जब धारा ने नहीं मानी सखी की बात
नदी की अनेक धाराएं साथ-साथ बहती चली आ रही थीं। उन्हीं में से एक धारा अपने गतिशील जीवन से ऊबकर आगे न जाकर आम के वृक्षों की छाया तले विश्राम करना चाहती थी। तब एक अन्य धारा ने समझाया कि गतिशीलता में ही हमारी पवित्रता है।
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दूर, बहुत दूर से प्रवाहित होकर आती हुईं नदी की अनेक धाराओं में से एक ने जीवन से निराश होकर अपनी सहेली से कहा- सखी, मैं तो अपने इस गतिशील जीवन से ऊब गई हूं। लगातार बहते रहने में मुझे आनंद नहीं आता। एक क्षण को भी विश्राम नहीं है। ऐसा भी जीवन किस काम का।
अब तो मैं थक गई हूं और आगे बढ़ने का मेरा इरादा नहीं है। देखो सखी, आम के वृक्षों की यह छाया कितनी शीतलता प्रदान करने वाली है। मैं तो इन्हीं के नीचे विश्राम करूंगी। ऐसा कहकर वह वहीं रुक गई और आम के वृक्षों की घनी छाया के निचले स्थान को जलपूरित करने लगी। दूसरी धारा बहुत देर से उसकी बातें सुन रही थी। अपनी सखी की इन बातों को सुनकर और यह जानकर कि अब उसका आगे जाने का मन नहीं है वह आगे बढ़ गई।
लेकिन जाते-जाते उसने उसे समझाने की बहुत कोशिश की कि तू इस बात को क्यों भूलती है कि हमारे जल की पावनता, स्वच्छता और स्वस्थता हमारी गतिशीलता में ही है। यदि तेरे जीवन में अकर्मण्यता ने स्थान बना लिया तो भविष्य में अपने स्वाभाविक गुणों से भी तू हाथ धो बैठेगी।
लेकिन पहली धारा पर अपनी सहधारा की अनुभवजन्य बातों का कोई असर नहीं हुआ और उन्हें अनसुनी कर वहीं आम के वृक्षों के तले विश्राम करने लगी। इसी तरह दिन बीतते रहे। उसने एक सरोवर का रूप धारण कर लिया। थोड़े दिनों बाद ही पानी के एक ही जगह स्थिर रहने के कारण उसके जल के ऊपर काई की मोटी परत जम गई।
अंतत: नदी का पानी इतना गंदा और दरुगधयुक्त हो गया कि आसपास के गांववासियों ने उसका पानी पीना और इस्तेमाल में लाना तो दूर की बात, अपने पशुओं को उसका गंदला पानी पिलाना और कपड़े धोना तक बंद कर दिया।
सार यह है कि जीवन का अस्तित्व निरंतर गतिशीलता में ही है। आगे बढ़ना छोड़कर जो रुक गया, समझिए उसके पतन की शुरुआत भी हो गई।