मृत्यु बाण का हरण (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
रावण के दस सिर और बीस हाथ कटने पर भी पुनः जुड़ जाते थे| यह एक चमत्कार था| कई बार उसने राम के साथ युद्ध किया, पर हर बार वह लंका सुरक्षित लौट जाता था|
एक पापी को कैसे मारा जाए? इसी विषय पर राम, लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण विचार-विमर्श कर रहे थे| रावण का भाई होने के नाते श्रीराम ने विभीषण से पूछा – “विभीषण! तुम बताओ, किसके वरदान से यह सब चमत्कार होता है?”
विभीषण ने कहा – “प्रभु! रावण शंकर जी का परम भक्त है| शंकर जी ने उसे दो वरदान दिए हैं| प्रथम तो यह दिया कि उसके दस सिर और बीस हाथ कभी नहीं कटेंगे और दूसरा उसको एक मृत्यु बाण दिया है| इस बाण को अगर उसके सीने में मारा जाए तो उसकी मृत्यु होगी| रावण का यह बाण मंदोदरी के पास है| मंदोदरी ने इसे कहां रखा है, मुझे नहीं मालूम|”
यह सुनकर राम के चेहरे पर उदासी छा गई| उन्होंने भारी गले से कहा – “तुम्हारी बात से यह अनुमान लगता है कि रावण को मारना आसान काम नहीं है| न तो मृत्यु बाण मुझे मिलेगा और न उसकी मृत्यु होगी| अगर यह बात मुझे पहले मालूम हो जाती तो मैं व्यर्थ का रक्तपात नहीं करता|”
वास्तव में समस्या गंभीर थी| रावण को मारने के लिए मृत्यु बाण का लाना अत्यंत आवश्यक था| इस कठिन और जोखिम भरे काम को कौन करेगा? तभी वहां पवनपुत्र हनुमान जी आ गए| सारी बात सुनने के बाद उन्होंने कहा – “प्रभु! चिंता की कोई बात नहीं| मैं इस काम को कर दूंगा| रावण के मृत्यु बाण को मैं ले आऊंगा|”
राम ने कहा – “हनुमान! अब तक तुमने जो भी कार्य किए वह अतुलनीय हैं| तुमने अभी तक काफी परिश्रम किया है| इस पर भी उस पापी की मृत्यु नहीं हुई|”
हनुमान जी ने कहा – “प्रभु! आप आशीर्वाद तो दीजिए| फिर देखिए मेरा काम| मैं सफल होता हूं कि नहीं|”
विवश होकर श्रीराम को उन्हें अनुमति देनी पड़ी| हनुमान जी राम का आशीर्वाद लेकर चल पड़े| हनुमान जी ने माया के प्रभाव से वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया| गले में जनेऊ, एक कांख में पोथी-पत्र, ललाट पर तिलक| एक हाथ में लाठी| पूर्ण रूप से वह ब्राह्मण बन गए थे|
वह ब्राह्मण लंका के अंतःपुर के महल के फाटक के पास जाकर रावण की जय-जयकार करने लगा| पहरेदारों से यह कहकर कि वह रानी मंदोदरी से मिलना चाहता है, महल के भीतर घुस गया| महारानी मंदोदरी ने ब्राह्मण को देखा तो अचानक ही उसका मन श्रद्धा से भर गया| ब्राह्मण के मुंह से केवल रावण की जय-जयकार के शब्द निकल रहे थे| महारानी मंदोदरी ने वृद्ध ब्राह्मण को आदर से अपने स्वर्ग सिंहासन पर बैठने का आग्रह किया| वृद्ध के पास कुश का आसन था| वह अपना आसन बिछाकर बैठ गया|
मंदोदरी ने कहा – “विप्रवर! मेरा यह अहोभाग्य कि आप मेरे महल में पधारे हैं| बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा करूं?”
वृद्ध ब्राह्मण ने कहा – “महारानी! मैं तुमसे और लंकापति रावण से बहुत खुश हूं| लंका में रहता हूं| रावण का जन्मजात हितैषी हूं| पता नहीं कुछ नर और वानर कहा से आकर लंका में उत्पान मचाने लगे हैं| इन नर और वानरों का नेतृत्व कोई राम और लक्ष्मण नाम के नर कर रहे हैं| पर इनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है| जब तक रावण के प्राण तुम्हारे पास सुरक्षित हैं, तब तक एक राम तो क्या सौ राम भी आ जाएं तो रावण का कुछ बिगाड़ नहीं सकते|”
मंदोदरी अपने पति के बारे में यह बात सुनकर मन ही मन प्रसन्न हो रही थी| ब्राह्मण ने कुछ देर रुकने के बाद कहा – “मैं केवल तुम्हें सावधान करने आया हूं| कानोकान इसकी खबर नहीं होनी चाहिए| स्वयं ब्रह्मा भी आकर तुमसे पूछें कि वह बाण कहां रखा है तो भी मत बताना|”
मंदोदरी ने कहा – “विप्र! आप निश्चिंत रहें, मैं किसी को भी नहीं बताऊंगी|”
फिर वृद्ध ब्राह्मण ने अपना आसन समेटा और वहां से चल पड़ा| पर दो कदम जाकर रुक गया| लौटकर बोला – “महारानी! स्त्री होने के नाते तुम बहुत मुर्ख हो| तुम्हें तो यह अच्छी तरह से पता है कि विभीषण शत्रु से मिल गया है| लंका का चप्पा-चप्पा उसकी जानकारी में है| उसे जरूर पता होगा कि तुमने बाण कहां रखा है? शत्रु को वह यह भेद बताए बिना नहीं मानेगा| तब क्या होगा! क्या तुमने कभी इसके बारे में सोचा है?”
मंदोदरी ने वहीं बने रत्न-जड़ित एक खंभे की ओर इशारा करते हुए कहा – “विप्र! वह बाण इस खंभे में है| इसकी जानकारी विभीषण को नहीं है|”
विप्र को इसी बात की जानकारी करनी थी| उन्होंने एक ही वार में खंभे को लात मारकर धराशायी कर दिया| वह अब अपने असली रूप में आ गए| बाण को लेकर वह श्रीराम के पास आ गए| मंदोदरी हाथ मलती रह गई|
हनुमान जी के इस अभियान में सफल होने पर वानरों में प्रसन्नता की लहर छा गई| श्रीराम ने उन्हें गले से लगा लिया|
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