Homeभगवान शिव जी की कथाएँशिव पार्वती विवाह (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

शिव पार्वती विवाह (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा

शिव पार्वती विवाह (भगवान शिव जी की कथाएँ) - शिक्षाप्रद कथा

शिव की पहली पत्नी थीं सती| यह विवाह उन्होंने सती के पिता दक्ष की इच्छा के विरुद्ध किया था| दक्ष उनका अपमान करने के अवसर ढूंढा करते थे| पिता के ऐसे व्यवहार से लज्जित होकर सती ने अपना शरीर त्याग दिया| उनकी मृत्यु के बाद शिव हिमालय पर जाकर फिर से तपस्या में लीन हो गए| जिस उपवन में शिव ध्यान करते थे, उसके निकट ही पर्वतराज हिमवान रहता था| उसने स्वर्ग की अप्सरा मेनका से विवाह किया था| कुछ वर्ष बाद मेनका ने एक पुत्री को जन्म दिया| उसका नाम रखा पार्वती| वास्तव में सती ने ही फिर से पार्वती के रूप में जन्म लिया था|

वर्ष पर वर्ष बीते – और पार्वती ने युवावस्था में प्रवेश किया| एक दिन मेनका ने अपने पति से कहा – “स्वामी! पार्वती अब विवाह योग्य हो गई है| अब हमें पार्वती के लिए योग्य वर खोजना चाहिए|”

हिमवान बोला – “मैं जानता हूं| परंतु कोई योग्य वर ध्यान में नहीं आता| मैं अपनी पुत्री का हाथ उसी के हाथ में दूंगा जो सब प्रकार से योग्य होगा|”

एक दिन नारद मुनि हिमवान के घर आए| जब उन्होंने पार्वती को देखा तो हिमवान से बोले – “हिम! तुम्हारी पुत्री के भाग्य में तो भगवान शिव से विवाह करने का जोग है|”

नारद मुनि की बात सुनकर हिमवान सोचने लगा – ‘शिव के पास मैं कैसे जाऊं? उन्होंने अस्वीकार कर दिया तो? सती की मृत्यु के बाद उन्होंने किसी स्त्री का मुख तक नहीं देखा| परंतु मुझे वर खोजने की आवश्यकता नहीं| नारद मुनि की भविष्यवाणी असत्य नहीं होगी| मैं धीरजपूर्वक प्रतीक्षा करूंगा|”

परंतु एक दिन हिमवान का धीरज टूट गया| उसे एक विचार सूझा| वह मेनका से बोला – “मैं पार्वती को शिव की सेवा करने भेजता हूं| वे उसके रूप और गुण के प्रति आकर्षित जरूर होंगे|”

मेनका बोली – “विचार तो बहुत उत्तम है|”

हिमवान ने पार्वती को अपने पास बुलाया और कहा – “बेटी! भगवान शिव उस उपवन में तपस्या कर रहे हैं| तुम अपनी सहेलियों के साथ जाकर उनकी सेवा किया करो|”

पार्वती बोली – “अवश्य पिता जी! हमने अनेक बार उन्हें देखा है|”

पार्वती और उसकी दो सहेलियों को लेकर हिमवान शिव के पास गया और उनसे निवेदन किया – “भगवन! आपके पास पूजा-अर्चना की तैयारी करने वाला कोई नहीं है| मेरी पुत्री यह सेवा कर सकती है|”

हिमवान की बात सुनकर शिव सोचने लगे – ‘कन्याएं भले ही सेवा करें| जो व्यक्ति संसार से वैराग्य ले चुका है उसे इनसे कोई व्याघात नहीं पहुंचेगा|’ यह सोचकर वे हिमवान से बोले – “तुम्हारे इस प्रस्ताव के लिए मैं तुम्हारा आभारी हूं| कन्याएं मेरी इच्छानुसार सेवा कर सकती हैं|”

शिव का प्रस्ताव सुनकर हिमवान बहुत प्रसन्न हुआ और कन्याओं को वहां छोड़कर चला आया| पार्वती शिव की सेवा करने लगी| वह उपासना के लिए कुश-तृण चुनती थी और गर्मी बढ़ने पर शिव पर पंखा झलती थी| इस प्रकार पार्वती हृदय से शिव से प्रेम करने लगी|

इस बीच आपत्तिग्रस्त देवता इंद्र के साथ ब्रह्मा जी के पास आकर बोले – “भगवन! असुर तारक के अत्याचारों से हमारी रक्षा करें| उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है और लोगों में हाहाकार मचा हुआ है| उसे प्रसन्न करने के लिए हमने उसे उपहार भी भेजे परंतु हम जितना ही उसे प्रसन्न करने के प्रयत्न करते हैं उतनी ही उसकी दुष्टता बढ़ती जाती है| हमारी आपसे प्रार्थना है कि हमें कोई ऐसा नेता प्रदान कीजिए जो हमें उसके अत्याचारों से त्राण दिलाए|”

ब्रह्मा जी असहाय होकर बोले – “प्रिय पुत्रो! मैं चाहते हुए भी तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता| तारक को मैंने एक बार वरदान दिया था| उसी से वह इतना बलवान हो गया है| मैं भी उसका नाश नहीं कर सकता| परंतु एक उपाय है, शिव का पार्वती से विवाह विधि का विधान है| तुम जाओ और शिव को पार्वती की सुंदरता का भान कराओ| शिव और पार्वती का जो पुत्र होगा वही तुम्हारा नेता बनकर तारक का वध करेगा|”

ब्रह्मा जी की बात सुनकर देवराज इंद्र सीधे प्रेम के देवता काम के पास पहुंचे और बोले – “कामदेव! मैं तुम्हारे पास एक आवश्यक काम से आया हूं| तुम शिव पर अपना जादू चलाओ ताकि वे पार्वती से विवाह कर लें|”

इंद्र की आज्ञा पाकर कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ शिव के कुंज में पहुंचे| वहां शिव को देखा तो उनका साहस छूट गया| उसी समय पार्वती वहां से निकली तो कामदेव का फिर से साहस बंधा| पार्वती ने नतमस्तक होकर कुछ पुष्प शिव के सम्मुख रखे| यह देख शिव बोले – “तुम्हें ऐसा पति मिले जो बस केवल तुमसे ही प्रेम करने वाला हो|”

शिव की बात सुनकर पार्वती सोचने लगी – ‘शिव का वचन कभी मिथ्या नहीं होगा| मैं कितनी भाग्यशाली हूं|’ यह सोचकर पार्वती शिव के गले में माला पहनाने ही वाली थी तभी कामदेव का बाण निशाने पर लगा| शिव ने पूरी शक्ति से अपनी भावनाओं को वश में किया और इधर-उधर देखने लगे उन्होंने कहा – “मेरे मन की शांति भंग करने का साहस किसने किया है?” तभी उनकी दृष्टि कामदेव पर पड़ी| उस दृष्टिमात्र से कामदेव जलकर राख हो गए| यह देख रति मुर्च्छित हो गई| शिव पार्वती की ओर आंख उठाए बिना ही कुंज में चले गए| यह देख पार्वती शोक और लज्जा से विह्वल हो उठी और उदास मन से अपने घर लौट गई|

उधर जब रति की मूर्च्छा टूटी तो उसने सोच – ‘जब मेरे पति ही नहीं रहे तो मैं जीकर क्या करूंगी| अच्छा यही है कि मैं भी मरकर उनके पास जा पहुंचूं|’ वह यह सोच ही रही थी कि तभी आकाशवाणी हुई – “जीवन मत त्याग| पार्वती तपस्या करके शिव को वर के रूप में पाएगी और उनके विवाह के दिन तेरा पति पुनर्जीवित होकर फिर से तुझे मिलेगा|” आकाशवाणी सुनकर रति को ढाढ़स बंधा और वह उस दिन की प्रतीक्षा करने लगी|

उधर शिव के व्यवहार से पार्वती को बहुत दुख हुआ| परंतु उसके प्रेम में कमी नहीं आई| वह सोचने लगी – ‘मेरा सौंदर्य उन्हें आकर्षित नहीं कर सका| परंतु मैं हार नहीं मानूंगी| सौंदर्य से नहीं तो मैं अपनी तपस्या और भक्ति से उन्हें प्राप्त करूंगी|’ यह सोचकर उसने अपना निर्णय अपने माता पिता को बताया| पार्वती के निर्णय के आगे माता-पिता को झुकना पड़ा और उसे आशीर्वाद देकर विदा किया| सुंदर वस्त्रों तथा आभूषणों का त्याग करके पार्वती कुंज में तपस्या करने बैठ गई| कई वर्ष बीत गए, परंतु पार्वती ने आशा नहीं छोड़ी|

एक दिन वह जल कुंड में प्रवेश करने से पहले पूजा-अर्चना की तैयारी कर रही थी कि एक युवक ऋषि उससे मिलने आया| उसने पार्वती से कहा – “तुम्हारा यह सुकुमार शरीर कैसे ये कठिन कर्म करता है जो तुम्हारी आत्मा उससे करवा रही है? तुमने संसार को दिखा दिया है कि सुंदरता और पवित्रता एक दूसरे को नष्ट करने के लिए नहीं हैं| तुम्हारे आचरण ने तुम्हारे पिता के गौरव की और बढ़ाया है| सुकुमारी! तुमने यह कठिन तपस्या का व्रत क्यों लिया है? घर लौट जाओ, सुकुमारी! तुम तपस्या त्याग दो| जो सिद्धियां मैंने प्राप्त की हैं उनमें से आधी मैं तुम्हें दूंगा| लेकिन कृपया तपस्या का कारण बता दो|”

पार्वती ने अपनी सखी से कारण बताने को कहा तो सखी ने कहा – “मेरी सखी पार्वती ने शिव का प्रेम जीतने का निश्चय किया है| अपने सौंदर्य से तो यह उन्हें नहीं रिझा सकी अत: तपस्या और त्याग का सहारा लिया है|”

सखी की बात सुनकर ऋषि ने पार्वती से कहा – “क्या यह सत्य है? या तुम्हारी सखी हंसी कर रही है?”

पार्वती बोली – “यह सत्य है ऋषिवर! मैं शिव की पूजा करती हूं| मुझे विश्वास है कि तपस्या और भक्ति से एक दिन मैं उनका प्रेम प्राप्त करने में सफल हो जाऊंगी|”

ऋषि ने कहा – “ओह, तो ये बात है| मैं शिव को जानता हूं| वह तो अपने सारे शरीर पर भस्म रमाए रहता है, नाग उससे लिपटे रहते हैं, चर्म धारण करता है| तुम्हारी जैसी सुंदर युवती कैसे उसकी पत्नी हो सकती है? वह निर्धन है, औघड़ है, यह सारा संसार जानता है| वह तुम्हारे योग्य नहीं है| उसका विचार त्याग दो और कोई दूसरा व्यक्ति चुन लो|”

ऋषि की बातें सुनकर पार्वती क्रोधित होकर बोली – “चुप रहो! महान आत्मा को महान आत्मा ही पहचान सकती है| नीच प्राणी उच्च विचारों को समझ नहीं सकता| तुम्हारा वचन तुम्हारी दुर्भावनाओं का सूचक है| शिव दिखावे से न प्रभावित होते हैं, न किसी को प्रभावित करते हैं| वे औघड़ हैं, निर्धन हैं, चर्म धारण करते हैं – उनके शरीर से सर्प लिपटे रहते हैं तो क्या हुआ? वे मेरे मनोनीत देवता हैं| उनमें चाहें दुर्बलताएं अधिक हों और गुण कम फिर भी उन्हें चाहती हूं|”

पार्वती की सहेलियां यह सुनकर चकित रह गईं| पार्वती उनसे बोली – “प्रिय सखी! इनसे कहो कि चले जाएं| क्यों इन्होंने अपने हृदय को ऐसे विचारों से कलुषित कर रखा है? बुरी बात कहना पाप है तुरंत उसे सुनना और भी बड़ा पाप है| चलो हम चलें|”

क्रोध से भरकर पार्वती ज्यों ही चलने को हुई ऋषि ने जल्दी से आगे बढ़कर उसका मार्ग रोक लिया| पार्वती आश्चर्य से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई| वह ऋषि और कोई नहीं, स्वयं भगवान शिव थे| वे पार्वती से बोले – “सुकुमारी! तुम्हारी तपस्या और भक्ति ने मुझे जीत लिया है| मैं तुम्हारे सामने विनत हूं, तुम्हारा दास हूं|”

किंतु कर्तव्य परायणा पार्वती शिव को छोड़ अपनी सखी के पास जाकर बोली – “सखी! इनसे कहो कि मेरे पिता जी से विवाह का प्रस्ताव करना होगा|”

सखी के यह कह देने पर पार्वती शिव के पास आई| शिव बोले – “मैं इसमें तनिक भी देर नहीं करूंगा प्रिये!”

यह आश्वासन पाकर पार्वती अपनी सहेलियों के साथ घर लौट आई| शिव ने सप्त ऋषियों को बुलाकर उनसे कहा – “ब्रह्मा ने देवताओं को वचन दिया है कि मेरा पुत्र तारक का वध करेगा| इस वचन को पूरा करने के लिए मुझे पार्वती से विवाह करना है| जाकर हिमवान से विवाह का प्रस्ताव करो|”

प्रस्ताव सुनकर हिमवान अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने विधि-पूर्वक शिव पार्वती का विवाह कर दिया| विवाह संस्कार के बाद देवता शिव के पास आकर बोले – “भगवन! हमारा आपसे आग्रह है कि रति को फिर से उसका पति मिलना चाहिए| अपनी प्रिय वधू का ध्यान करके प्रेम के देवता, कामदेव तथा उनकी शोकाकुल पत्नी पर कृपा कीजिए|”

“अवश्य, अब तो मैं भी उसी कामदेव का दास हूं|”

कई वर्ष बीत गए| शिव अपनी पत्नी के प्रेम में डूबे हुए थे| तब इंद्र ने अग्नि को शिव के पास भेजा| अग्निदेव शिव के पास गए और उनसे विनती की – “भगवन! मैं आपको देवताओं की आवश्यकता का स्मरण कराने आया हूं|”

शिव ने अग्निदेव के हाथ में एक बीज रखा और बोले – “इस बीज के पकने पर एक बालक का जन्म होगा| वही तुम्हारा सेनापति होगा|”

अग्निदेव बीज लेकर वहां से चले गए| परंतु वह बीज इतना गर्म था कि उसे पकड़े रहना कठिन था| इंद्र के पास पहुंचते-पहुंचते अग्निदेव का शरीर पीड़ा से पीला पड़ गया| वह इंद्र से बोले – “बीज मेरे पास है| परंतु उसे संभालना असंभव है|”

अग्निदेव की दशा देखकर इंद्र दुखी होकर बोले – “तुम इसे गंगा के पास ले जाओ| वह तुम्हें ठंडक पहुंचाएगी और इसे संभालेगी|”

अग्निदेव गंगा के पास गए| जब उन्होंने बीज को लेकर उसमें डुबकी लगाई तो उसमें उफान आने लगा और वह उबलने लगी तथा बीज किनारे पर जा गिरा| उसी समय स्वर्ग की छ: अप्सतराएं गंगा में स्नान करने आईं| उन्होंने बीज को उठाकर शर घास में रख दिया| बीज तब तक पक चुका था और उसमें से कार्तिकेय प्रकट हुआ| आश्चर्यचकित अप्सराएं बोलीं – “इसे हम अपने साथ ले जाएंगी| पहले-पहल हमने ही इसे देखा है|”

तभी गंगा स्त्री का रूप धारण कर बाहर आई और अग्निदेव भी वहां आए| गंगा बोली – “इसे मैं ले जाऊंगी| मैंने इसे जन्म दिया है|”

अग्निदेव बोले – “नहीं, यह हमें प्रदान किया गया है|”

उसी समय शिव तथा पार्वती वहां आए| शिव ने विवाह का निर्णय करते हुए कहा – “जो बालक देवताओं का नेतृत्व करने वाला है| उसका पालन-पोषण पार्वती ही कर सकती है|”

पार्वती ने प्रेम से बालक को उठाकर छाती से लगा लिया| फिर वे कैलाश पर्वत को लौट आए| समय बीतने के साथ कार्तिकेय बड़ा हुआ| उसके नेतृत्व में देवताओं और तारक के बीच भीषण युद्ध हुआ| कार्तिकेय ने उसे मार डाला| स्वर्ग का सिंहासन फिर से इंद्र को मिला और स्वर्ग में फिर से सुख-शांति का साम्राज्य प्रस्थापित हुआ|

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