हनुमान-शिव युद्ध (भगवान हनुमान जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
महाराज वीरमणि देवपुर नामक नगर के नरेश थे| पूर्वकाल में पवित्र क्षिप्रा तट पर स्थित महाकाल मंदिर में उनके कठोर तप से प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव ने उन्हें वर प्रदान करते हुए कहा था कि देवपुर में तुम्हारा राज्य होगा और भगवान श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के अश्व के आने तक तुम्हारी रक्षा के लिए मैं वहीँ निवास करूंगा| देवपुर वासियों के घरों की दीवारें स्फटिक मणि की बनी हुई थीं| मणि-माणिक्य एवं अपरिमित धन से संपन्न देवपुर में समस्त भोग सदा सुलभ थे|
भगवान श्रीराम के अश्वमेध का अश्व देव्पुर्के समीप पहुंचा ही था कि वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे पकड़ लिया और राजा वीरमणि ने सुना कि श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न की वाहिनी युद्ध के लिए बढ़ती चली आ रही है, तब उन्होंने सशस्त्र सेना तैयार करने के लिए अपने प्रबल पराक्रमी सेनापति रिपुवार को आदेश दे दिया|
राजा का आदेश पाकर सेनापति रिपुवार ने कुछ ही देर में अस्त्र-शस्त्रों से सजी सेना तैयार कर दी| उनके भाई वीर सिंह, भानजे बनमित्र तथा राजकुमार रुक्मांगद भी युद्ध के लिए रथ पर आरूढ़ होकर प्रस्तुत हो गए| स्वयं शिवभक्त राजा वीरमणि भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ रथ पर आरूढ़ होकर रणभूमि की ओर चल पड़े|
भयानक युद्ध छिड़ गया| पवनपुत्र हनुमान जी शत्रुपक्ष का संहार करते हुए पुष्कल और शत्रुघ्न की रक्षा का सदा ध्यान रखते थे| उनकी राजा वीरमणि के भाई से मुठभेड़ हो गई| उनके तीक्ष्ण बाणों से व्याकुल होकर हनुमान जी ने उनकी छाती में अपने वज्र के समान मुक्के से आघात किया| वीर सिंह हनुमान जी का वह प्रहार न सह सका और मुर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा| अपने चाचा को मुर्च्छित होते देखकर रुकमांगद और शुभागंद दोनों हनुमान जी से युद्ध करने लगे| महावीर हनुमान जी ने उन्हें रथ सहित अपन पूंछ में लपेट लिया और रथ को घुमाकर पृथ्वी पर इतनी जोर से पटका कि वह तो ध्वस्त हो ही गया, दोनों राजकुमार भी मुर्च्छित हो गए| इसी प्रकार बलमित्र भी रणस्थल में मूर्च्छित होकर धराशायी हो गए| राजा वीरमणि ने वीर पुष्कल पर भयानक बाण वर्षा की, किंतु पुष्कल ने प्रतिज्ञापूर्वक उन्हें तीन बाणों से आहत कर मुर्च्छित कर दिया|
अपने भक्तों को मुर्च्छित देखकर स्वयं भगवान शंकर युद्ध भूमि में उतर पड़े| उनके साथ उनके पार्षद और गण भी शत्रुघ्न की सेना को तहस-नहस करने में जुट गए| शिव की इच्छानुसार वीरभद्र ने पुष्कल से युद्ध किया| पुष्कल ने अद्भित वीरता का परिचय दिया, किंतु वीरभद्र ने पुष्कल के पैर पकड़कर उन्हें वेगपूर्वक चारों ओर घुमाया और पृथ्वी पर पटककर मार डाला| कुपित वीरभद्र ने अपने भयानक त्रिशूल से मृत पुष्कल का मस्तक भी काटकर धड़ से अलग कर दिया|
पुष्कल की मृत्यु का समाचार सुनकर शत्रुघ्न व्याकुल हो गए| वे अत्यंत क्रुद्ध होकर भगवान शंकर से युद्ध करने लगे| किंतु भगवान शिव ने शत्रुघ्न के वक्ष में अग्नि के समान तेजस्वी एक बाण झोंक दिया| शत्रुघ्न अचेत होकर वहीं गिर पड़े| यह दृश्य देखकर हनुमान जी ने तुरंत पुष्कल और शत्रुघ्न के शरीर को रथ में रखा और उनकी रक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था कर स्वयं शंकर से युद्ध करने के लिए वेगपूर्वक आगे बढ़े| हनुमान जी अपने पक्ष के योद्धाओं का उत्साह बढ़ाते और अपनी पूंछ जोर-जोर से हिलाते हुए भयानक गरजना करते हुए शिव के समीप पहुंच गए| उन्होंने कुपित होकर महादेव जी से कहा – “रूद्र! मैंने ऐसा सुना है कि आप सदा श्रीराम के चरणों का स्मरण करते रहे हैं, किंतु आज आपको श्रीराम भक्त का वध करने के लिए प्रस्तुत देखकर वे बातें मिथ्या सिद्ध हो गईं| धर्म के प्रतिकूल आचरण करने के कारण मैं आपको दंड देना चाहता हूं|”
परम पराक्रमी पवनकुमार की बात सुनकर शिव ने उनसे कहा – “कपिश्रेष्ठ! तुम वीरों में प्रधान और धन्य हो| तुम्हारा कथन सर्वथा सत्य है| देव-दानव वंदित भगवान श्रीराम ही मेरे ह्रदय, धन और स्वामी हैं, किंतु भक्त अपना ही स्वरूप होता है और राजा वीरमणि मेरा अनन्य भक्त है| अतः जिस प्रकार भी हो, मुझे उसकी रक्षा करनी चाहिए| यही मर्यादा है|”
शिव की बात सुनकर हनुमान जी कुपित हो उठे| उन्होंने एक विशाल शिला लेकर उनके रथ पर पटक दी| उसके आघात से भगवान शंकर का रथ घोड़े, सारथि और ध्वजा सहित चूर्ण-विचूर्ण हो गया| रथ के नष्ट होते ही भगवान शिव नंदी पर आरूढ़ होकर युद्ध करने लगे|
करुणामय भक्तवत्सल शिव की अद्भुत लीला थी| वे अपने जीवन सर्वस्व भगवान श्रीराम और प्राणप्रिय भक्त वीरमणि की ओर से युद्ध कर रहे थे| उमानाथ को वृषभ पर आरूढ़ होकर युद्ध करते देख हनुमान जी का क्रोध भड़क उठा| उन्होंने एक विशाल शाल का वृक्ष उखाड़कर शिव के वक्ष पर प्रहार किया ही था कि भगवान भूतनाथ ने क्रोधित होकर अग्नि ज्वाला की भांति अपना तीखा त्रिशूल फेंका| इस प्रकार शिव एवं हनुमान में भयानक युद्ध होने लगा| अंत में हनुमान जी ने शिव को अपनी पूंछ में लपेटकर मारना प्रारंभ कर दिया| यह दृश्य देख नंदी भयभीत हो गया| क्रुद्ध हनुमान जी के प्रहार से व्याकुल होकर शिव ने उनसे कहा – “भक्तप्रवर हनुमान! तुम धन्य हो| मैं तुम्हारे पराक्रम से संतुष्ट हो गया| मैं दान, यज्ञ या थोड़े-से तप से सुलभ नहीं हूं| तुम कोई वर मांगो|”
भगवान शिव की बात सुनकर हनुमान जी ने हंसते हुए कहा – “महेश्वर! श्रीराम की कृपा से मुझे कुछ भी अप्राप्त नहीं है, किंतु मैं आपसे यही वर मांगता हूं कि मेरे पक्ष के पुष्कल आदि मृत एवं शत्रुघ्न आदि मुर्च्छित होकर धरती पर पड़े वीरों की आप अपने गणों के साथ रहकर रक्षा करें| मैं इन्हें जीवित करने के लिए द्रोणगिरि पर जाकर औषधियां लाने जाना चाहता हूं|”
“मैं तुम्हारे लौटने तक इनकी रक्षा अवश्य करूंगा|” भगवान शंकर के स्वीकार करते ही हनुमान जी अत्यंत वेगपूर्वक क्षीरोदधि के तट पर पहुंचे| वे द्रोण नामक पर्वत को ले चलने के लिए तैयार ही थे कि वह कांपने लगा| पर्वत के रक्षक देवताओं ने हनुमान जी से कहा – “तुम इस क्यों ले जाना चाहते हो?”
हनुमान जी ने अत्यंत निर्भीक वाणी में भगवान शंकर के साथ घटित हुए युद्ध का वृत्तांत सुनते हुए देवताओं से कहा – “मैं अपने पक्ष के मृत वीरों को जीवित करने के लिए इस पर्वत को ले जाना चाहता हूं| बल के घमंड में आकर रोकने वालों को मैं जीवित नहीं छोडूंगा| अतएव तुम लोग यह समूचा द्रोण पर्वत अथवा नवजीवन प्रदान करने वाली वह औषधि ही मुझे दे दो| जिसमें मैं अपने मरे हुए वीरों के प्राण बचा सकूं|”
हनुमान जी की बात सुनकर सबने उन्हें प्रणाम किया और अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक मृत-संजीवनी औषधि उन्हें दे दी| हनुमान जी अत्यंत वेगपूर्वक युद्धभूमि में पहुंचे| वहां गणों सहित भगवान शिव अपने वचन के अनुसार पुष्कल एवं शत्रुघ्नादि वीरों के शरीरों की रक्षा कर रहे थे|
हनुमान जी ने पुष्कल के वक्ष पर औषधि रखी और उनके सिर को धड़ से जोड़कर कहा – “युद्ध मैं मन, वाणी और क्रिया के द्वारा श्रीराम को ही अपना स्वामी समझता हूं तो इस दवा से पुष्कल शीघ्र ही जीवित हो जाएं|” हनुमान जी के ऐसा कहते ही पुष्कल तुरंत ही उठ बैठे और युद्ध करने के लिए वीरभद्र को ढूंढने लगे|
फिर हनुमान जी तुरंत शिव के बाण से मुर्च्छित शत्रुघ्न के पास पहुंचे| वहां उन्होंने शत्रुघ्न की छाती पर औषधि रखकर कहा – “यदि मैंने यत्नपूर्वक, आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है तो वीर शत्रुघ्न क्षणभर में जीवित हो उठें|” ऐसा कहते ही शत्रुघ्न तत्काल ही जीवित हो उठे और वे युद्ध करने के लिए भगवान शंकर को ढूंढने लगे| पराक्रमी हनुमान जी ने उस औषधि के द्वारा अपने पक्ष के समस्त मृत सैनिकों को जीवित कर दिया| फिर तो सभी योद्धा कवचादि से सुसज्जित हो अपने-अपने रथ पर आरूढ़ होकर शत्रु का मान-मर्दन करने के लिए वेगपूर्वक चल पड़े|
इस बार राजा वीरमणि स्वयं शत्रुघ्न से युद्ध करने के लिए डट गए| यद्यपि राजा वीरमणि ने शत्रुघ्न के साथ भयानक युद्ध किया, किंतु शत्रुघ्न के तीक्ष्ण बाणों ने असह्य आघात से वे मुर्च्छित हो गए| यह देखकर भगवान शंकर अत्यंत कुपित हो गए और उन्होंने स्वयं शत्रुघ्न से युद्ध प्रारंभ कर दिया| शिव और शत्रुघ्न का युद्ध अत्यंत भयानक था| शत्रुघ्न शिव के प्रहारों को नहीं सह पाते थे| उन्हें व्याकुल देखकर हनुमान जी ने उनसे कहा – “अपनी रक्षा के लिए इस समय आप अपने श्रीराम का ही स्मरण करें| इसके अतिरिक्त प्राण रक्षा का अन्य कोई मार्ग नहीं है|”
हनुमान जी के सत्परामर्श से शत्रुघ्न जी अपनी रक्षा के लिए श्रीराम से अत्यंत करुण स्वर में प्रार्थना करने लगे| फिर क्या था, भगवान श्रीराम हाथ में मृग-श्रृंग लिए यज्ञदीक्षित पुरुष के वेश में वहां उपस्थित हो गए| युद्धस्थल में उन्हें आया देखकर शत्रुघ्न अत्यंत विस्मित किंतु सर्वथा निश्चिंत हो गए|
हनुमान जी की प्रसन्नता की तो सीमा ही न थी| वे दौड़कर प्रभु के चरणों में गिर पड़े| फिर उन्होंने हाथ जोड़कर निवेदन किया – “स्वामी! आपकी भक्तवत्सलता धन्य है| हम अत्यंत धन्य हैं, जो इस समय आपके श्रीचरणों का दर्शन पा रहे हैं| प्रभो! अब आपकी कृपा से हम लोग शत्रु को कुछ ही क्षणों में पराजित कर देंगे|”
उसी समय जब देवाधिदेव महादेव ने अपने हृदय धन भगवान श्रीराम को वहां उपस्थित देखा तो आगे बढ़कर उनके चरणकमलों में प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक कहा – “कृपामय प्रभो! आज मेरा परम सौभाग्य है, जो मैं यहाँ आपके दुर्लभतम दर्शन कर रहा हूं| मैं अपने भक्त के हित के लिए आपके कार्य में विघ्न उपस्थित किया है, कृपया मुझे क्षमा कीजिए| मैंने पूर्वकाल में इस नरेश को वरदान दिया था| उसी सत्य से मैं इस समय बंधा हूं| अब यह राजा अपना संपूर्ण जीवन आपके चरणों की सेवा में समर्पित कर देगा|”
भगवान शिव की बात सुनकर प्रभु श्रीराम ने कहा – “भगवन! अपने भक्तों का पालन करना तो देवताओं का धर्म ही है| आपने जो इस समय अपने भक्त की रक्षा की है, आपके द्वारा यह बहुत उत्तम कार्य हुआ है| शिवजी! मेरे हृदय में आप हैं और आपके हृदय में मैं हूं| हम दोनों में भेद नहीं है| जो मूर्ख हैं, उनकी बुद्धि दूषित है, वे मनुष्य हजार कल्पों तक कुंभीपाक में पकाए जाते हैं| महादेव जी! जो सदा आपके भक्त रहे हैं, वे धर्मात्मा पुरुष मेरे भी भक्त हैं तथा जो मेरे भक्त हैं, वे भी बड़ी भक्ति से आपके चरणों में मस्तक झुकाते हैं|”
भगवान श्रीराम के वचन सुनकर करुणामूर्ति शिवजीने अपने अमृतमय कर-स्पर्श से मुर्च्छित राजा वीरमणि को जीवित कर दिया| इसी प्रकार उनके अन्य पुत्रादि भी मृत्युंजय शिव की कृपा से जीवित हो गए| फिर तो राजा वीरमणि ने अत्यंत आदरपूर्वक यज्ञाश्व को प्रभु के सम्मुख उपस्थित कर दिया तथा अपने पुत्र, पशु और बांधवों सहित प्रभु की सेवा में ही अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया| यह देखकर परोपकार मूर्ति हनुमान जी आनंदमग्न हो गए|
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