वक्षःस्थल में राम (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
जगजननी जानकी और जगत्त्राता प्रभु श्रीराम को अयोध्या के सिंहासन पर आसीन देखकर सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया| अयोध्या में तो आनंद का पावन नर्तन हो ही रहा था, हर्षातिरेक में नदिनी पुलकित हो गई और देवगण मुदित होकर स्वर्ग से फूलों की वर्षा करने लगे|
भगवान श्रीराम ने मुनियों एवं ब्राह्मणों को पुष्कल दानादि प्रत्येक रीति से प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया| तदनंतर उन्होंने अपने मित्र सुग्रीव को मणियों से युक्त सोने की एक दिव्य माला भेंट की, जो सूर्य की किरणों के समान प्रकाशित हो रही थी| फिर प्रभु श्रीराम ने युवराज अंगद को नीलम से जटित दो बाजूबंद भेंट किए, जो चंद्रमा की किरणों से विभूषित प्रतीत होती थी| इसी प्रकार मैत्री धर्म का मर्म समझने वाले श्रीराम ने राक्षसराज विभीषण, परम बुद्धि-वैभव, संपन्न जांबवान, नल और नील आदि वानर-भालुओं को बहुमूल्य अलंकार एवं श्रेष्ठ रत्नादि प्रदान किए|
उस समय भगवान श्रीराम ने महारानी सीता को अनेक सुंदर वस्त्राभूषण अर्पित किए| साथ ही उन्होंने चंद्र किरणों तुल्य प्रकाशित उस परमोत्तर मुक्ताहार को उनके गले में डाल दिया, जिसे उन्हें वायु देवता ने अत्यंत आदरपूर्वक प्रदान किया था|
माता सीता ने देखा कि प्रभु ने सबको अनेक बहुमूल्य उपहार अत्यंत प्रेमपूर्वक प्रदान किए, किंतु पवनकुमार को अब तक कुछ नहीं मिला और पवनकुमार निरंतर श्री सीताराम के चरणारविंद की ओर देख रहे थे| उन्हें त्रैलोक्य की संपूर्ण संपत्ति उन चरणों में ही समाई दीख रहीं थी| माता सीता ने प्रभु की ओर देखकर हनुमान जी को कुछ भेंट देने का विचार किया| उन्होंने प्रश्न प्रदत्त दुर्लभतम मुक्ताहार अपने गले से निकालकर हाथ में ले लिया और प्रभु की ओर तथा समस्त वानरों की ओर देखने लगीं|
महारानी सीता की इच्छा का अनुमान कर प्रभु राम ने कहा – “सौभाग्यशालिनी! तुम जिसे चाहो, इसे दे दो|
अपने प्राणनाथ का आदेश प्राप्त होते ही माता सीता ने वह मुक्ताहार पवनपुत्र को दे दिया| इस बहुमूल्य हार को कंठ में धारण करने पर हनुमान जी की शोभा अद्भुत हो गई| हनुमान जी की भक्ति से तो सभी प्रभावित थे और सभी स्वीकार करते थे कि तेज, धृति, यश, चतुरता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और उत्तम बुद्धि – ये दस गुण उनमें सदा विद्यमान रहते हैं| अतएव इस बहुमूल्य हार के यथार्थ पात्र हनुमान जी ही थे| किंतु इस हार के मिल जाने पर श्रीराम ने एक नई लीला प्रारंभ कर दी, जिससे हनुमान जी की अद्भुत महिमा प्रकट हुई और उनकी अनन्य भक्ति के सम्मुख सबको नत होना पड़ा|
जहां हनुमान जी के उस बहुमूल्य मुक्ताहार को प्राप्त करने के सौभाग्य की प्रशंसा हो रही थी, वहीं हनुमान जी की मुखाकृति पर उसकी प्राप्ति के कारण हर्ष का कोई चिह्न नहीं दीख रहा था| वे तो सोच रहे थे कि माता जानकी और प्रभु श्रीराम मेरी अंजलि में अपने अनंत सुखदायक चरण कमल रख देंगे, किंतु यह मातृप्रदत्त मुक्ताहार! हनुमान जी ने उस मुक्ताहार को गले से निकाल लिया और उसे उलट-पलट कर देखने लगे| कुछ देर तक तो वे हार को उसके प्रकाश विकीर्णकारी एक-एक मुक्तामणि को ध्यानपूर्वक देखते रहे, किंतु उनमें उनका अभीष्ट प्राप्त नहीं हुआ| उन्होंने सोचा कि संभवत: इसके भीतर मेरे अभीष्ट ‘श्री सीताराम’ मिल जाएं| बस, उन्होंने एक अनमोल रत्न को मुंह में डालकर अपने वज्र तुल्य दांतों से फोड़ दिया, पर उसमें कुछ भी नहीं था| हनुमान जी ने उसे फेंक दिया|
यह दृश्य देखकर सबका ध्यान हनुमान जी की ओर आकृष्ट हो गया| भगवान श्रीराम मन-ही-मन मुस्कुरा रहे थे और माता जानकी, भरत आदि भ्राता, राक्षसराजा विभीषण, वानरराज सुग्रीव,युवराज अंगद, महाप्रबुद्ध जांबवान, निषादराज, समस्त वानर-भालू एवं सभासद गण यह दृश्य देखकर चकित हो रहे थे| हनुमान जी ने दूसरे रत्नों को भी मुंह में डालकर फोड़ दिया और उन्हें भी देखकर फेंक दिया| इस प्रकार वे अनमोल मुक्ताहार और रत्नों को मुख में डालकर दांतों से फोड़ते और उसे देखकर फेंक देते|
यह देख सभासदों का धैर्य जाता रहा, पर कोई कुछ बोल न पा रहा था| कानाफूसी होने लगी – ‘आखिर हनुमान जी हैं तो बंदर ही ना| बंदर को बहुमूल्य हार देने का और क्या परिणाम होता?’ विभीषण जी ने तो पूछ ही लिया – “हनुमान जी! इस हार के एक-एक रत्न से विशाल साम्राज्य क्रय किए जा सकते हैं और आप इन्हें तोड़-फोड़कर नष्ट कर रहे हैं?”
एक रत्न को फोड़कर ध्यानपूर्वक देखते हुए हनुमान जी ने उत्तर दिया – “लंकेश्वर! क्या करूं? मैंने देखा कि इस हार में मेरे प्रभु की भुवनपावनी मूर्ति है कि नहीं, किंतु इसमें उसे न पाकर मैं इसके रत्नों को तोड़-फोड़कर देख रहा हूं कि संभवतः इनमें मेरे सर्वेश्वर की मूर्ति मिल जाए, पर अब तक तो एक भी रत्न में मेरे प्रभु की मूर्ति के दर्शन नहीं हुए| जिनमें मेरे स्वामी की त्रयताप निवारक मूर्ति नहीं वे तो तोड़ने और फेंकने योग्य ही हैं| इनका प्रयोग ही क्या?”
महा-मूल्यवान रत्नों के नष्ट होने से राक्षसराज विभीषण ने कुछ क्षुब्ध होकर पूछा – “यदि इन अनमोल रत्नों में प्रभु की झांकी नहीं मिल रही है तो पहाड़ जैसी आपकी काया में प्रभु की झांकी होती है क्या?”
“निश्चय|” हनुमान जी ने दृढ़-विश्वास के साथ उत्तर दिया – “मेरे प्राणनाथ प्रभु मेरे हृदय में भी विराजते हैं और यदि वे वहां नहीं हैं, तब तो इस शरीर का भी कोई उपयोग नहीं| मैं इसे अवश्य नष्ट कर दूंगा| आप स्वयं देख लीजिए|” कहते हुए हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम के अनन्य चरणानुरागी पवनकुमार ने दोनों हाथों को अपने वक्ष पर रखा और अपने तीक्ष्णतम नखों से उसे फाड़कर दो भागों में विभक्त कर दिया|
आश्चर्य! अत्यंत आश्चर्य!! विभीषण ने ही नहीं, भगवती सीता सहित भगवान श्रीराम एवं समस्त सभासदों ने प्रत्यक्ष देखा| श्री सीताराम की पावनतम मूर्ति पवनपुत्र हनुमान जी के हदय में भी विराज रही थी और उनके रोम-रोम से राम-नाम की ध्वनि हो रही थी| लंकेश्वर उनके चरणों में गिर पड़े|
“भक्तराज हनुमान की जय|” सभासदों ने जयघोष किया और भगवान श्रीराम ने सिंहासन से उठकर हनुमान जी को अपने हृदय से लगा लिया| श्रीराम के स्पर्श से हनुमान जी का शरीर पूर्ववत स्वस्थ और सुदृढ़ हो गया| राजसभा में सबने हदय से स्वीकार किया कि हनुमान जी श्री सीताराम के अनन्य भक्त हैं|
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