझे मेरी प्रतिज्ञा का स्मरण कराया था|”

“मैंने यह कब कहा कि तुम स्वयंवर में अन्य राजाओं और राजकुमारों की तरह भाग लेने जाओ, तुम अपने छोटे भाइयों के संरक्षक के रूप में इस स्वयंवर में भाग लो और जैसे भी हो सके अपने भाइयों का विवाह कराकर उनकी वधुओं के साथ लौटो|”

सत्यवती की बात सुनकर भीष्म कुछ देर तक सोच में डूबे खड़े रहे फिर दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाते हुए बोले: “आपकी आज्ञा शिरोधार्य है माताश्री|”

विचित्रवीर्य और चित्रांगद के साथ वही हुआ जो पिछले कई स्वयंवरों में उनके साथ होता आया था| काशीराज की तीनों पुत्रियां अंबा, अंबिका और अंबालिका हाथों में जयमाला लिए स्वयंवर के मंडप में पहुंचीं और एक छोर से अपने-अपने आसनों पर बैठे राजाओं और राजकुमारों पर नजर डालती हुई आगे बढ़ने लगीं|

फिर जैसे ही तीनों राजकन्याएं विचित्रवीर्य और चित्रांगद पर एक उचटती हुई नजर डालकर आगे बढ़ने लगीं संरक्षक के रूप में दोनों राजकुमारों के पीछे बैठे भीष्म उठकर खड़े हो गए और उन तीनों राजकन्याओं के पास पहुंचकर अपना धनुष संभाल कर बोले, “काशीराज और स्वयंवर में पधारे अन्य सभी राजा तथा राजकुमार ध्यान से सुनें| मैं इन तीनों राजकन्याओं का अपहरण करके हस्तिनापुर ले जा रहा हूं| आप लोग ही नहीं समूचा विश्व मुझसे भली भांति परिचित है| और याद रखिए, मानव देह मिलना न जाने कितने पूर्वजन्मों के सत्कर्मों का परिणाम होती है| इसलिए व्यर्थ ही मेरे मार्ग में बाधक बनने की चेष्टा करके इस सुंदर देह को मत गंवाइए|”

भीष्म की गर्जना भरी घोषणा सुनकर स्वयंवर सभा में उपस्थित राजाओं और राजकुमारों के चेहरे झुक गए| उन्हें लगा जैसे भीष्म के शब्दों में कोई ऐसा जादू था जिसने उन्हें आसनों के साथ इस तरह चिपका दिया है कि वे चाह कर भी उठ नहीं पा रहे हैं| भीष्म की गर्जना ने उनके हाथ-पैरों की शक्ति छीन ली थी| मद्र देश के राजा शल्य भी अपनी प्रेयसी अंबा का अपहरण चुपचाप बैठे देखते रहे| उन्हें स्वयंवर से पहले ही यह समाचार मिल चुका था कि अंबा उन्हीं के गले में जयमाला डालेगी, लेकिन उनमें भी इतनी शक्ति नहीं थी कि वह भीष्म का विरोध कर पाते|

स्वयंवर में आए हुए राजा और राजकुमार चुपचाप उठे और मंडप से निकलकर अपने-अपने नगर की ओर चल दिए|

भीष्म ने तीनों राजकुमारियों को अपने रथ पर बैठाया और तीव्रता से हस्तिनापुर की ओर चल दिए| उनका विरोध कर पाने की शक्ति काशीराज और उनकी सेना में भी नहीं थी|

हस्तिनापुर पहुंचकर भीष्म को पता चला कि अंबा पहले ही मद्र नरेश शल्य का वरण कर चुकी है| इसलिए उन्होंने अंबिका का विवाह चित्रांगद के साथ और अंबालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ बड़ी धूमधाम से कर दिया|

“अंबा, मुझे अब पता चला है कि तुम मद्र नरेश शल्य को पति के रूप में वर चुकी हो| अगर मुझे यह बात पहले मालूम होती तो मैं तुम्हें कभी हस्तिनापुर लेकर नहीं आता|” भीष्म ने राजकुमारी अंबा से कहा, “तुम शल्य के पास जा सकती हो| मैं तुम्हें मद्र देश पहुंचाने की व्यवस्था किए देता हूं|”

“मैं आपकी यह कृपा आजीवन नहीं भूलूंगी|” अंबा ने कृतज्ञता से सिर झुका लिया|

भीष्म ने कुछ सैनिकों के साथ अंबा को उसी दिन रथ में बैठाकर मद्र देश भेज दिया|

अंबा को देखकर मद्र नरेश शल्य चौंक पड़े|

“तुम – भीष्म ने तुम्हें कैसे छोड़ दिया राजकुमारी?”

“उन्होंने अंबिका का विवाह राजकुमार चित्रांगद के साथ और अंबालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ कर दिया|” अंबा ने बताया “दरअसल भीष्म को पहले ही पता चल चुका था कि मैं आपसे प्रेम करती हूं और मैंने मन ही मन आपको पति के रूप में वरण करने का निश्चय कर लिया है| साथ ही आप भी मुझे स्नेह करते हैं और अपनी पत्नी बनाना चाहते हैं, इसलिए विवाह कार्य से फुरसत पाने के बाद उन्होंने मुझे आपके पास भेज दिया|”

“नहीं अंबा, यह असंभव है|” शल्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “यह सच है कि जिस तरह तुम मुझे प्रेम करती थीं और तुमने मेरे साथ विवाह करने का निश्चय कर लिया था उसी प्रकार मैं भी तुम्हें प्रेम करता था और मैंने भी निश्चय कर लिया था कि मैं तुम्हें ही महारानी बनाऊंगा| लेकिन अंबा, अब तो सब कुछ समाप्त हो गया| मैंने अपनी आंखों से भीष्म को तुम्हारा हाथ पकड़कर अपने रथ में बैठाते हुए देखा था| उसके बाद तुम इतने दिनों  भीष्म के घर में रह चुकी हो| कोई भी पुरुष तुम जैसी सुंदर युवती को अपहरण करके ले जाए और इतने दिनों तक अपने घर में रखे – नहीं अंबा, दूध के धुले तो वे देवता भी नहीं थे जिनकी हम वंदना करते हैं| और फिर जब किसी स्त्री का हाथ कोई पुरुष पकड़ लेता है तो शास्त्रों के अनुसार वह उसी की हो जाती है| तुम भीष्म की हो चुकी हो| इतने दिन उसके घर में रह भी चुकी हो, इसके बाद तो तुम दोनों को एक दूसरे को अपनाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए| तुम वापस भीष्म के पास हस्तिनापुर चली जाओ| हस्तिनापुर से तुम्हारे साथ आए हुए अंगरक्षक सैनिक और रथ अभी यहीं हैं| वे लोग तुम्हें बड़े आराम से हस्तिनापुर ले जाएंगे|”

शल्य की बात सुनकर अंबा क्रोध और ग्लानि की अधिकता के कारण रो पड़ी| उसने रुंधे हुए स्वर में रोते-रोते कहा, “आपका विचार गलत है मद्रराज| केवल हाथ पकड़ लेने से ही कोई स्त्री किसी पुरुष की पत्नी नहीं बन जाती| और उस स्थिति में तो बिलकुल नहीं जब वह इससे पहले ही किसी का वरण कर चुकी हो|” अंबा ने कहा; “मैं आपकी ही हूं शल्य, मुझे इतनी निष्ठुरता से ठुकराइए मत|”

अंबा बिलख-बिलख कर रोने लगी|

लेकिन शल्य पर पर उसके आंसुओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ा| विवश और निराश अंबा-प्रेमी द्वारा ठुकराई गई प्रेमिका फिर रथ में जा बैठी और रथ वेग से हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा|

“मद्र नरेश शल्य ने तुम्हें मेरे पास क्यों भेज दिया?” भीष्म ने आश्चर्य भरे स्वर में कहा, “इसका अर्थ है उसे तुमसे कभी प्रेम नहीं था| इससे स्पष्ट हो जाता है कि वह पुरुष नहीं है| उसकी प्रेमिका का हाथ जिस व्यक्ति ने पकड़ा था उसके मन में उसकी प्रेमिका के प्रति न तो अनुरक्ति थी, न वासना और न उसे पाने की कामना| शल्य कायर हैं जो अपनी निर्दोष, गंगा जैसी पवित्र प्रेमिका को इस साधारण सी बात पर अपना नहीं सका| – कायर – कापुरुष -|”

भीष्म का क्रोध बढ़ता जा रहा था| उन्होंने अपना धनुष उठा लिया, “चलो अंबा, मैं स्वयं तुम्हें तुम्हारे प्रेमी के पास पहुंचाए देता हूं|”

“नहीं महाराज, शल्य ने मुझे ठुकरा दिया है| मैं नारी हूं| कोई भी नारी इस अपमान को सहन नहीं कर सकती| मेरे हृदय में भी ऐसे कायर के लिए अब कोई स्थान नहीं है|” अंबा ने कहा, “क्योंकि स्वयंवर में एकत्र इतने लोगों के सामने आपने मेरा हाथ थामा था इसलिए अब इस हाथ को कोई दूसरा नहीं थाम पाएगा| अब तो आप को ही मुझे आश्रय देना पड़ेगा, क्योंकि संसार की दृष्टि में और सामाजिक तथा धार्मिक नियमों के अनुसार मैं आपकी हो चुकी हूं|”

“अंबा, जिस समय मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा था न तो मेरे मन में तुम्हारे प्रति स्नेह की भावना थी और न तुम्हारे मन में मेरे प्रति ही अनुराग था| जिस कार्य में न तो कर्म हो और न भावना हो वह कार्य – कार्य नहीं माना जा सकता| और फिर सारा संसार जानता है कि मैं जीवन भर अविवाहित रहने की ही नहीं अखंड ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर चूका हूं| इसलिए तुम्हें पत्नी या उपपत्नी के रूप में रख पाना मेरे लिए नितांत असंभव है | मैं तुम्हारे पिता के पास तुम्हें पहुंचाने की व्यवस्था कर देता हूं| अब तुम्हारे लिए अंतिम स्थान तुम्हारे माता-पिता का घर ही रह गया है|”

“नहीं अब तो मुझे मृत्यु ही आश्रय दे सकती है|” अंबा ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा, “प्रेमी ने मुझे ठुकरा दिया, इस अपराध में कि आपने भरी सभा में मेरा हाथ पकड़ा था| और आप मुझे इसलिए स्वीकार नहीं कर रहे कि आप आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा कर चुके हैं| मैं अपने माता-पिता के घर इसलिए नहीं जा सकती कि मेरा अपहरण किया गया है| अर्थात इस संसार में अब मेरे लिए कहीं भी स्थान शेष नहीं रहा|”

“नहीं अंबा, अपहरण के लिए तुम दोषी नहीं हो| कोई भी माता-पिता इतने निष्ठुर नहीं होते कि अपनी निर्दोष कन्या को निराश्रित छोड़ दें|”

“भीष्म!” अंबा की आंखों से आंसुओं के स्थान पर क्रोध की चिंगारियां बरसने लगीं| मेरी यह दशा तुम्हारे ही कारण हुई है| मैं तुमसे प्रतिशोध लिए बिना चैन से नहीं बैठूंगी|”

यह कहकर अंबा राजभवन से निकली और नदी की ओर चल पड़ी जहां भीष्म के गुरु भगवान परशुराम का आश्रम था|

“भीष्म, तुमने जिस उद्देश्य से अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की थी वह पूरा हो चूका है| तुमने स्वयं राज्य ग्रहण नहीं किया| तुमने अपनी विमाता के पुत्र को राज्य के समस्त अधिकार दे दिए| इस तरह तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी है| अत: यदि तुम अब विवाह कर लेते हो तो उससे तुम पर कोई दोष नहीं लगता| तुम्हारी विमाता भी केवल यही चाहती हैं कि उनके पुत्र और उसके पुत्रों की संतान ही इस राज्य की अधिकारी बने| उनका यह उद्देश्य पूरा हो चूका है| इसलिए मेरी राय है कि तुम अंबा को अपना लो,” गुरु परशुराम ने भीष्म को समझाया|

“नहीं गुरुदेव, प्रतिज्ञा उद्देश्य की प्राप्ति के साथ समाप्त नहीं हो जाती, वह तो प्रतिज्ञा करने वाले व्यक्ति के जीवन के साथ समाप्त होती है| मैंने अपनी मां गंगा को साक्षी बनाकर प्रतिज्ञा की थी| मैं न तो अपनी माता के साथ विश्वासघात कर सकता हूं न अपनी विमाता के साथ| मेरी प्रतिज्ञा को तो मेरे जीवन के साथ ही अंत होगा|” भीष्म ने बड़ी विनम्रता से कहा|

“अगर तुम मेरी आज्ञा का पालन नहीं करते तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ|” परशुराम ने अपना धनुष संभालते हुए कहा|

“जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव|” भीष्म ने भी अपनी धनुष उठा लिया, “लेकिन यदि मैं पराजित भी हो गया – जिसकी संभावना ही अधिक है – तो भी मैं अंबा के साथ विवाह नहीं करूंगा| अपनी प्रतिज्ञा भंग करने के बजाय स्वयं को अग्नि को समर्पित कर देना मैं श्रेष्ठ समझूंगा|”

दोनों ने अपने-अपने शस्त्र संभाल लिए| गुरु-शिष्य का युद्ध घंटों चलता रहा| जब सूर्यास्त हो गया तो युद्ध बंद हो गया|

इसी प्रकार सात दिन बीत गए| न कोई विजयी हुआ न पराजित| अंत में परशुराम ने युद्ध समाप्त करते हुए कहा, “भीष्म, तुमने अपनी प्रतिज्ञा के मद में अपने गुरु का अपमान किया है| उस पर शस्त्र उठाया है| मैं तुम्हें शाप देता हूं कि युद्ध में तुम्हारी मृत्यु का कारण तुम्हारे ये शस्त्र ही बनेंगे| तुम्हारे शस्त्र लक्ष्यहीन हो जाया करेंगे|”

शिष्य को शाप देकर गुरु परशुराम अपने आश्रम में लौट गए|

परशुराम के जाने के बाद अंबा ने क्रोध और दुख भरे स्वर में कहा, “भीष्म, मेरे लिए अग्नि की लपलपाती लपटों में आश्रय लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय शेष नहीं रहा| मेरी इस मृत्यु का कारण जिस प्रकार आज तुम बन रहे हो उसी प्रकार एक दिन मैं तुम्हारी मृत्यु का कारण बनूंगी|”

यह कह कर अंबा वहां से चल पड़ी|

निर्जन वन में जाकर उसने भीष्म से प्रतिशोध लेने के लिए तपस्या करनी आरंभ कर दी|

फिर एक दिन उसने यज्ञ करते हुए अग्निदेव का आवाहन किया|

उसकी निष्ठा, भक्ति और साधना से प्रभावित होकर अग्निदेव यज्ञ कुंड में प्रगत हुए|

“तुमने मेरा स्मरण किसलिए किया पुत्री?” अग्निदेव ने पूछा|

“पूज्य, मैं भीष्म से प्रतिशोध लेना चाहती हूं| मुझे अपनी शरण में लेकर मुझे ऐसा जीवन दीजिए जिसमें मैं भीष्म से अपने अपमान और तिरस्कार का प्रतिशोध ले सकूं|”

“ऐसा ही होगा पुत्री, आओ मेरी गोद में आ जाओ|” अग्निदेव ने कहा|

अंबा उठी और उसने अग्निकुंड में छलांग लगा दी|

अंबा ने दूसरे जन्म में महाराजा द्रुपद के घर में शिखंडी के रूप में जन्म लिया|

महाभारत के युद्ध में इसी शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन ने भीष्म पर बाण वर्षा की तो भीष्म उसके बाणों का समुचित उत्तर नहीं दे पाए क्योंकि वह अर्जुन की ओर देखे बिना बाण चलाते थे| वह अर्जुन की ओर इसलिए नहीं देखते थे कि शिखंडी अर्जुन के आगे खड़ा था| और भीष्म जानते थे कि शिखंडी और कोई नहीं वही अंबा है जिसने उसने अपने तिरस्कार और अपमान का बदला लेने के लिए शिखंडी के रूप में जन्म लिया है|