काशी नरेश की प्राण रक्षा (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
एक बार हनुमान जी ने अपने प्रभु श्रीराम से अपनी माता अजना के दर्शनार्थ जाने की आगया मांगी| प्रभु ने उन्हें सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दी|
हनुमान जी अपनी माता के दर्शनार्थ जाने वाले थे, उसी समय कोश नरेश श्रीराम के दर्शनार्थ आ रहे थे| मार्ग में उन्हें देवर्षि नारद मिल गए| काशी नरेश ने देवर्षि के चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया| नारद ने पूछा – “तम कहां जा रहे हो काशी नरेश?”
काशी नरेश ने उत्तर दिया – “देवर्षि! मैं प्रभु श्रीराम के दर्शनार्थ उनकी राजसभा में जा रहा हूं|”
यह सुनकर नारद ने कहा – “मेरा एक कार्य करोगे|”
काशी नरेश ने तुरंत कहा – “ऋषिवर! धरती पर ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी आज्ञा के पालन के लिए तुरंत न दौड़ पड़े? आप आज्ञा प्रदान करें|”
नारद जी ने मुस्कुराते हुए कहा – “तुम राजसभा में प्रभु श्रीराम के चरणकमलों में श्रद्धा-भक्तिपूर्वक प्रणाम तो अवश्य करना, किंतु उन्हीं के समीप सिंहासन पर बैठे वयोवृद्ध तपस्वी विश्वामित्र जी की उपेक्षा कर देना| उन्हें प्रणाम मत करना|”
काशी नरेश ने प्रश्न किया – “ऐसा क्यों ऋषिवर?”
नारद जी ने उत्तर दिया – “इस क्यों का उत्तर आपको बाद में मिल जाएगा|”
“नारायण हरि|” कहकर नारद जी चले गए और काशी नरेश श्रीराम की सभा में पहुंचे| उन्होंने देवर्षि के आदेशानुसार श्रीराम के चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया, किंतु महर्षि विश्वामित्र की सर्वथा उपेक्षा करके बैठ गए|
काशी नरेश की इस उपेक्षा से महर्षि विश्वामित्र के हृदय पर चोट पहुंची, किंतु वे राजसभा में चुप रहे| पीछे उन्होंने श्रीराम से कहा – “श्रीराम! तुम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हो, इसलिए तुम्हारी राजसभा में तुम्हारे उपस्थित रहते मर्यादा की अवहेलना उचित नहीं|”
महर्षि विश्वामित्र की बात सुनकर प्रभु श्रीराम ने आश्चर्य से पूछा – “गुरुदेव! मेरे रहते कब और कहां मर्यादा का उल्लंघन हुआ| आप कृपापूर्वक बतलाने का कष्ट करें|”
विश्वामित्र बोले – “आज ही राजसभा में काशी नरेश ने तुम्हारे चरणों में तो प्रणाम किया, किंतु उसने मेरी सर्वथा उपेक्षा कर दी| यह कदापि उचित नहीं|”
“मेरी राजसभा में, मेरे ही सम्मुख आपकी उपेक्षा? यह तो मेरा भयानक तिरस्कार है|” भगवान श्रीराम की भृकुटि वक्र हो गई| उन्होंने प्रतिज्ञा की – “आपके समक्ष मैं अपने तीन तीक्ष्णतम बाण पृथक रख दे रहा हूं| इन तीन बाणों से आज संध्या तक काशी नरेश मर जाएगा|”
इन तीन बाणों से आज संध्या तक काशी नरेश मारा जाएगा| परम पराक्रमी श्रीराम की यह प्रतिज्ञा वायु वेग से सर्वत्र फैल गई| काशी नरेश ने सुना तो उनका कंठ शुष्क हो गया| जीवन से सर्वथा निराश होकर वे दौड़े नारद जी के पास आए और उनके चरणों में गिरकर गिड़गिड़ाते हुए बोले – “देवर्षि! सत्य प्रतिज्ञ श्रीराम ने आज सायंकाल तक मुझे मार डालने की प्रतिज्ञा की है|”
“प्रतिज्ञा तो मैंने भी सुनी है|” देवर्षि नारद ने तटस्थ की भांति उत्तर दिया – “और श्रीराम की प्रतिज्ञा? सर्वविदित है कि रघुकुल में प्रतिज्ञा पूर्ति के लिए प्राण तक होम देने में आपत्ति नहीं होती|”
काशी नरेश रो पड़े| बोले – “देवर्षि! मैंने तो आपके आदेश का पालन किया था| जैसे भी हो, आप मेरे प्राण बचाइए|”
नारद जी ने काशी नरेश को समझाते हुए कहा – “आप चिंता न करे| मृत्यु तो निश्चित होती है| वह किसी प्रकार टलती नहीं| यदि भगवान श्रीराम के बाणों से प्राणपखेरू उड़ जाए तो निश्चय ही जीवन सफल हो जाए, किंतु तुम एक काम करो|” नारद जी ने काशी नरेश से धीरे-धीरे कहा – “तुम हनुमान जी की माता अंजना के समीप जाकर उनके चरण पकड़ लो| जब वे चरण छुड़ाने लगें, तब तुम अपनी रक्षा के लिए वचन ले लेना| जब तक वे तीन बार तुम्हारी रक्षा के वचन न दे दें, तब तक तुम उनके चरण पकड़े रहना| बस, तुम्हारा काम बन जाएगा|”
नारद जी की बात सुनकर काशी नारेश भागे-भागे माता अंजना के यहां गए| माता अंजना बैठी हुई भगवान राम का जप कर रही थीं| रोते-कलपते काशिराज माता के चरणों पर गिर पड़े| उनके चरणों को पकड़ कर उन्होंने कहा – “मां! मेरी रक्षा करो| आज सायंकाल तक एक समर्थ व्यक्ति ने मुझे मार डालने का स्वरूप किया है| तुम्हारे अतिरिक्त मेरे प्राण और कोई नहीं बचा सकता| रक्षा करो मां, रक्षा करो|”
माता अंजना बोलीं – “किसने और क्यों तुझे आज संध्या के पूर्व ही मार डालने का प्रण किया है?”
काशी नरेश बोले – “मां तुम मेरी रक्षा का वचन दे दो, अन्यथा मैं अभी तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण त्याग दूंगा|”
वात्सल्यमयो सरल जननी ने कहा – “मैं तेरे प्राण की रक्षा का वचन देती हूं|”
फूट-फूटकर रोते हुए काशी नरेश ने अधीर होकर पुनः प्रार्थना की – “मां! मुझे संतोष नहीं हो रहा है| मेरे विश्वास के लिए तुम यही बात तीन बार कह दो|”
“मैं तेरी प्राण रक्षा का वचन देती हूं|” सर्वथा सरल दयामयी जननी ने तीन बार कहते हुए कहा – “अच्छा, अब तो बता| तुझे मारने को किसने प्रतिज्ञा की है?”
काशी नरेश ने कहा – “भगवान श्रीराम ने| उन्होंने आज सायंकाल तक मेरे वध की प्रतिज्ञा की है और इसके लिए उन्होंने अपने तीन तीक्ष्ण बाण भी निकालकर अलग रख दिए हैं|”
यह सुनकर माता अंजना चिंतित होकर बोली – “श्रीराम की प्रतिज्ञा कैसे अन्यथा हो सकती है? पर मैंने तुझे वचन दिया है, अतः प्रयत्न तो करूंगो हो|”
उसी समय हनुमान जी ने वहां पहुंचकर माता का चरण स्पर्श किया| आशीर्वाद देते हुए माता ने कहा – “बेटा! तुम ठीक समय पर आए| अभी-अभी मैं एक आवश्यक कार्य से चिंतित होकर तुम्हारा ही स्मरण कर रही थी| वह कार्य हो जाए तो मेरा मन हल्का हो जाए|”
हनुमान जी ने कहा – “आज्ञा दीजिए माताजी| आपका कार्य करने के लिए तो मैं प्रतिक्षण प्रस्तुत हूं|”
माता अंजना बोलीं – “पर काम तो कठिन है बेटा! इस कारण मैं चिंतित हो गई हूं|”
माता अंजना की बात सुनकर हनुमान जी ने उन्हें आश्वस्त करने के लिए कहा – “आपकी कृपा से आपका पुत्र विद्या, बुद्धि, बल-पौरुष और पराक्रम से ही संपन्न नहीं, उस पर निखिल भुवनपति श्रीराम को अपार करुणा को वृष्टि भी निरंतर रही है| आप आज्ञा प्रदान कीजिए|”
माता अंजना ने कहा – “यह सब कुछ में जानती हूं, मेरे लाल! किंत काम अत्यंत कठिन है, इसीलिए कहने में झिझक रही हूं|”
“माताजी! आपके पवित्र चरणों के सम्मुख मैं एक बार नहीं, तीन बार प्रतिज्ञा करता हूं कि आपकी आज्ञा मिलने पर काम चाहे जितना भी कठिन होगा, मैं उसे अवश्य पूर्ण कर आपकी चिंता दूर कर दूंगा|”
माता अंजना ने हनुमान जी के बल, पराक्रम और उनकी मातृ-भक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा – “बेटा! मुझे तुमसे यही आशा थी और ऐसा ही विश्वास था| बेटा! मैंने काशी नरेश को उसकी प्राण रक्षा का वचन दे दिया है| आज सायंकाल तक श्रीराम ने उसका वध करने की प्रतिज्ञा की है और इसके लिए उन्होंने तीन तीक्ष्ण बाण भी निकालकर अलग रख लिए हैं|”
माता की बात सुनकर हनुमान जी ने आश्चर्य से कहा – “मेरे प्रभु श्रीराम की प्रतिज्ञा…?”
माता अंजना बीच में ही बोल पड़ीं – “पर बेटा! मैं काशीराज को वचन दे चुकी हूं और तुमने मुझे तीन बार वचन दिया है| शरणागत की रक्षा धर्म है बेटा!”
हनुमान जी ने कहा – “ठीक है मां! मैं कुछ करता हूं|” यह कहकर हनुमान जी ने माता के चरणों में प्रणाम करके उनसे जाने की अनुमति मांगी|
माता की आज्ञा प्राप्त होते ही हनुमान जी काशी नरेश के साथ अयोध्या पहुंचे| वहां उन्होंने काशी नरेश से कहा – “राजन्! तुम सकल कलुष नाशिनी परम पावनी सरयू में कमर तक जल में खड़े होकर अविराम राम-राम का जप करते रहो|”
काशी नरेश ने पवनपुत्र के आदेश का पालन करना आरंभ किया और इधर हनुमान जी तुरंत श्रीराम के समीप पहुंचे| वहां उन्होंने भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम कर उनके दोनों चरण पकड़कर कहा – “स्वामी! आज मैं आपसे एक वर की याचना करना चाहता हूं|”
यह कैसे संभव है कि सर्वथा नि:स्पृह और अत्यंत संकोची हनुमान जी कभी कुछ मांगें और प्रभु अस्वीकार कर दें? श्रीराम ने उत्साहपूर्वक कहा – “तुम्हारे लिए अदेय कुछ नहीं हनुमान! तुम तो कभी कुछ चाहते ही नहीं| मैं तो सदा चाहता हूं कि तुम मुझसे कुछ चाहो, कुछ मांगो, पर मेरी इस इच्छा की पूर्ति तमसे नहीं हो पाती| बोलो, तुम क्या चाहते हो?”
प्रसन्न होकर हनुमान जी ने प्रभु के चरण सहलाते हुए कहा – “प्रभो! मैं चाहता हूं कि आपके अमित महिमामय नाम का जप करने वाले की सदा रक्षा किया करूं और मेरी उपस्थिति में आपके नाम-जापक पर कभी कहीं कोई किसी प्रकार का प्रहार न करे| यदि दुर्भाग्यवश निखिल सृष्टि का सर्वसमर्थ स्वामी भी प्रहार कर बैठे तो उसका भी प्रहार व्यर्थ जाए|”
भगवान श्रीराम ने तुरंत आशीर्वाद दिया – “तुम नाम जापक की रक्षा करने में सर्वत्र सदा समर्थ होओगे और तुम्हारी उपस्थिति में नाम-जापक पर किया गया अमोघ प्रहार भी व्यर्थ सिद्ध होगा|”
“जय श्रीराम|” यह कहकर हनुमान जी ने प्रभु चरणों में मस्तक रख दिया और तुरंत सरयू तट पर पहुंचे| वहां वे गदा तानकर अत्यंत सावधानी से खड़े हो गए और काशी नरेश से बोले – “तुम बिना रुके निरंतर ‘राम-राम’ रटते रहो|”
स्थिति विचित्र हो गई| एक ओर सर्वाधार स्वामी श्रीराम की सायंकाल तक नरेश के वध की प्रतिज्ञा और दूसरी ओर अनन्य भक्त हनुमान जी का उनकी रक्षा के लिए परिकर बद्ध हो जाना| राजा सरयू जल में खड़े होकर प्राण भय से अनवरत रूप से ‘राम’ नाम का जप कर रहे थे और वर प्राप्त हनुमान जी उनकी रक्षा के लिए गदा ताने खड़े थे| बात विद्युत गति से फैल गई| अयोध्या वासी समस्त बाल, वृद्ध, नर नारी कौतूहलवश सरयू तट पर पहुंचे| प्रभु और सेवक के प्रतिज्ञा पालन का दृश्य देखने के लिए विशाल जन समुदाय एकत्र हो गया|
सायंकाल हो चुका था| यह समाचार भगवान श्रीराम को मिला| यह सुन वे कुपित हो गए| उन्होंने अपने प्रण का पालन करने के लिए पृथक रखे गए तीन बाणों में से एक बाण उठाया और अपने धनुष पर रखकर प्रत्यंचा कान तक खींची और बाण छोड़ दिया| किंतु उन्हें राम नाम का जप करते देखकर वह बाण उनका मस्तक छिन्न नहीं कर सका| वह नरेश के चुप होने की प्रतीक्षा करता रहा, किंतु हनुमान जी के द्वारा दीक्षित नरेश प्राण भय से अविराम पूरी शक्ति लगाकर ‘राम-राम’ जपते ही जा रहे थे|
निराश होकर बाण प्रभु श्रीराम के पास वापस लौट आया| उसने निवेदन किया – “प्रभो! नाम-जापक की सर्वत्र रक्षा के लिए आपने हनुमान जी को वर प्रदान कर दिया है और उस पर सभी प्रहार व्यर्थ सिद्ध होने की आपकी वाणी है| वह राजा निरंतर आपके नाम का जप कर रहा है और बजरंगबली हुनमान जी गदा ताने उसकी रक्षा में तत्पर हैं| इस कारण मैं विवश होकर लौट आया|”
यह सनकर श्रीराम क्रोधित हो उठे| उन्होंने दूसरा बाण धनुष पर चढ़ाकर छोड़ा| वह वायुवेग से चला और काशी नरेश का प्राण हरण करने के लिए उनके समीप पहुंचा भी, किंतु अब तो काशी नरेश हनुमान जी के आदेशानुसार सीता-सहित नाम ‘सीताराम-सीताराम’ का जप कर रहे थे|
दूसरे बाण को भी नरेश के कंठ का स्पर्श करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ| विवशत: वह भी प्रभु राम के पास लौट आया| उसने भी काशी नरेश के सीताराम-सीताराम रटने और गदाधर हनुमान जी के द्वारा उनकी रक्षा का वृत्तांत सुना दिया|
“मैं स्वयं सरयू तट पर चलकर उस धृष्ट नरेश और हनुमान जी को भी मार डालता हूं|” सत्यप्रतिज्ञ भगवान श्रीराम अत्यंत क्रुद्ध हो गए| उन्होंने अपना विशाल धनुष तथा तीसरा बाण लिया और सरयू तट की ओर तीव्रगति से चल पड़े|
उधर हनुमान जी ने सोचा, ‘प्रभु अपने मंगलमय नाम की विरद रखते हैं, भक्तों के लिए वे अपना सर्वस्व त्याग देते हैं| भक्त उन्हें प्राणप्रिय हैं|’ अतएव उन्होंने काशी नरेश से कहा – “अब तुम भगवती सीता और प्रभु नाम के साथ मेरे नाम का भी जप करना प्रारंभ कर दो|”
राजा ‘जय सियाराम जय जय हनुमान’ का जप करने लगे| काफी समय तक जोर-जोर से नाम जप करते-करते नरेश थक गए थे और उनकी वाणी लड़खड़ाने लगी थी| वे तो मृत्यु भय से अत्यंत साहसपूर्वक जैसे-तैसे नाम जप चला ही रहे थे, किंतु मातृ भक्त हनुमान जी भी अपने एक अंश से काशीराज के कंठ में प्रविष्ट होकर ‘जय सियाराम जय जय हनुमान’ का अनवरत रूप से जप करने लगे|
क्रोधित होकर श्रीराम को आते देखकर वशिष्ठ जी व्याकुल हो गए| उन्होंने सोचा, ‘भगवान श्रीराम की प्रतिज्ञा अन्यथा नहीं हो सकती और कहीं उन्होंने नरेश के साथ हनुमान जी को भी मार डाला तो महान अनर्थ हो जाएगा|’ तब हनुमान जी के पास पहुंचकर वशिष्ठ जी ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया – “पवनकुमार, श्रीराम जी तुम्हारे सर्वस्व हैं| उनकी प्रतिज्ञा पूरी हो जाने दो| नितांत समीप होने के कारण उनका क्रोध बढ़ता जा रहा है| वह राजा तो उन श्रीराम के पावन शरस्पर्श से जन्म-मरण से सदा के लिए मुक्त हो जाएगा| एक राजा के लिए अपने स्वामी के सम्मुख तनकर खड़ा हो जाना तुम्हारे जैसे सेवक के लिए कदाचित उचित नहीं|”
हनुमान जी ने अत्यंत विनयपूर्वक कहा – “गुरुदेव! मैं त्रैलोक्य में भी अपने सर्व समर्थ प्रभु के समीप तनकर खड़ा होने की कल्पना भी नहीं कर सकता| मैं तो अपने प्रभु के नाम और उनके वरदान की रक्षा के निमित्त प्राणाहुति देने के लिए प्रस्तुत हो गया हूं| मेरा इससे अधिक सौभाग्य और क्या होगा कि मैं अपने प्राणाधिक प्रभु श्रीराम के नाम एवं उनकी वरदान की रक्षा में उनके ही करकमलों से छोड़े हुए उन्हीं बाणों से शरीर त्यागकर उनमें हीं विलीन हो जाऊं|”
वशिष्ठ जी ने सोचा, ‘इन ज्ञानमूर्ति को विचलित करना संभव नहीं| तभी उन्होंने देखा श्रीराम सरयू तट पर पहुंचना ही चाहते हैं| महर्षि विश्वामित्र भी वहां उपस्थित होकर भगवान और भक्त की यह लीला देखकर चकित और चिंतित हो रहे थे| तब वशिष्ठ जी ने काशीराज से कहा – “नरेश! तुम शीघ्र ही महर्षि विश्वामित्र के चरण पकड़ लो| वे सहज दयालु हैं|”
‘जय सियाराम जय जय हनुमान’ का जप करते हुए काशीराज ने दौड़कर महर्षि विश्वामित्र के चरण पकड़ लिए| उनके अश्रुओं से महर्षि के चरण आर्द्र हो गए| यह देख महर्षि विश्वामित्र द्रवित हो गए| उन्होंने शरसंधान किए क्रुद्ध श्रीराम से कहा – “श्रीराम! काशी नरेश के अपराध का प्रायश्चित हो गया| मैंने उन्हें क्षमा कर दिया| अब तुम भी अपना अमोघ बाण धनुष से उतारकर तूणीर में रख लो|”
महर्षि विश्वामित्र के संतुष्ट होते ही श्रीराम का क्रोध स्वतः शांत हो गया| उन्होंने गुरु की आज्ञा का पालन किया| तीसरा बाण धनुष से तूणीर में आ गया| राजा की प्राण रक्षा तो हुई ही, भगवान के सम्मुख भक्त हनुमान जी विजयी हुए| इस समाचार से माता अंजना की प्रसन्नता की सीमा न रही|
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