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अपने भाग्य की रोटी – शिक्षाप्रद कथा

आपने किस्मत, भाग्य, मुकद्दर पर बहुत सी कहानियाँ सुनी होंगी, पर हमारी कहानी सभी कहानियों से कुछ अलग है!

जैसा कि आप सब जानते ही हैं – पुराने जमाने में महेन्द्रगढ़ का राजा महेन्द्रसिंह हुआ करता था, वह बहुत अकड़ूं, घमण्डी और बददिमाग था! अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझता था! अपनी खिलाफत करने वाले को कड़े से कड़ा दण्ड देता था! और हाँ, कुछ कुछ सनकी भी था! 

तो एक दिन उसे यह सनक समाई कि जरा अपने परिवार के लोगों से भी तो यह जाना जाये कि सब लोग उसके बारे में क्या विचार रखते हैं! 

उसके परिवार में उसकी पत्नी तिलोत्तमा और सात अल्पवयस्क बेटियाँ थीं! सबसे पहले राजा अपनी पत्नी तिलोत्तमा के पास गया और पूछा -“प्रियेश्वरी, हम बरसों से साथ रह रहे हैं! तुमने जब जो चाहा, मैंने दिया! जरा बताओ तो तुम्हें यह सारा सुख ऐश्वर्य किसके भाग्य से उपलब्ध है?”

तिलोत्तमा अपने पति की गोद में लेट गयी और बोली -“आपके भाग्य से… आप न होते तो क्या मैं यह सब भोग पाती ? मेरे तो भाग्य भी आप हो और भगवान भी!”

राजा महेन्द्रसिंह ने रानी को अपने सीने से लगा लिया और बोला -“तुम सही कह रही हो! तुम दुनिया की सबसे अक्लमन्द औरत हो!”

इसके बाद राजा ने अपनी बेटियों को बारी-बारी से बुलवाया और यही सवाल किया! 

बड़ी छ: राजकुमारियों ने तो बिल्कुल वैसा ही जवाब दिया, जैसा महेन्द्रसिंह चाहता था, लेकिन सबसे छोटी राजकुमारी फूलकुमारी ने कहा – “पिताजी, सबका भाग्य रचने वाला भगवान है, उसी ने मेरे भाग्य में यह सुख लिखा है! और उसी के लिखे से मैंने आपकी पुत्री के रूप में जन्म लिया और मुझे मेरे भाग्य से यह सारा सुख उपलब्ध है?”

फूलकुमारी के इस जवाब से सनकी राजा एकदम सनक गया ! फिर भी अपने गुस्से पर काबू रखते हुए बड़े प्यार से बोला-“मेरी छोटी सी प्यारी सी गुड़िया, लगता है – तू मेरी बात ठीक से समझी नहीं! मैं यह पूछ रहा हूँ कि मेरे घर, मेरे राजमहल में तू जो रोटी खाती है! किसके भाग्य से खाती है! कौन खिलाता है तुझे रोटी और पकवान!” 

“मेरा भाग्य खिलाता है पिताजी, जिसने मुझे आपकी पुत्री के रूप में जन्म दिया, इस दुनिया में सब अपने अपने भाग्य की रोटी खाते हैं! मैं भी अपने भाग्य की रोटी खाती हूँ!”

अब तो राजा महेन्द्रसिंह का धैर्य जवाब दे गया! वह भड़क ऊठा और कड़ककर बोला -“क्या कहा? यह सारा सुख – जो मैं तुझे दे रहा हूँ – तुझे तेरे अपने भाग्य से उपलब्ध है! मूर्ख, तू मेरी अनुकम्पा को अपना भाग्य बताती है, निकल जा मेरे घर से, मैं तेरी शक्ल भी नहीं देखना चाहता!”

फूलकुमारी पिता के पैर पकड़ कर रोने लगी-“पिताजी, यह आप क्या कह रहे हैं? मैं आपकी पुत्री हूँ! आप मेरे जन्मदाता हैं! इस दुनिया में, मैं तो किसी और को जानती भी नहीं! आप मुझे दुत्कार देंगे तो कहाँ जाऊँगी मैं! इतने कठोर मत बनिये पिताजी! मुझे मेरे घर से मत निकालिये!” 

“खामोश, बिगड़ैल लड़की!” राजा महेन्द्रसिंह दहाड़ा -“इस घर को अपना घर मत कह, यह मेरा घर है!” और उसने लात मार कर फूलकुमारी को परे धकेल दिया और दासियों को आवाज दी और उनके आने पर आदेश दिया -“फूलकुमारी के शरीर से राजसी वस्त्र और आभूषण उतार कर उसे किसी दासी की गन्दी और फटी-चिथड़ी मैली-सी पोशाक पहना दो!” 

दासियों ने ऐसा ही किया और फूलकुमारी को एक भिखारिन सी बनाकर सामने ले आईं! राजा के आदेश पर फूलकुमारी के खूबसूरत चेहरे पर कालिख भी पोत दी गई! फिर राजा महेन्द्रसिंह ने फूलकुमारी से पूछा -“अब भी सोच ले और हमें सही सही जवाब दे दे कि किसके भाग्य से तू यह राजसी सुख भोग रही है! किसके भाग्य से तू माल-पकवान और रोटी खाती है!”

“आपको खुश करने के लिये मैं झूठ बोल भी दूं पिताजी कि मुझे जो कुछ भी मिला है, आपके भाग्य से मिला है! आपसे मिला है, लेकिन मेरे झूठ बोलने से, झूठ सच नहीं हो जायेगा!”

फूलकुमारी की इस निर्भीकता ने महेन्द्रसिंह को आगबबूला कर दिया और उसने दहाड़ कर, बाहर पहरे पर तैनात सैनिकों को आवाज दी! तुरन्त ही कई सैनिक दौड़े आये और राजा को अभिवादन कर, सिर झुका कर खड़े हो गये तो महेन्द्रसिंह बने कहा – “राजकुमारी फूलकुमारी को जल्दी से जल्दी किसी तेज रफ्तार रथ द्वारा हमारे राज्य से मीलों दूर किसी दूसरे राज्य के जंगल में छोड़ आओ, जहाँ से यह कभी चाहकर भी, वापस न लौट सके ! बहुत घमण्ड है इसे अपने भाग्य पर तो आज से यह दूर राज्यों के जंगल में भटक कर भूखी मरेगी!”

फूलकुमारी रोती रही, मगर राजा महेन्द्रसिंह नहीं पसीजा!

राजाज्ञा टालने की हिम्मत किसी सैनिक में भी नहीं थी! सैनिक फूलकुमारी को घसीटते हुए ले गये और उसे बहुत दूर किसी राज्य की सीमा से सटे जंगल में छोड़कर वापस लौट आये! 

अपनी सनक में ऐंठे सनकी राजा महेन्द्रसिंह का जीवन फिर से पहले की तरह चलने लगा! 

लेकिन उधर राजकुमारी फूलकुमारी के साथ क्या बीती?

फूलकुमारी भूखी प्यासी भटकती-भटकती एक ऐसे विशाल मार्ग पर पहुँच गयी, जहाँ एक बेहद विशाल और शक्तिशाली राज्य विजयगढ़ का नगरसेठ धर्मसिंह विदेशों में व्यापार करके अपने दल-बल-काफिले के साथ पांच वर्ष बाद वापस विजयगढ़ लौट रहा था! 

धर्मसिंह बहुत प्रसन्न था कि आज पांच वर्ष बाद वह अपनी पत्नी और एकमात्र पुत्री से मिलेगा! 

अचानक धर्मसिंह के विशाल रथ के आगे आकर फूलकुमारी बेहोश होकर गिर पड़ी! 

धर्मसिंह के सेवक उसे उठाकर धर्मसिंह के पास लाये तो उसके गन्दे चेहरे के बावजूद उसके नाक-नक्श देखकर उछल पड़ा और बोला -“यह… यह तो बिल्कुल मेरी पुत्री फूलकुमारी जैसी लग रही है, लेकिन यह यहाँ क्यों भटक रही है और ऐसे भिखारिन के लिबास में कैसे है?”

धर्मसिंह फूलकुमारी को अपने साथ लिये विजयगढ़ में अपनी शानदार कोठी में पहुँचा तो उसकी पत्नी सावित्री उसके साथ एक युवा भिखारिन को देख चौंक पड़ी -“यह आप किस भिखारिन को ले आये?”

“भिखारिन…! मुझे तो यह अपनी बेटी फूलकुमारी जैसी लग रही है! बेशक उसे देखे मुझे पांच वर्ष हो गये हैं, लेकिन वही नाक नक्श हैं ! बिल्कुल वैसी ही लग रही है यह कन्या।” धर्मसिंह बोला।

“मगर हमारी बेटी फूलकुमारी तो पांच वर्ष पहले आपके व्यापार के लिये विजयगढ़ के प्रस्थान करने के पांच दिन बाद ही एक ज़हरीले सांप के काटने से मर गई थी!” सावित्री ने कहा।

अपनी पुत्री की अकाल मृत्यु के समाचार से सेठ धर्मसिंह दुखी तो बहुत हुआ, लेकिन यह भी जबरदस्त संयोग और विधि का चमत्कार ही था कि उसकी पुत्री का नाम भी फूलकुमारी था और कुछ-कुछ शक्ल भी राजकुमारी फूलकुमारी जैसी थी।  

सेठ धर्मसिंह की दासियां राजकुमारी फूलकुमारी को होश में लायीं और सेठ व सेठानी के कहने पर उसे नहला-धुला अच्छे वस्त्र पहना कर धर्मसिंह और सावित्री के सामने लायीं तो दोनों हक्के-बक्के रह गये! 

“तुम कौन हो बेटी? तुम तो बिल्कुल हमारी बेटी फूलकुमारी जैसी लग रही हो?” धर्मसिंह ने पूछा! 

और जब फूलकुमारी ने जब अपनी सारी आपबीती बताई तो सेठानी सावित्री सेठ धर्मसिंह से बोली- “सुनो जी, इसका नाम भी फूलकुमारी है और बिल्कुल हमारी स्वर्गवासी पुत्री जैसी लग रही है, क्यों न इसे हम अपनी बेटी बना लें!”

“मैं भी यही सोच रहा हूँ!” धर्मसिंह ने कहा और उसके बाद फूलकुमारी सेठ धर्मसिंह के घर उनकी बेटी बनकर रहने लगी!

कई वर्ष बीत गये! फूलकुमारी बड़ी होकर बहुत ही खूबसूरत युवती बन गई! 

उन्हीं दिनों विजयगढ़ के वृद्ध और बीमार राजा विजयसिंह का निधन हो गया और राज्य का सिंहासन युवा और कुंवारे युवराज विराटविक्रम ने सम्भाला! 

विराटविक्रम बहुत महत्वाकांक्षी था! उसने अपने राज्य के विस्तार के लिये आस-पास के सभी राज्यों को आक्रमण करके, जीत लिया और उन राज्यों के राजाओं और उनके परिवारों को कारागार में डाल दिया! 

फिर एक दिन विजयगढ़ की जनता को अपने दर्शन देने के लिये राजा विराटविक्रम के ने विजयगढ़ की सड़कों पर अपनी रथयात्रा निकाली, जिससे सभी राज्यवासी उसके दर्शन कर सकें! 

जब विराटविक्रम की सवारी सेठ धर्मसिंह की कोठी के सामने से निकली, उस समय फूलकुमारी घर की छत से सड़क पर झांकते हुए अपने लम्बे और खूबसूरत बालों को संवार रही थी! 

अचानक ही विराटविक्रम की दृष्टि ऊपर उठी तो उसने फूलकुमारी को देखा और देखकर उसके अनुपम सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया! 

उसने अपने महामंत्री को फूलकुमारी से विवाह के लिये सेठ धर्मसिंह के यहाँ भेजा! 

सेठ धर्मसिंह और सावित्री के लिये इससे बड़ी खुशी क्या हो सकती थी कि स्वयं राजा विराटविक्रम उनकी बेटी से विवाह करना चाहते थे! 

शुभ मुहूर्त में बड़ी धूमधाम से फूलकुमारी और विराटविक्रम का विवाह हुआ और एक वर्ष बाद फूलकुमारी एक बहुत सुन्दर गुड्डे जैसे बेटे की माँ बन गयी! 

तब विराटविक्रम ने फूलकुमारी से कहा – “रानी जी, हम चाहते हैं कि आप सभी दास-दासियों और कारागार में बन्द कैदियों को राजकुमार के जन्म की मिठाई अपने हाथ से बांटें और पुत्र के सुखद भविष्य के लिये सबका आशीर्वाद प्राप्त करें!” 

जब फूलकुमारी मिठाई बांटने के लिये कारागार में गई तो वहाँ अपने माता-पिता और बहनों को देख हतप्रभ रह गयी! राजा महेन्द्रसिंह, रानी तिलोत्तमा और फूलकुमारी की बहनों ने उसे नहीं पहचाना, लेकिन वह सबको पहचान गयी। किन्तु उसने अपने परिवार के सामने यह नहीं कहा कि वह वही फूलकुमारी है, जिसे पिता ने दुत्कार कर घर से बाहर निकाल दिया था।   

फिर उसने अपने पति विराटविक्रम के निकट पहुँच फूलकुमारी ने उससे कहा -“सुनो जी, मैं चाहती हूँ कि पुत्रजन्म की खुशी में आप सभी कैदियों को कारागार से आज़ाद कर दें।”

“तुम्हारी इच्छा हमारे लिए आज्ञा है प्रिय।” राजा विराटविक्रम ने कहा। 

“मैं एक बात और कहना चाहती हूँ।” फूलकुमारी ने कहा। 

“निस्संकोच कहो रानी।” विराटविक्रम बोला। 

“आपके कारागार में कैद महेन्द्रगढ़ के महाराज महेन्द्रसिंह और रानी तिलोत्तमा मेरे वास्तविक माता-पिता हैं। आप उन्हें व मेरी बहनों को आज़ाद करने के साथ-साथ मेरे पिता को उनका राज्य लौटा दें।” फूलकुमारी ने कहा और बताया कि किस तरह उसके पिता ने उसे अपने घर से बाहर निकाल दिया था और फिर भाग्य ने उसे माता पिता के रूप में सेठ धर्मसिंह और सावित्री दिये और सेठ और सेठानी ने उसे अपनी सगी बेटी की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया। 

सब कुछ जानकर राजा विरतविक्रम ने कहा -“तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है रानी, राजा महेन्द्रसिंह ने तुम्हारे साथ जो किया, उस पर हमें उनके लिए दया करना उचित तो नहीं लगता, लेकिन हम तुम्हारी इच्छा का सम्मान करते हुए सभी कैदियों के साथ उन्हें भी आज़ाद कर देते हैं और उनका जीता हुआ राज्य भी उन्हें लौटा देते हैं।”  

राजा विराटविक्रम फूलकुमारी से इतना ज्यादा प्यार करने लगा था कि वह अपनी पत्नी का अनुरोध ठुकरा नहीं सका  और महेन्द्रसिंह व उनके परिवार को आज़ाद करके महेन्द्रगढ़ का राज्य भी उन्हें लौटा दिया। 

अपने परिवार को वापस महेन्द्रगढ़ जाने के लिये विदा करते हुए फूलकुमारी ने अपने पिता से मुस्कुराते हुए कहा -“पिताजी,  आपने मुझे नहीं पहचाना, मैं आपकी ठुकराई हुई बेटी फूलकुमारी हूँ और देखिये, मेरे भाग्य ने आज भी मुझे सारे  सुख प्रदान कर रखे हैं। आप भी बेशक मेरी वजह से ही, फिर से अपना पुराना सुख भोगने जा रहे हैं, पर जरा बताइये तो इसके पीछे किसका भाग्य है?”

“मेरा भाग्य… नहीं-नहीं तेरा भाग्य!” महेन्द्रसिंह हड़बड़ाकर बोला! 

फूलकुमारी हंसी-“पिताजी, ईश्वर हर व्यक्ति का भाग्य अलग अलग लिखता है! सबके भाग्य का बंटवारा वही करता है! आपने मेरे पति की कैद में अब तक जो कुछ भोगा, वह आपका भाग्य था और आपने जब मुझे अपने राजमहल से दुत्कार कर निकाल दिया, वो मेरा भाग्य था! इस संसार में कोई किसी के भाग्य की रोटी नहीं खाता! सब अपने-अपने भाग्य की रोटी खाते है!”

रानी तिलोत्तमा और फूलकुमारी की सभी बहनें बरसों बाद फूलकुमारी को अपने सामने पाकर उससे लिपटकर खुशी के आंसू बहाने लगीं। 

महेन्द्रसिंह भी सिर झुकाये आंसू बहा रहा था, किन्तु अपनी सबसे छोटी बेटी के प्रति किये गए अपराध की शर्मिन्दगी उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी।        

Moral:

इस दुनिया में हर कोई अपने भाग्य की रोटी खाता है और भाग्य प्रबल हो तो एक भिखारिन भी रानी बन सकती है और भाग्य यदि ठोकर मारे तो एक राजा भी गुलाम या कैदी बन सकता है।