Homeशिक्षाप्रद कथाएँबुरे का उपकार (अलिफ लैला) – शिक्षाप्रद कथा

बुरे का उपकार (अलिफ लैला) – शिक्षाप्रद कथा

किसी नगर में एक भला आदमी रहता था| उसका पड़ोसी उसके प्रति ईर्ष्या और द्वेष रखता था| एक दिन उसने सोचा कि अपना घर-बार छोड़कर कहीं और जगह जा बसूं, क्योंकि मैं अपने जिस पड़ोसी के प्रति उपकार करता हूं| वही मुझसे बैर रखता है|

तदुपरांत वह भला आदमी वहां से कुछ दूर पर बसे दूसरे नगर में एक अच्छा मकान खरीदकर रहने लगा| उस मकान में एक अंधा कुआं था|

वह भला आदमी फकीरों का बाना ओढ़ रात-दिन भगवान के भजन में समय व्यतीत करने लगा| उसने अपने मकान में कई कक्ष बनवाए, जिनमें वह साधु-संतों को ठहराता और उन्हें भोजन भी कराता| अपने व्यवहार के कारण वह नगर में बहुत प्रसिद्ध हो गया| लोग उससे मिलने आने लगे| देखते ही देखते उसकी प्रसिद्धि बढ़ गई| दूर-दूर से लोग आते और अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करने के लिए उससे निवेदन करते| उस भले आदमी के चमत्कारों की ख्याति उस नगर में भी पहुंची, जहां वह पहले रहा करता था| उसके पुराने पड़ोसी को यह सुनकर और भी ईर्ष्या हुई| उसने निश्चय किया कि क्यों न मैं उसी के मकान में जाकर उसे मार डालूं| यही विचार कर वह उसके घर आया| संत पुरुष ने अपने पुराने पड़ोसी की बड़ी सेवा की|

तब उस ईर्ष्यालु व्यक्ति ने कहा, “मुझ पर एक विपत्ति आन पड़ी है, जिसके निवारण के लिए मैं तुमसे प्रार्थना करने आया हूं| मैं अपनी इस परेशानी को गुप्त भी रखना चाहता हूं| अत: तुम अपने चेलों तथा अन्य साधुओं से कह देना कि जिस समय मैं और तुम बातें कर रहे हों, कोई अन्य व्यक्ति पास भी न आए|”

संत पुरुष ने ऐसा ही किया|

अब उस दुष्ट आदमी ने एक झूठ-मूठ का लंबा किस्सा बनाया और संत पुरुष से बोला, “हम लोग टहलते हुए अपनी बात पूरी करते हैं|

संत आदमी ने उसकी यह भी बात मान ली| बात करते-करते जब वे उस अंधे कुएं के पास आए तो दुष्ट व्यक्ति ने उस भले आदमी को अचानक धक्का देकर कुएं में गिरा दिया और स्वयं चुपके से मकान से निकलकर भाग खड़ा हुआ| वह अपने में बड़ा प्रसन्न था कि वह आदमी जिसकी प्रसिद्धि ने मुझे जला रखा है, खत्म हो गया है|

उधर उस भले आदमी का भाग्य अच्छा था| उस कुएं में परियां रहती थीं| वे परियां तो उसकी दृष्टि से ओझल ही रहीं, परंतु उसके गिरते ही उन्होंने उसे हाथों-हाथ उठाकर एक जगह बिठा दिया| उसे चोट नहीं आई थी|

इस विपत्ति के क्षण में भी संत पुरुष ने सोचा कि मुझे इस दशा में लाने में भी जरूर भगवान की मरजी होगी| शायद इसमें भी उनकी कुछ कृपा हो|

थोड़ी देर में उसे ऐसी आवाजें सुनाई देने लगीं, जैसे दो आदमी आपस में बातें कर रहे हों|

एक कह रहा था, “तुम्हें मालूम है कि यह आदमी कौन है?”

दूसरे ने कहा, “मुझे नहीं मालूम!”

पहले ने कहा, “मैं तुम्हें इसका हाल बताता हूं| यह अत्यंत सच्चरित्र और शीलवान व्यक्ति है| इसने अपना नगर छोड़कर यहां रहना इसलिए शुरू किया कि इसे वहां अपने पड़ोसी से जो इससे जलता था, उलझना न पड़े| इस नगर में ईश्वर की दया से इसकी ख्याति बहुत बढ़ गई| इस ख्याति के कारण इसका पुराना पड़ोसी और भी जल उठा और उसने इसे मार डालने का इरादा कर लिया| वह इसके घर आया और बातें करने के बहाने से यहां लाकर इस कुएं में गिरा दिया| यदि हम लोग इसकी सहायता न करते तो यह मर ही जाता|”

दूसरे ने कहा, “अब इसका क्या होगा?”

पहले ने कहा, “सब अच्छा ही होगा| कल इस नगर का बादशाह इसके पास आकर इससे निवेदन करेगा कि यह उस उसकी पुत्री के स्वास्थ्य के लिए भगवान से प्रार्थना करे|”

दूसरे ने कहा, “राजकुमारी का क्या रोग है?”

पहले ने कहा, “राजकुमारी पर मैमून नामक जिन का पुत्र दिमदित आसक्त है और वही उसके सिर पर चढ़ा रहता है, जिससे राजकुमारी हमेशा बीमार और बदहवास रहती है| उसके हटाने का उपाय बड़ा सरल है| इस संत के घर में एक काली बिल्ली है, जिसकी पूंछ की जड़ के पास एक श्वेत हिस्सा है| इस संत को चाहिए कि उस श्वेत भाग से बाल उखाड़कर अपने पास रखे| जब शहजादी इसके पास लाई जाए तो इसे चाहिए कि वे बाल आग में जलाकर उनका धुआं शहजादी की नाक में पहुंचा दे| इससे वह नीरोग हो जाएगी और आगे भी दिमदित कभी उसके पास नहीं फटकेगा|”

संत पुरुष ने परियों और उनके साथियों की बातचीत को ध्यानपूर्वक सुना और मन ही मन सहायता करने के लिए भगवान को धन्यवाद भी दिया| चूंकि वहां अंधेरा था, अत: रातभर वह उस कुएं में ही रहा| सवेरे जब उजाला हुआ तो उसने देखा कि कुएं की दीवार में ऊपर से नीचे तक मोखे बने हुए हैं| वह उनके सहारे थोड़ी ही देर में ऊपर आ गया| उसके शिष्य और भक्त जो रात भर उसे खोजते रहे थे, उसे देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए| उसने उनसे कहा कि मैं संयोगवश कुएं में गिर पाया था लेकिन मुझे चोट नहीं आई|

तत्पश्चात वह अपनी जगह पर आकर बैठ गया| थोड़ी ही देर में वह काली बिल्ली घुमती-फिरती उसके पास से निकली| संत पुरुष को कुएं में सुनी बातें याद थीं| अत: उसने बिल्ली को पकड़कर उसकी पूंछ के श्वेत भाग से बाल उखाड़ लिए और अपने पास रख लिए| कुछ समय बाद नगर का बादशाह वहां आया| उसने अपनी सैनिक टुकड़ी बाहर ही छोड़ दी और कुछ सरदारों के साथ मकान के अंदर आ गया|

संत पुरुष ने आदरपूर्वक उसका स्वागत किया|

बादशाह ने कहा, “हे महान संत! आप तो सबके दिलों का हाल जानते हैं| आप तो समझ ही गए होंगे कि मैं यहां क्यों आया हूं?”

संत पुरुष ने कहा, “शायद आपकी बेटी अस्वस्थ है और उसके स्वास्थ्य लाभ की आशा से ही आपने मुझ अकिंचन की कुटिया को पवित्र किया है|”

बादशाह ने कहा, “आपने बिलकुल ठीक समझा| मैं इसी कारण आया हूं| अगर आपके आशीर्वाद से मेरी बेटी स्वस्थ हो जाए तो मेरी सबसे बड़ी चिंता दूर हो जाएगी|”

इस पर संत पुरुष ने उत्तर दिया, “आप अपनी बेटी को यहीं बुलवा लें| मैं भगवान प्रार्थना करूंगा कि वह स्वस्थ हो जाए और आशा है कि मेरी प्रार्थना स्वीकार होगी|”

बादशाह यह सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ| उसके आदेश पर राजकुमारी को उसकी सेविकाओं के साथ वहां ले जाया गया| शहजादी का चेहरा चादर से अच्छी तरह ढका हुआ था, ताकि उसे कोई देख न सके| संत पुरुष ने नीचे से चादर का इतना भाग उठाया कि नीचे रखी हुई अंगीठी से उठने वाला धुआं बाहर न जाए, फिर उसने सात बाल अंगीठी में डाले|

धुएं का राजकुमारी की नाक में पहुंचना था कि मैमून जिन का बेटा दिमदित बड़े जोर से चिल्लाया और तुरंत पलायन कर गया| जिन के जाते ही शहजादी होश में आ गई| वह संभलकर बैठ गई और अपने को भली-भांति छिपाकर पूछने लगी, “मैं कहां हूं और यहां मुझे कौन लाया है?”

अपनी बेटी को सुखद स्थिति में देखकर बादशाह खुशी से फूला न समाया| उसने अपनी बेटी को छाती से लगा लिया और उसकी आंखें चूमने लगा| फिर उसने सम्मान स्वरूप संत पुरुष के हाथ चूमे और अपने सभासदों से राय ली कि इस संत पुरुष का बदला किस प्रकार चुकाया जाए|

सभासदों ने एकमत होकर कहा कि राजकुमारी का विवाह इसी संत पुरुष के साथ कर देनी चाहिए|

बादशाह को सभासदों की सलाह पसंद आई और उसने शहजादी का विवाह उसी संत पुरुष के साथ कर दिया|

कुछ दिनों बाद बादशाह का प्रमुख मंत्री मर गया और बादशाह ने उसकी जगह अपने दामाद को नियुक्त कर दिया| इसके कुछ समय बाद बादशाह भी मर गया और चूंकि उस राजकुमारी के अतिरिक्त बादशाह की कोई और संतान नहीं थी, अत: सभी सभासदों और सामंतों की सहमति से उसका दामाद ही राज्य का अधिकारी और नया बादशाह बन गया|

एक दिन वह अपने सरदारों के साथ कहीं जा रहा था कि कुछ दूरी पर उसे पुराना पड़ोसी, जिसने उसे कुएं में धक्का दिया था, दिखाई दिया| नए बादशाह ने अपने मंत्री को चुपके से कहा, “उस आदमी को सहजतापूर्वक मेरे पास ले आओ, ताकि वह भयभीत न हो|”

मंत्री ने हुक्म का पालन किया| उसे अपने सामने देखकर बादशाह ने कहा, “मेरे मित्र! तुम्हें इतने दिनों बाद देखकर मैं प्रसन्न हुआ हूं| तुमने मुझे पहचाना कि नहीं?”

वह दुष्ट व्यक्ति उसे पहचानकर थर-थर कांपने लगा, किंतु बादशाह तो संत पुरुष था| उसने एक हजार अशर्फियां और कीमती कपड़ों की बीस गांठें भेंट में देकर उसे सुरक्षापूर्वक उसके घर पहुंचा दिया|

मैंने अपनी कहानी पूरी करके जिन से कहा, “ऐ जिन! उस नेक बादशाह ने तो अपने जानी दुश्मन के साथ यह सलूक किया और तुम मुझ पर तनिक भी दया नहीं करते|”

किंतु मेरे अनुनय-विनय का उस पर कोई प्रभाव न हुआ| उसने कहा, “मैं तुझे जान से नहीं मार रहा हूं, लेकिन दंड दिए बगैर नहीं छोड़ूंगा| अब मेरा जादू का खेल देख|”

यह कहकर उसने मुझे पकड़ा और मुझे लेकर पहले तो आकाश में इतना ऊंचा उड़ गया कि वहां से पृथ्वी एक बादल के टुकड़े जैसी लगती थी| फिर एक क्षण ही में वह मुझे एक ऊंचे पर्वत के शिखर पर ले गया| वहां उसने एक मुट्ठी मिट्टी उठाकर उस पर कोई मंत्र पढ़ा और ‘बंदर हो जा’ कहकर वह मिट्टी मेरे ऊपर छिड़क दी और गायब हो गया| मैं अपने को बंदर के रूप में पाकर अत्यंत दुखी हुआ| मुझे यह भी मालूम न था कि मैं कहां हूं और वहां से मेरा देश किस दिशा में और कितनी दूर है? खैर… मैं धीरे-धीरे पहाड़ से उतरकर मैदान में आया| वहां भी मैंने सारा प्रदेश निर्जन देखा| मैं अनुमान से ही एक ओर को चलने लगा| एक मास के अंतर में मैं समुद्रतट पर पहुंच गया| समुद्र बिलकुल शांत था और तट से कुछ दूर पर एक जहाज लंगर डाले खड़ा था|

मैंने जहाज पर जाना ही उचित समझा| किनारे के एक पेड़ से दो टहनियां तोड़ीं और उन्हीं के सहारे तैरता हुआ जहाज पर पहुंच गया| जहाज की रस्सी के सहारे मैं जहाज के अंदर पहुंच गया| जहाज में सवार लोग मुझे देखकर आश्चर्य में पड़े कि जहाज में बंदर कैसे आ गया| वे लोग मेरे आगमन को अपशकुन समझकर मेरा वध करने की बात करने लगे|

एक ने कहा, “अभी लट्ठ लाकर इसका सिर फोड़ देता हूं|”

दूसरे ने कहा, “नहीं, यह ऐसे नहीं मरेगा| मैं अभी तीर छोड़कर इसका अंतर किए देता हूं|”

तीसरे ने मुझे समुद्र में डुबो देने की सलाह दी|

मैं उन्हें कैसे बताता कि मैं कौन हूं, इसलिए जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगा|

अंत में सब ओर से निराश होकर मैं जहाज के कप्तान के पास गया और उसके पांवों पर लोटने लगा| मैंने उसका दामन पकड़ लिया और आंखों में आंसू भरकर चिचियाने लगा| उसे मुझ पर दया आई और उसने उन सभी को डांटकर भगा दिया, साथ ही कठोर चेतावनी दी कि इस बंदर को न तो कोई दुख दे और न कोई इसके साथ छेड़छाड़ करे|

उसने मुझे ऐसी सुरक्षा प्रदान की कि मुझे जहाज पर कोई दुख न हुआ| मैं यद्यपि बोल नहीं पाता था, तथापि समझता तो सबकुछ था और उसकी बातें समझकर ऐसे संकेत करता था कि उसका बड़ा मनोरंजन होता था| धीरे-धीरे जहाज पर सवार सभी लोग मुझ पर कृपालु हो गए और मुझे प्यार करने लगे|

पचास दिन की यात्रा के बाद जहाज एक बड़े व्यापार केंद्र पर पहुंचा| यह बहुत बड़ा नगर था| उसमें बड़े-बड़े मकान थे| जहाज के मल्लाहों ने जहाज को बंदरगाह में ठहराया| कुछ समय में ही नगर के बड़े-बड़े व्यापारी जहाज को देखकर व्यापार की आशा में उस पर पहुंच गए| जहाज पर उनके कई मित्र व्यापारी थे| ये मित्र आपस में बातें करने लगे और यात्रा का हाल कहने-सुनने लगे, क्योंकि जहाज बहुत से देशों में घूमता हुआ आया था|

नगर के व्यापारियों में कई ऐसे भी थे, जो वहां के ऐश्वर्यवान बादशाह के दरबार में आते-जाते थे| उन्होंने कहा, “हमारा बादशाह तुम्हारे जहाज के यहां आने से बड़ा प्रसन्न हुआ है| इसका कारण यह है कि उसे आशा है कि तुम लोगों में कोई सुलेखक भी होगा| बात यह है कि हमारा मंत्री हाल में मर गया है| वह अत्यंत निपुण सुलेखकर्ता था| बादशाह गुणियों का बड़ा सम्मान करता है और चाहता है कि उस मंत्री जैसा सुलेखक उसे मिले, इसी चिंता में वह हमेशा रहता है| इसलिए उसने यह कागज भेजा है, जिस पर सुलेखन के लिए रेखाएं खिंची हैं| बादशाह चाहता है कि अगर कोई आदमी तुममें से काफी पढ़ा-लिखा हो तो वह इस पर कुछ इबारतें लिखे| उसने कसम खाई है कि वह उसी व्यक्ति को दिवंगत मंत्री का पद देगा, जो उसकी भांति सुलेखन कर सकेगा| अभी तक बहुत ढूंढ़ने पर भी उसे अपने देश में कोई ऐसा गुणी व्यक्ति नहीं मिला है|”

यह सुनकर मैंने बादशाह के सरदार के हाथ से झपटकर वह कागज ले लिया| इस पर जहाज के सभी लोग, विशेषत: पढ़े-लिखे व्यापारी चीख-पुकार करने लगे कि ‘यह बंदर अभी इस कागज को चीर-फाड़कर समुद्र में फेंक देगा|’ किंतु जब उन्होंने देखा कि मैंने कागज बड़े ढंग से पकड़ा है तो सब चुप होकर देखने लगे|

मैंने संकेत से कहा कि मैं इस पर लेखन कर सकता हूं| उन लोगों को मेरी बात पर क्या विश्वास होता और सब प्रयत्न करने लगे कि मुझे पकड़कर मेरे हाथ से कागज ले लें| किंतु जहाज के कप्तान ने उन्हें रोका और कहा, “हमें इसकी परीक्षा लेनी चाहिए| अगर इसने कागज को खराब किया तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि इसे कठोर दंड दूंगा और अगर इसने लिख लिया तो मैं अपने पुत्र की भांति इसे रखूंगा| मुझे मालूम है कि यह कागज को खराब नहीं करेगा| मैंने बराबर देखा है कि यह दूसरे बंदरों जैसा नहीं है, अपितु अत्यंत बुद्धिमान है|”

कप्तान की इस बात पर सब लोग रुक गए और मैंने कलम लेकर कविता की चार पंक्तियां इतने सुंदर ढंग से लिखीं, जैसे कोई व्यापारी या अन्य नागरिक भी न लिख पाता|

सरदार मेरा लिखा कागज बादशाह के पास ले गया| बादशाह ने मेरे सुलेख को भी पसंद किया और मेरी कविता को भी| उसने सरदारों से कहा, “एक भारी खिलअत (सम्मान परिधान) ले जाओ और उस आदमी को पहनाओ, जिसने यह लिखा है| एक बढ़िया घोड़ा भी घुड़साल से ले जाओ और उसे सम्मानपूर्वक सवार कराकर यहां ले आओ|”

सरदार यह आज्ञा सुनकर हंस पड़ा| बादशाह को बड़ा क्रोध आया| उसने कड़ककर कहा, “यह क्या बदतमीजी है? क्या तुम्हें दंड का भय नहीं है?”

सरदार ने हाथ जोड़कर कहा, “महाराज! क्षमा करें| यह लेख किसी मनुष्य ने नहीं, बल्कि एक बंदर ने लिखा है|”

बादशाह ने कहा, “क्या बकते हो! बंदर भी कहीं लिखता है?”

सरदार ने अपने साथियों की ओर देखा| उन्होंने भी हाथ जोड़कर कहा, “जहांपनाह! हम सबने अपनी आंखों से देखा है कि इस कागज पर एक बंदर ही ने लिखा है|”

बादशाह का आश्चर्य और बढ़ा और उसने आज्ञा दी, “मैंने ऐसा बंदर देखा तो क्या, सुना भी नहीं है| तुम लोग फौरन जाओ और उस बंदर को सम्मानपूर्वक ले आओ|”

सरदार और राजसेवक फिर जहाज पर आए हो कप्तान को उन्होंने राजाज्ञा सुनाई| कप्तान मुझे भेजने को सहर्ष तैयार हो गया| उसने मुझे जरी के वस्त्र पहनाए और किनारे पर ले आया| वहां से मैं घोड़े पर बैठकर राजमहल को चल दिया| महल में न केवल बादशाह ही मेरी प्रतीक्षा कर रहा था, अपितु नागरिकों की एक बड़ी भीड़ भी सुलेखन करने वाले बंदर को देखने आई हुई थी| रास्ते में भी बड़ी भीड़ जमा थी और लोग अपने कोठों-छतों से झांक-झांककर मेरी सवारी देख रहे थे| सब लोग आश्चर्य कर रहे थे कि बादशाह ने एक बंदर को मंत्रीपद संभालने को बुलाया है| कुछ लोग इस बात पर हंस रहे थे और बादशाह का मजाक भी उड़ा रहे थे|

मैं दरबार में पहुंचा तो देखा कि बादशाह सिहांसन पर बैठा है और सभासद और सरदार अपनी-अपनी जगह खड़े हैं| मैंने दरबार के शिष्टाचार के अनुसार तीन बार कोनिर्श (भूमि तक हाथ ले जाकर प्रणाम) की और एक ओर अदब से खड़ा हो गया| सभी उपस्थित जन मेरे इस व्यवहार को देखकर आश्चर्य में पड़ गए कि बंदर ऐसा शिष्टाचार कैसे कर रहा है? खुद बदशाह को भी मेरी चाल-ढाल देखकर बड़ा आश्चर्य हो रहा था|

कुछ देर में दरबार बर्खास्त हुआ| बादशाह के पास केवल मैं और एक वृद्ध अधिकारी ही रह गए| हम दोनों बादशाह के आदेश पर उसके साथ महल के अंदर गए| बादशाह ने शाही भोजन मंगवाया और मुझे खाने का इशारा किया| मैं बड़ी तमीज के साथ खाना खाने लगा| जब भोजन समाप्त हुआ और बरतन उठा लिए गए तो मैंने कलमदान की ओर संकेत किया| कलमदान मेरे पास लाया गया तो मैंने कुछ काव्य पंक्तियां बादशाह को धन्यवाद देते हुए रचीं और उन्हें सुंदर ढंग से कागज पर लिख दिया|

बादशाह को यह देखकर और अधिक आश्चर्य और प्रसन्नता हुई| उसने मुझे एक पात्र मदिरा से भरकर दिलवाया| उसे पीकर मैंने एक और कविता अपने दुर्भाग्य के बाद, मिलने वाले सौभाग्य के संबंध में लिख दी| अब बादशाह ने शतरंज मंगवाई और इशारे से पूछा, ‘क्या इसे खेल सकते हो?’

मैंने स्वीकारात्मक रूप में अपने सिर पर हाथ रखा| पहली बाजी बादशाह ने जीती और दूसरी और तीसरी मैंने जीत ली| बादशाह को इस पर झुंझलाहट आने लगी कि वह एक बंदर से हार गया| मैंने फिर एक काव्य रचकर कागज पर लिख दिया| जिसका आशय था कि दो योद्धा दिन भर आपस में युद्ध करके शाम को मित्र बन जाते हैं और रात को युद्ध भूमि में सो रहते हैं|

इस बात से बादशाह का आश्चर्य अत्यधिक बढ़ गया| उसने सोचा कि ऐसा बंदर जो मनुष्य से बढ़कर बुद्धिमानी और हाजिर जवाबी प्रदशित करे, कभी देखा-सुना नहीं गया| उसने यह बात अपने सभासदों से कही तो उन्होंने उसका समर्थन किया| अब बादशाह ने चाहा कि वह मुझे अपनी रानी और अपनी पुत्री को भी दिखा दे| उसने खोजों के सरदार को आज्ञा दी, “आदमियों को हटाकर बेगम साहिबा और शहजादी को यहां ले आओ|”

बेगम तो साधारण रूप में आई लेकिन शहजादी ने जो मुंह खोले आई थी, मुझे देखकर नकाब डाल लिया और बाप से बिगड़कर बोली, “आपको क्या हो गया है कि अपरिचित पुरुष के सामने मुंह खोले हुए बुला लिया|”

बादशाह ने कहा, “तुम्हारे होश-हवास तो ठिकाने हैं? यहां कौन मर्द है, सिवाय मेरे – और मैं तुम्हारा बाप हूं| मेरे सामने तो तुम्हें मुंह खोलकर आना चाहिए| खुद गलती करके तुम दोष मुझे देती हो|”

शहजादी ने हाथ जोड़कर कहा, “अब्बा हुजूर! मेरी कोई गलती नहीं है| मेरी बात पर विश्वास कीजिए| जो बंदर आपके पास बैठा है, वह बंदर नहीं है – यह आदमी है| यह एक बड़े बादशाह का पुत्र है और जादू के कारण इस दशा को पहुंच चुका है| इबलीस के धेवते ने जो एक शक्तिशाली जिन है, पहले आबनूस के द्वीप के बादशाह अबू तैमुरस की बेटी की हत्या कर दी, फिर इस शहजादे को अपने जादू से बंदर बना दिया|”

बादशाह को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ| उसने मुझसे पूछा, “क्या यह बात ठीक है?”

मैंने सिर पर हाथ रखकर इशारे से कहा कि शहजादी ने जो कुछ कहा है, बिलकुल ठीक है|

अब बादशाह ने शहजादी से पूछा, “तुम्हें यह सब किस्सा कैसे मालूम हुआ?”

उसने कहा, “आपको याद होगा कि जब मेरा दूध छुड़ाया गया था तो मेरी देख-रेख और पालन पोषण के लिए एक बुढ़िया रखी गई थी| वह जादू-टोनों में पारंगत थी| उसने मुझे इस विद्या के सत्तर अंग सिखा दिए थे| अब मुझमें इतनी शक्ति है कि चाहूं तो आपका सारा देश उठाकर समुद्र में फेंक दूं| जो व्यक्ति जादू के जोर से मनुष्य के बजाय किसी अन्य जीव की देह धारण कर लेते हैं, मैं उन्हें तुरंत पहचान लेती हूं और मुझे यह भी मालूम हो जाता है कि किसके जादू से यह हुआ है| इसीलिए मैंने इसे पहली ही नजर में पहचान लिया कि यह बंदर नहीं, बल्कि शहजादा है|”

बादशाह ने कहा, “बेटी, तुम इतनी गुणी हो, यह मुझे मालूम ही नहीं था| लेकिन क्या तुममें इतनी शक्ति भी है कि इसे अपनी पहली देह में दोबारा पहुंचा सको?”

राजकुमारी ने, जिसका नाम हसन था, कहा, “नि:संदेह मुझमें ऐसी शक्ति है|”

बादशाह ने कहा, “अगर तुमने ऐसा किया तो मैं तुम्हारा बड़ा आभार मानूंगा और इस शहजादे को अपना मंत्री बनाकर तुम्हारे साथ इसका विवाह कर दूंगा|”

शहजादी ने पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके अपने सामान में से एक छड़ी मंगवाई, जिस पर हिब्रू और मिस्त्री भाषा में कुछ अक्षर खुदे थे| फिर उसने अपने पिता से कहा, “आप लोग कुछ दूरी पर सुरक्षापूर्वक बैठें|”

उन लोगों ने ऐसा किया तो शहजादी ने कक्ष की भूमि पर छड़ी से एक बड़ा गोला खींचा और हिब्रू और मिस्त्री भाषाओं के कुछ मंत्र पढ़ने लगी| इसके पश्चात वह घेरे के अंदर चली गई और कुरान-शरीफ की कुछ आयतों का पाठ करना आरंभ कर दिया|

कुछ ही देर में घटाटोप अंधेरा छा गया| ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे प्रलयकाल ही आ गया हो| हम लोग क्षण-प्रतिक्षण भयभीत होते जा रहे थे| इतने में हमने देखा कि इबलीस का धेवता एक शेर के रूप में गरजता हुआ वहां आ गया|

शहजादी ने कहा, “दुष्ट, तुझे चाहिए था कि मेरे बुलाने पर मेरे पास विनयपूर्वक आता| तेरी यह हिम्मत कि मुझे डराने को यह रूप धरकर आया है|”

शेर बोला, “मनुष्यों और जिनों में समझौता हुआ था कि एक-दूसरे के मामलों में दखल न देंगे, तूने इस समझौते को तोड़ा है|”

शहजादी बोली, “तूने ही पहले वह समझौता तोड़ा है|”

शेर ने गरजकर कहा, “मैं तेरी गुस्ताखी का अभी मजा चखाता हूं, जो तूने मुझे यहां आने की तकलीफ देकर की है|” यह कहकर वह मुंह फाड़कर शहजादी की ओर झपटा, लेकिन वह होशियार थी – उछलकर पीछे हट गई और अपने सिर से एक बाल उखाड़ा और उसे मंत्रित करके फेंक दिया| वह बाल तलवार बन गया और उसने शेर के धड़ के दो टुकड़े कर दिए|लेकिन वे टुकड़े गायब हो गए और सिर्फ जिन का सिर रह गया, जो बिच्छू बन गया| अब शहजादी ने सांप का रूप धारण किया और उस पर टूट पड़ी| बिच्छू थोड़ी ही देर में घबराकर पक्षी बन गया और आसमान में उड़ गया| शहजादी भी उकाब बनकर उसके पीछे उड़ गई| उड़ते-उड़ते दोनों हमारी दृष्टि से ओझल हो गए|

कुछ ही देर में हमारे सामने की भूमि फट गई और उसमें से दो बिल्लियां लड़ती हुईं निकलीं| एक काली थी, दूसरी सफेद| कुछ देर तक वे दुम खड़ी करके चीखती रहीं, फिर काली बिल्ली भेड़िया बनकर सफेद बिल्ली पर झपटी| सफेद बिल्ली कोई उपाय न देखकर कीड़ा बन गई और तुरंत एक पेड़ पर चढ़कर उसमें लटके अनार के अंदर घुस गई| वह अनार बढ़ने लगा और बढ़ते-बढ़ते एक घड़े के आकार का हो गया| फिर वह पेड़ से अलग हो गया और हवा में इधर-उधर लहराने लगा| कुछ ही देर में वह अनाज जमीन पर गिरकर फट गया और उसके टुकड़े इधर-उधर बिखर गए| उसमें से सैकड़ों दाने पृथ्वी पर गिरकर फैल गए|

अब वह भेड़िया तुरंत एक मुर्गा बन गया और उसने अनार के बिखरे हुए दानों को जल्दी-जल्दी चुगना शुरू कर दिया| जब वह सारे दाने खा चुका तो हम लोगों के पास आया और जोर से बांग देने लगा, जैसे पूछता हो कि कोई दाना रह तो नहीं गया| वह स्वयं भी इधर-उधर दौड़कर देखने लगा| एक दाना नहर के किनारे पड़ा था| मुर्गा उसे भी चुराने के लिए दौड़ा, लेकिन वह दाना लुढ़कता हुआ नहर में गिर गया| नहर में गिरकर वह दाना मछली बन गया| मुर्गा भी उसके पीछे नहर में कूद गया|

कुछ देर तक दोनों आंखों से ओझल रहे, फिर बड़े जोर की चीख-पुकार हुई, जिससे हम लोग बहुत डर गए| फिर देखा कि जिन और शहजादी दोनों अग्निपुंज हो गए हैं और एक-दूसरे की ओर लपटे फेंक रहे हैं, जैसे कि आपस में लड़ाई कर रहे हों| ऐसा मालूम होता था कि हर तरफ आग-ही-आग फैली है| हम इस डर से कांपने लगे कि यह आग हमें टी क्या सारे देश को भूनकर रख देगी| इससे भी भयानक एक समय तब आया, जब जिन शहजादी से लड़ना छोड़कर हमारी ओर लपका और हमारी लपटें फेंकने लगा| लेकिन शहजादी भी झपटकर आ गई| उसने जिन को दूर हटा दिया और हमें सुरक्षित स्थान पर कर दिया| फिर भी इतनी देर में महल का खोजा जलकर भस्म हो गया| बादशाह का मुंह झुलस गया और मेरी दाईं आंख में एक चिनगारी पड़ गई, जिससे मेरी एक आंख फूट गई|

इतने में हम लोगों ने बड़ी जोर का जयघोष सुना| शहजादी मलिका हसन अपने साधारण शरीर में आ गई और जिन राख का ढेर होकर दिखाई देने लगा| फिर शहजादी ने एक गुलाम से पानी मंगवाया और उसे अभिमंत्रित करके मुझ पर छिड़का और बोली, “अगर तू जादू के जोर से बंदर बना है तो फिर से अपनी पहली काया में आ जा और पहले की तरह मनुष्य बन जा|”

उसके इतना कहते ही मैं पहले जैसा बन गया| सिवाय दाईं आंख फूटने के मुझे और कोई हानि नहीं हुई| मैंने चाहा कि शहजादी को इस उपकार पर धन्यवाद दूं, किंतु शहजादी ने इसका अवसर नहीं दिया| वह बादशाह की तरफ मुंह करके बोली, “यद्यपि मैंने जिन को भस्म कर दिया है, लेकिन अब मैं भी बच नहीं सकूंगी|”

हमारी समझ में कुछ नहीं आया तो उसने बताया, “यह अग्नि-युद्ध बड़ा भयानक होता है| इसकी आग कुछ ही क्षणों में मुझे भस्म कर देगी| जब मैं मुर्गा बनी थी, उस समय अगर अनार का आखिरी दाना, जिसमें जिन ने स्वयं को छुपा रखा था, मेरे अंदर पहुंच जाता तो जिन उसी समय खत्म हो जाता और मुझे कोई हानि न पहुंचती| किंतु वह बचकर फिर मुझसे युद्ध करने के योग्य हो गया| तब विवश होकर मुझे अग्नि-युद्ध पर उतरना पड़ा| जिन ने यह तो समझ लिया कि मैं जादू में निपुण हूं और उस पर भारी पड़ती हूं, फिर भी वह अंत समय तक प्राणपण से युद्ध करता रहा| मैंने उसे जलाकर भस्म कर दिया, लेकिन इस आग से मैं स्वयं को मुक्त नहीं कर पाऊंगी|”

बादशाह ने रोकर कहा, “बेटी, तुम कैसी बातें करती हो| तुम्हारे बगैर हम लोग क्या करेंगे| देखती नहीं कि खोजा मर गया है, मेरा मुंह झुलस गया है और यह शहजादा, जिस पर तुमने इतना उपकार किया है, दाईं आंख का काना हो गया है|”

बादशाह इस तरह सिर धुन रहा था और मैं भी रो-पीट रहा था कि शहजादी ने चिल्लाना शुरू किया, “हाय जली! हाय मरी!” और देखते ही देखते वह भी जलकर जिन की तरह राख का ढेर हो गई|

दूसरे फकीर ने आंसू बहाते हुए जुबैदा से कहा, “हे सुंदरी! उस समय मुझे जितना दुख हुआ वह वर्णन के बाहर है| मैं सोच रहा था कि अगर मैं बंदर तो क्या कुत्ता भी हो जाता और आजीवन वैसा ही रहता तो भी इस बात से अच्छी बात होती कि ऐसी गुणवती राजकुमारी, जिसने मुझ पर इतना अहसान किया, इस तरह जान से हाथ धोए| बादशाह भी अपनी बेटी के दुख में इतना रोया-पीता कि बेहोश हो गया| मुझे भय लगने लगा कि ऐसा न हो कि इस दारुण दुख से उसकी जान न चली जाए| चारों ओर हाहाकार होने लगा और राजमहल में प्रलय का सा दृश्य उपस्थित हो गया|

राजमहल के सारे सेवक और बादशाह के सरदार दौड़े और भांति-भांति के यत्न करके उसे होश में लाए| मैंने सभी लोगों के आगे पूरा वृत्तांत रखा| फिर सेवक बादशाह को उठाकर उसके शयनकक्ष में ले गए| सारे नगर में यह समाचार फैल गया और हर जगह रोना-पीटना मच गया| सिवाय हाहाकार के कुछ नहीं सुनाई देता था| उन लोगों ने सात दिन तक शहजादी के लिए शोक किया और उनके देश में मातम की जो-जो रस्में होती थीं, सभी पूरी कीं| अंत में जिन की राख के ढेर को हवा में उड़ा दिया गया| शहजादी की भस्म को एक बहुमूल्य रेशमी थैले में भरकर दफन कर दिया गया और उस पर समाधि बना दी गई|

उधर बादशाह शहजादी के गम में बीमार पड़ गया| एक महीने में जब वह कुछ स्वस्थ हुआ तो उसने मुझे बुलाया और कहा, “शहजादे! तेरे कारण मुझ पर असहनीय दुख आन पड़े हैं| मेरी प्यारी बेटी तेरे ही कारण भस्म हो गई| मेरा विश्वासी खोजों का सरदार जलकर मर गया और मैं भी मरते-मरते बचा हूं| यद्यपि तेरा स्वयं इसमें कोई दोष नहीं है, इसलिए मैं तुझे दंड नहीं देता, किंतु तेरा आगमन दुर्भाग्यपूर्ण रहा है और तू जहां रहेगा, मुसीबत आएंगी, इसलिए मैं तुझे यहां रहने की अनुमति नहीं दे सकता| तू तुरंत यहां से चला जा! अगर तू यहां थोड़ी देर तक और दिखाई दिया तो मैं स्वयं को न संभाल सकूंगा और तुझे कठोर दंड दूंगा|”

मैं सिर झुकाकर सबकुछ सुनता रहा| मैं कर भी क्या सकता था? बादशाह के चुप होते ही मैं उसके सामने से हट गया और महल से बाहर निकल गया| नगर में भी मुझे चैन न मिला| नगर निवासी शहजादी के शोक से बेकल थे और मुझे ही उसकी मृत्यु का कारण समझकर जहां मुझे पहचानते, मुझे मारने के लिए झपटते थे| विवश होकर अपनी जान बचाने के लिए मैंने अपनी दाढ़ी-मूंछें और भवें मुंडवा डालीं और फकीरों के से वस्त्र पहनकर वहां से चल दिया|

नगर से बाहर आकर भी मैं पश्चाताप की आग में बराबर जलता रहा और अपने जीवन को धिक्कारता रहा| जिसके कारण दो-दो रूपसी राजकुमारियां काल-कलवित हो गई थीं| इसी दशा में मैं बहुत समय तक देश-देश फिरता रहा, लेकिन मेरा ठिकाना नहीं न लगा| अंत में मैंने सोचा कि बगदाद नगर में जाऊं और अति दयाशील खलीफा हारूं रशीद से अपनी व्यथा का वर्णन करूं| संभव है वे मुझ पर दया करके मेरे लिए कोई उचित प्रबंध कर दें| मैं आज रात ही इस नगर में पहुंचा था| सबसे पहले इस फकीर से, जिसने अभी-अभी अपना हाल कहा है, मेरी भेंट हुई| आपके यहां हम कैसे आए यह बताना जरूरी नहीं है, क्योंकि यह पहला फकीर यह सब बता ही चुका है|”

जब दूसरे फकीर ने अपना वृत्तांत पूरा कर लिया तो जुबैदा ने उससे कहा, “हमने तुझे भी क्षमा किया| तू जहां चाहे, वहां जाने के लिए स्वतंत्र है|”

अब दूसरे फकीर ने भी इच्छा प्रकट की कि वह अपने तीसरे साथी की जीवन गाथा भी सुनना चाहता है| इस पर जुबैदा ने कहा, “अच्छा तुम भी मजदूर और पहले फकीर के पास जाकर चुपचाप बैठ जाओ|” उसने ऐसा ही किया|

जुबैदा ने अब तीसरे फकीर से अपनी कहानी सुनाने को कहा| उसने जुबैदा के सामने बैठकर कहना आरंभ किया| तीसरे फकीर ने कहा, “हे दयालु सुंदरी! मेरी कहानी बहुत ही आश्चर्यजनक है| इन दोनों शहजादों की दाहिनी आंख परिस्थितिवश गई, किंतु मेरी आंख मेरी ही मूर्खता और मेरे ही अपराध के कारण फूटी| मैं इसका विस्तृत वर्णन करता हूं|

 

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