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भगवान् आश्रितों की देखभाल करते हैं

बात उस समय की है जब राज्य की व्यवस्था के लिये शत्रुध्न को मथुरा में और लव-कुश आदि राजकुमारों को भिन्न-भिन्न स्थानों में भगवान् श्रीराम ने नियुक्त कर रखा था|

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भगवान् ने उन्हें सन्मार्ग पर अत्यधिक दृढ़ बनाने के लिये प्रत्येक से अलग-अलग मिलना चाहा| विभीषण से मिलना अधिक आवश्यक था; क्योंकि उनके अनुचर राक्षस थे| वे देवता और मनुष्य के प्रति कलुषित आचारण करते थे| इस लिये लंकापुरी में जाकर राक्षसराज को फिर से बोध कराना आवश्यक था|

भगवान् श्रीराम के साथ भरत भी चलने को तैयार हो गये| लक्ष्मण को नगर-रक्षा का भार सौंपकर भगवान् श्रीराम ने पुष्पक-विमान का स्मरण किया| उस विमान दोनों भाई चढ़कर सबसे पहले गान्धार देश गये| वहाँ भगवान् ने भरत के दोनों पुत्रों की राजनीति का निरिक्षण किया| उन्हें उचित शिक्षा देकर वे पूर्व दिशा में जाकर लक्ष्मण के पुत्रों से मिले| वहाँ छः रातें बितायीं| उसके बाद दोनों भाई दक्षिण दिशा की ओर बढ़े| गंगा-यमुना के संगम में  स्नान कर तथा महर्षि भारद्वाज को प्रणाम कर वे अत्रि मुनि के आश्रम में गये| उनका आशीर्वाद लेकर जनस्थान की ओर बढ़े| वहाँ उन्होंने भरत से वहाँ की आपबीती घटनाएँ सुनायीं| किष्किन्धापुरी में दोनों भाई उतर गये| कपिराज सुग्रीव दोनों भाइयों को देखकर बहुत हर्षित हुए| उन्होंने सादर प्रणाम कर उन्हें अपने सिंहासन पर बैठाया और बड़ी प्रसन्नता से निवेदन किया कि ‘मैं, मेरा परिवार, सारा राज्य आपको न्योछावर है|’ ऐसा कहकर कपिराज सुग्रीव भगवान् के चरणों पर गिर पड़े| उसके बाद हनुमान, अंगद, जाम्बवान, नल-नील आदि छोटे-बड़े लोगों से वह सभाभवन ठसाठस भर गया| लोगों ने नेत्र भगवान् के रूप-माधुर्य का अदभुत रसपान कर रहे थे| प्रेमाश्रुओं से सभाभवन गीला हो गया|

जब सुग्रीव को पता चला कि भगवान् श्रीराम विभीषण को भी कृतार्थ करने जा रहे हैं, तब उन्होंने भी साथ चलने के लिये प्रार्थना की|भगवान् ने सुग्रीव को भी सह ले लिया| विमान तुरंत ही समुद्र-तटपर जा पहुंचा| भगवान् ने भरत को वह स्थल दिखाया, जहाँ विभीषण शरणागत हुए थे और तीन ही दिनों में पुल बनने की बात भी बतायी| इसके बाद विमान समुद्र के उस पार जा पहुँचा, जहाँ सीता की अग्निपरीक्षा हुई थी| उस स्थान पर विमान तबतक रुका रहा, जबतक भगवान् वहाँ का वृतान्त बताते रहे| विमान देखकर राक्षसों ने भिभिष्ण जी दौड़ते हुए आये और पृथ्वी पर लेटकर उन्होंने भगवान् को साष्टांग प्रणाम किया| विभीषण ने कहा-‘भगवन्! मेरा जन्म सफल हो गया और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये; क्योंकि आपके चरणों का दर्शन हुआ| इसके बाद विभीषण भरत जी और सुग्रीव जी से गले मिले| उन्हें रावण के जगमगाते भवन में ठहराया गया| उन्हें आसन पर बैठाकर और उनकी पूजा कर विभीषण बोले-‘मैं भगवान् को क्या भेंट करूँ; क्योंकि कुटुम्ब के साथ मुझे इन्होंने प्राणदान दिया है| सारी लंका मुझे दी है| इस तरह सारी वस्तुएँ इन्हीं की दी हुई हैं तो इन्हें क्या भेंट दूँ? फिर भी हम सब आपको समर्पित हैं|’ थोड़ी ही देर में दर्शनार्थियों से वह सारा स्थान भर गया| सबने श्रीराम-भरत और सुग्रीव के दर्शन कर अपने जीवन को कृतार्थ किया| राजमाता कैकसी अपने बहुओं के साथ भगवान् के पास आना चाहती थीं, किंतु मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम स्वयं जाकर उनसे मिले| कैकसी बहुत प्रसन्न थीं| उन्होंने बहुत आशीर्वाद दिये और यह भी बतलाया कि मेरे पतिदेव ने, जितनी घटनाएँ घटी हैं, मुझे पहले ही बतला रखा था| इसलिये मैंने तुम्हें पहचान लिया कि तुम विष्णु हो, सीता लक्ष्मी है और वानर देवता हैं; तुम्हें अमर यश प्राप्त हो| विभीषण की पत्नी सरमा सीता से बहुत प्रेम करती थी| उन्हें देखने के लिये व्यग्र रहा करती थी| इसलिये उसने प्रेमोपालम्भ में कहा-‘भगवन! सीता के बिना आप शोभा नहीं पाते, उन्हें भी साथ लाना चाहिये था|’

भगवान् श्रीराम ने सरमा से कहा-‘मुझे छोड़कर सीता चली गयी है| उसके बिना मुझे एक क्षण भी चैन नहीं मिलता, सारी दिशाएँ सूनी-सूनी दिखती हैं|’

सबको विदा कर भगवान् श्रीराम ने विभीषण को उचित मार्ग का निर्देश दिया| यह भी बतलाया कि तुम्हें अपने बड़े भाई कुबेर के आज्ञानुसार चलना चाहिये, देवताओं का प्रियकर होना चाहिये, उनका कभी अपराध नहीं करना चाहिये तथा यदि कोई मनुष्य लंका में आ जाय तो राक्षस उसे कोई हानि न पहुँचाने पावे|

विभीषण ने भगवान् की आज्ञा को सिर पर चढ़ाया| विभीषण के कहने से भगवान् ने पुल कई टुकड़ों में तोड़ दिया| उसी अवसर पर वायु देवता वहाँ आये| उन्होंने श्रीराम से निवेदन किया कि लंका में वामन भगवान् की मूर्ति पड़ी हुई है| इसे आप कान्यकुब्ज में ले जाकर प्रतिष्ठित कर दें| तत्पश्चात् विभीषण ने मूर्ति को बहुमूल्य रत्नों से विभूषित कर पुष्पक-विमान पर रख दिया| इसके बाद भगवान् भरत और सुग्रीव के साथ पुष्पक-विमान पर चढ़कर समुद्र-पार आये भूतभावन रामेश्वर की पूजा की| भगवान् शंकर ने सुधासक्ति वाणी में उन्हें आशीर्वाद दिया|

इसके बाद भगवान् पुष्कर की ओर बढ़े और वहाँ पितामह ब्रम्हा से मिलकर मथुरापुरी में शत्रुघ्न के पास गये| शत्रुघ्न ने अपने पुत्रों के साथ भगवान् श्रीराम को प्रणाम किया| भगवान् श्रीराम ने यहाँ पाँच दिन बिताये| इस तरह अपने आश्रितों की देखभाल कर गंगातट पर पहुँचकर उन्होंने भगवान् वामन की स्थापना की, लंका से प्राप्त धन को ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में देकर संतुष्ट किया तथा यहीं से सुग्रीव को किष्किन्धा भेज दिया और स्वयं भरत के साथ पुष्पक पर सवार होकर अयोध्या लौट आये|

तोते का
जब धारा